नदी जोड़ो अभियान, केन-बेतवा से लाखों लोगों को होगा फायदा
जब कोई परियोजना देर से शुरू होती है तो केवल उसकी लागत ही नहीं बढ़ती बल्कि उससे लाभान्वित होने वाले लोगों को राहत देने में अनावश्यक देरी होती है। इससे उनमें निराशा घर करती है। यह ठीक नहीं कि सत्ता परिवर्तन के कारण कोई बहुपयोगी परियोजना ठंडे बस्ते में चली जाए। दुर्भाग्य से अपने देश में ऐसा प्रायः होता है।
प्रधानमंत्री की ओर से केन-बेतवा नदियों को जोड़ने की परियोजना का शिलान्यास एक महत्वाकांक्षी परियोजना को गति प्रदान करना है। इस परियोजना से मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के लाखों लोग लाभान्वित होंगे। यह परियोजना पेयजल के साथ सिंचाई के पानी के संकट को भी दूर करने में सहायक बनेगी। इसके अतिरिक्त यह बिजली का भी उत्पादन करेगी।
यह संतोषजनक है कि लाखों लोगों के जीवन में खुशहाली और समृद्धि लाने वाली यह परियोजना अंततः आगे बढ़ी, लेकिन इस पर विचार किया जाना चाहिए कि इसके शुभारंभ में इतनी देर क्यों हुई? केन और बेतवा नदियों को जोड़ने की परिकल्पना बहुत पहले की गई थी, लेकिन लंबे समय तक उस पर विचार ही होता रहा और तत्कालीन सरकारें उस पर कोई ठोस निर्णय नहीं ले सकीं। इसे इंगित करते हुए प्रधानमंत्री ने यह सही ही कहा कि ऐसी परियोजनाओं की देरी के मूल में कांग्रेस सरकारों का रवैया रहा। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वाजपेयी सरकार ने लगभग 20 वर्ष पहले नदी जोड़ो अभियान की रूपरेखा बनाई थी। यह सर्वथा उचित ही है कि उनकी जन्मतिथि पर केन-बेतवा नदियों को जोड़ने की परियोजना को हरी झंडी दिखाई गई। अच्छा होता कि यह परियोजना विलंब का शिकार नहीं होती। कम से कम अब तो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि यह परियोजना तय समय में पूरी हो।
जब कोई परियोजना देर से शुरू होती है तो केवल उसकी लागत ही नहीं बढ़ती, बल्कि उससे लाभान्वित होने वाले लोगों को राहत देने में अनावश्यक देरी होती है। इससे उनमें निराशा घर करती है। यह ठीक नहीं कि सत्ता परिवर्तन के कारण कोई बहुपयोगी परियोजना ठंडे बस्ते में चली जाए। दुर्भाग्य से अपने देश में ऐसा प्रायः होता है। सरकारों के बदलने के साथ ही या तो प्रस्तावित योजनाओं की उपेक्षा का सिलसिला कायम हो जाता है या फिर सीधे-सीधे उसका विरोध शुरू हो जाता है। कभी-कभी पर्यावरण हितैषी संगठन उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं।
निःसंदेह किसी भी परियोजना को मूर्त रूप देने में पर्यावरण का ध्यान रखा जाना चाहिए, लेकिन यह जिद भी ठीक नहीं कि कोई पेड़ न कटे और किसी को भी विस्थापन का सामना न करना पड़े। पर्यावरण रक्षा के नाम पर विकास और साथ ही जनकल्याण विरोधी राजनीति नहीं की जानी चाहिए। इस राजनीति का परिचय केवल केन-बेतवा नदियों को जोड़ने के मामले में ही नहीं दिया गया। अन्य कई परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के मामले में भी ऐसा हुआ। अच्छा हो कि अब यह संकल्प लिया जाए कि भविष्य में किसी परियोजना के मामले में ऐसा न हो। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को इस पर आम सहमति कायम करनी होगी कि विकास के कामों में राजनीतिक मतभेद आड़े न आने पाएं।