मैं ग्वालियर का किला … मुझे देखने सात समंदर पार से आते हैं लोग ?

मैं ग्वालियर का किला, कई युद्धों का साक्षी, खूबसूरती ऐसी की मुझे देखने सात समंदर पार से आते हैं लोग

ग्‍वालियर के किले को भारत का जिब्राल्‍टर कहा जाता है। इसकी वजह यह है कि फ्रांस के जिब्राल्‍टर के किले को जीतना आसन नही था। यह किला अपने आप में गौरवशाली इतिहास को सहेजे हुए है।

World Heritage Week: मैं ग्वालियर का किला, कई युद्धों का साक्षी, खूबसूरती ऐसी की मुझे देखने सात समंदर पार से आते हैं लोगग्‍वालियर किला- जीता जागता निशान है ग्‍वालियर के गौरव का ….
  1. सूरज सेन ने कराया था ग्वालियर किले का निर्माण
  2. महाराजा देव परम ने ग्वालियर पर तोमर राज्य स्थापित किया
  3. 1804 से 1844 के बीच अंग्रेजों और सिंधिया घराने का राज रहा

 ग्वालियर। मैं ग्वालियर का किला मेरे साथ कई राजाओं की शौर्य गाथाएं जुड़ी हैं, वहीं अपने साथ हुई बर्बरता की निशानियां लिए मैं आज एक जगह खड़ा हूं। मेरी खूबसूरती मुगल शासक औरंगजेब को यहां खींच लाई।

उसने न केवल मुझे बल्कि मेरे यहां की मूर्तियों को भी तहस नहस कर दिया। एक वक्त ऐसा भी आया, जब मुझे ईस्ट इंडिया कंपनी ने हथिया लिया। मुझे मिटाने की तमाम कोशिशें हुई। वक्त के साथ एक के बाद एक कई राजाओं ने मुझ पर राज किया। 1804 से 1844 के बीच मुझ पर अंग्रेजों और सिंधिया घराने का राज रहा। आखिरकार 1844 में महाराजापुर की लड़ाई के बाद मैं पूरी तरह से सिंधिया घराने का हो गया और अब मैं विश्व धरोहर में शामिल हूं।

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मेरी खूबसूरती इतनी है कि दूर-दूर से पर्यटक मुझे निहारने आते हैं। भले ही मैंने कई आक्रमण झेले, लेकिन मेरी भव्यता आज भी बरकरार है। मैं ग्वालियर का किला देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी मशहूर हूं। मेरा निर्माण आठवीं शताब्दी में किया गया था। मैं तीन किलोमीटर के दायरे में फैला हूं और मेरी ऊंचाई 35 फीट है। मेरा भारतीय इतिहास में भी एक महत्वपूर्ण स्थान है।

इतिहासकारों के मुताबिक मेरा निर्माण सूरज सेन कराया। मेरी स्थापना के बाद मुझ पर पाल वंश ने राज किया। इसके बाद प्रतिहार वंश और फिर मोहम्मद गजनी ने मुझ पर आक्रमण कर दिया, लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा। 1196 ईस्वी में कुतुबुद्दीन ने मुझे अपने अधीन कर लिया, लेकिन 1211 ईस्वी में उसे हार का सामना करना पड़ा। फिर 1231 ईस्वी में गुलाम वंश के संस्थापक इल्तुतमिश ने मुझे अपने अधीन कर लिया। इसके बाद महाराजा देव परम ने ग्वालियर पर तोमर राज्य की स्थापना की।

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यह भी है मेरा इतिहासमुझे याद है जब पहली बार मेरे परिसर में जौहर हुआ था। इसमें मेरे परिसर के अंदर मौजूद स्त्रियों ने इल्तुतमिश की सेना से बचने के लिए आत्महत्या की थी। उन्होंने जिस जगह अपना जीवन त्यागा था, उसे जौहर कुंड या जौहर ताल के नाम से जाना जाता है और यह मेरे उत्तरी छोर पर स्थित है।

मेरी एक किंवदंती यह भीमेरे बारे में कहा जाता है कि मेरे शासक सूरज सेन को कुष्ठ रोग हुआ था। एक घुमंतू ऋषि, ग्वालिपा उनसे मिलने आए और उन्हें पास के ही एक पवित्र तालाब का जल पीने को कहा। इस जल के सेवन के बाद, राजा चमत्कारिक रूप से अपने रोग से मुक्त हो गए और उन्होंने बाद में आभार स्वरूप, मेरा निर्माण करवाया। मेरा नाम उस ऋषि के नाम पर रखा गया। ऋषि ने राजा और उनके वंशजों को किले के पाल या रक्षक की उपाधि दी थी। ऐसा माना जाता है कि जिस तालाब के पानी से राजा अपने रोग से ठीक हुए थे, वह अब भी मेरे परिसर में ही स्थित है और उसे सूरज कुंड कहा जाता है।

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मुझ तक पहुंचने के लिए कई प्रवेश द्वारमुझ तक पहुंचने के लिए अनेक प्रवेश द्वार हैं। इनमें आलमगिरि या ग्वालियर द्वार, गणेश द्वार, चतुर्भुज द्वार, उरवाई द्वार, लक्ष्मण द्वार, बादल महल या हिंडोल द्वार और हाथी पोल शामिल हैं। हाथी पोल मेरा मुख्य प्रवेश द्वार है, जो मेरे परिसर के दक्षिण-पूर्व भाग में स्थित है। यह मानसिंह महल के पूर्वी अग्रभाग का हिस्सा है। ऐसा माना जाता है कि जिस हाथी की मूर्ति (जिसका वर्णन इब्न बतूता ने अपने संस्मरणों में भी किया है) के कारण द्वार का नाम रखा गया था, वह मुगल बादशाह औरंगजेब के आदेश पर हटा दी गई थी। किले के अंदर मौजूद पानी के जलाशयों से 15000 सैनिकों के लिए महीनों तक पानी की आपूर्ति हो सकती थी।

मेरे परिसर में एक पवित्र आध्यात्मिक स्थान भी है

  • मैं रक्षात्मक गढ़ होने के अतिरिक्त, एक पवित्र आध्यात्मिक स्थान भी हूं। मेरे परिसर में कुछ उत्कृष्ट मंदिर भी हैं, जो प्रारंभिक मध्यकालीन मंदिर वास्तुकला के आदर्श नमूने हैं। वास्तव में इसी अवधि के आसपास, ग्वालियर शहर, वास्तुकला की नागर शैली के एक प्रमुख केंद्र के रूप में उभरा था। संस्कृत के एक अभिलेख के अनुसार, छठी शताब्दी ईस्वी के हूण सम्राट, मिहिरकुल, के शासनकाल में ग्वालियर में एक सूर्य मंदिर का निर्माण हुआ था।
  • मेरे परिसर में बना तेली का मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है और यहां के सभी मंदिरों में यह सबसे बड़ा है। 9वीं शताब्दी ईस्वी में गुर्जर-प्रतिहार शासकों द्वारा बनवाया गया यह मंदिर, वास्तुकला की नागर और द्रविड़ शैलियों के सुंदर मेल का एक अद्भुत उदाहरण है। 11वीं शताब्दी में प्रसिद्ध सहस्रबाहु मंदिर का निर्माण हुआ था, जो अब सास-बहू मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। भगवान विष्णु को समर्पित यह मंदिर, कच्छपघाट वंश के राजा महिपाल ने बनवाया था।
  • इसके नाम के कारण, मेरे प्रति लोगों की रुचि जागृत हुई। मेरे परिसर में भगवान विष्णु को एक हजार हाथों के साथ दर्शाया गया है, जिसके कारण इसका नाम सहस्रबाहु पड़ा। ऐसा माना जाता है कि राजा महिपाल की रानी भगवान विष्णु की परम भक्त थीं और उनकी पुत्रवधू भगवान शिव की पूजा करती थीं। इसके कारण, उनकी पुत्रवधू की पूजा के लिए सहस्त्रबाहु मंदिर की एक प्रतिकृति बनाई गई थी, जो भगवान शिव को समर्पित थी। इस प्रकार जुड़वां मंदिरों का निर्माण हुआ, जिसे अब आमतौर पर सास-बहू मंदिर कहते हैं।

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यह भी है मेरे परिसर में

  • भगवान विष्णु को समर्पित गरुड़ स्मारक मेरे परिसर में सबसे ऊंचा स्थान है, जो तेली के मंदिर के पास ही स्थित है। मेरे परिसर में ध्यान की कायोत्सर्ग मुद्रा में 24 तीर्थंकरों को दर्शाती सिद्धाचल गुफ़ाएं हैं। ऐसा माना जाता है कि इन मूर्तियों का निर्माण 7वीं शताब्दी ईस्वी में शुरू हुआ था। हालांकि, ये 15वीं शताब्दी ईस्वी में तोमरों के शासनकाल में पूरी हुई थीं।
  • मेरे अंदर 875 ईस्वी में गुर्जर-प्रतिहार शासकों द्वारा बनवाए गए चतुर्भुज मंदिर में एक अभिलेख है, जिसमें शून्य संख्या का संसार का सबसे पहला ज्ञात लिखित प्रमाण मौजूद है। यह 1500 वर्षों से भी पुराने एक अभिलेख में मिला है, जो आज भी सभी भारतीयों के लिए गर्व का विषय है। प्रसिद्ध मान मंदिर महल तथा मृगनयनी के लिए बनवाया गया गुजरी महल भी है।

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मेरे परिसर में ऐसा भी हुआ

  • मुगल बादशाहों ने मेरे परिसर में जहांगीर महल और शाहजहां महल नामक दो संरचनाएं बनवाई थीं। 1609 ईस्वी में मुगल बादशाह जहांगीर ने छठे सिख गुरु, हरगोबिंद को कैद करने के लिए भी मेरे परिसर का उपयोग किया था। उनकी रिहाई के दिन को दुनिया भर के सिख मुक्ति दिवस या बंदी छोड़ दिवस के रूप में मनाते हैं। गुरु हरगोबिंद की स्मृति में मेरे परिसर में एक भव्य गुरुद्वारा बनवाया गया।
  • मेरे अंदर की एक अन्य उल्लेखनीय संरचना, भीम सिंह राणा की छतरी है। इसे राणा छतर सिंह ने अपने पूर्ववर्ती, गोहद राज्य के शासक भीम सिंह राणा के सम्मान में बनवाया था। मेरे परिसर में आज सिंधिया स्कूल भी है।

मुझे मोती भी कहा गयामेरे वैभव के कारण, पहले मुगल बादशाह जहीर-उद-दीन मोहम्मद बाबर ने मुझे हिंद के किलों के बीच मोती कहा था। मेरी मजबूत बनावट कई युद्ध और लड़ाइयां झेल चुकी है। मैं ग्वालियर का किला, समय की कसौटी पर हर समय खरा उतरा और स्थानीय निवासियों की संस्कृति का एक अभिन्न अंग अब तक बना हुआ हूं।

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