वक्फ बोर्ड संस्थान नहीं भूमि माफिया है !
वक्फ बोर्ड संस्थान नहीं भूमि माफिया है, बिहार के गांव पर दावे से रिजिजू की बात हुई सच साबित
वक्फ नहीं, भू-माफिया है बोर्ड
हम सभी को याद है कि भारत की केंद्र सरकार ने जब वक्फ को सीमा में लाने या उसके समानांतर सरकार चलाने की कोशिशों को पतीला लगाने की शुरुआत करनी चाही, तो जैसा कि होना ही था, ऐसा होते ही सियासत तेज हो गयी. तथाकथित सेक्युलर और समाजवादी कहलाने वाले दल कूदकर इसे एक सांप्रदायिक फैसला बताने आ गए. इस देश में सेकुलरिज्म की इतनी अद्भुत परिभाषा गढ़ी गयी है कि इस बात पर भी बहस होती है कि इस देश की कोई संस्था इसी देश के कानूनी फ्रेमवर्क से दूर है और लोग इसे बदलने पर इस्लामोफोबिया का नाम देते हैं. जी हां, वक्फ अगर किसी की जमीन पर दावा करता है, तो उसका निपटारा भी वक्फ की ही अदालत में होगा, भारत की अदालतें चुप रहेंगी. भले ही गोविंदपुर का मामला पटना हाईकोर्ट में चल रहा है, लेकिन यह न भूलें कि खुद इलाहाबाद हाईकोर्ट को अपनी गर्दन बचाने के लिए वक्फ के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पहुंचना पड़ा. आम जनता को याद ही है कि दक्षिण भारत में एक सैकड़ों वर्ष पुराने मंदिर सहित पूरा गांव ही हड़पने की कोशिश वक्फ बोर्ड कर चुका है.
ये मामला अदालत में है. ऐसे ही कई ईदगाह मैदानों पर वक्फ बोर्ड दावा ठोकता रहा है, वो भी तब जब कि सरकार से वो बदले में अलग ईदगाह मैदान के लिए जगह ले चुका है. वक्फ बोर्ड की एक सामानांतर सरकार चलाने की ये कोशिशें कांग्रेस शासन के दौर में वक्फ बोर्ड को असीमित ताकतें मिलने के साथ ही शुरू हो गयी थीं.
अंबानी के घर पर भी वक्फ का दावा
हाल में ये मामले नजर इसलिए आने लगे क्योंकि अम्बानी के मुंबई स्थित आवास पर वक्फ बोर्ड ने दावा ठोक दिया था. ये मामला भी अदालत में है. सोशल मीडिया की बात करें तो आम लोग अक्सर वक्फ की इस असीमित ताकत के विरुद्ध बोलते नजर आयेंगे लेकिन जैसा कि जाहिर ही है. कांग्रेस ने अपनी तुष्टिकरण की राजनीति के तहत वक्फ बोर्ड को हवा दी थी. किरण रिज्जू ने मुसलमान वक्फ (रिपील) बिल 2024, जो कि वक्फ एक्ट 1923 की जगह लेगा, उसे पेश करते हुए तमिलनाडु के तिरिचिरापल्ली जिले के गांव का जिक्र किया था.
यहां करीब 1500 वर्ष पुराना (चोल साम्राज्य काल का) एक मंदिर भी है. इस गांव का एक व्यक्ति जब अपनी डेढ़ एकड़ जमीन बेचने गया, तब जाकर उसे पता चला कि उसका तो पूरा गांव ही वक्फ ने अपनी संपत्ति बना रखा है. ऐसे मामलों में वक्फ की समानांतर सरकार का आलम ये है कि जिस संपत्ति को वक्फ ने अपना बता दिया, उसका सर्वेक्षण करके उसे अपनी संपत्ति तो वक्फ बोर्ड स्वयं बताएगा ही, लेकिन कोई प्रतिवादी अगर ये कह दे कि जमीन वक्फ की नहीं, उसकी है, तो उसे ये बात वक्फ की निजी अदालतों में सिद्ध करनी पड़ेगी. इसमें सबसे मजे की बात है कि इस्लाम को पैदा हुए कुल 1400 साल मात्र हुए हैं, लेकिन उसके भू-माफिया वक्फ की आड़ में डेढ़ शताब्दी पुरानी चीजों पर भी डाका डालने आ जा रहे हैं.
पटना के गोविंदपुर में तमिलनाडु जैसा मामला
जिन्हें तमिलनाडु कहीं दूर दक्षिण की बात लग रही थी, उनके लिए ताजा मामला अब पटना के ही फतुहा विधानसभा क्षेत्र में आने वाले गोविंदपुर गांव का है. गांव के कई लोगों को बिहार सुन्नी वक्फ बोर्ड ने नोटिस दिया है कि वो तीस दिनों के भीतर जमीनें खाली कर दें. मामले ने तूल पकड़ना शुरू कर दिया है और भाजपा के सत्येन्द्र सिंह (पूर्व में भाजपा के फतुहा सीट से उम्मीदवार रहे) के नेतृत्व में एक टीम गांव पहुंच गयी. मामले की सूचना पटना साहिब से सांसद रविशंकर प्रसाद को दी गयी और सत्येन्द्र सिंह की टीम मामले की रिपोर्ट उन्हीं को देगी.
गांव के 95% लोग हिन्दू हैं, ऐसे में गांव की जमीन का कोई हिस्सा वक्फ कैसे और कब हो गया पता नहीं. ये वैसा ही है जैसे तमिलनाडु वाले मामले में भी ग्रामीणों के पास जमीनों के कागज 1910 से हैं, यानी वक्फ बोर्ड बनने से भी कई वर्ष पहले की जमीन पर भी वक्फ दावा ठोकने से बाज नहीं आता.
आम लोगों से मांगा गया सुझाव
तथाकथित सेक्युलर कहलाने वाले फैक्ट चेकर पूर्व में वक्फ बोर्ड के इस तरह के दावों को खारिज करने की कोशिशें कर चुके हैं. ये एक किस्म की धूर्तता से अधिक कुछ भी नहीं. उनकी कोशिश थी कि आम आदमी की नींद न खुले. महाराष्ट्र के सीएनएन-न्यूज़18 के राहुल शिवशंकर ने जब ये दावा किया था कि वक्फ एक्ट, 1995 की धारा 40 के अंतर्गत बिना कोई जांच वक्फ बोर्ड किसी भी संपत्ति को अपनी संपत्ति कह सकती है, तो फैक्ट चेकर इस मामले में कूदे थे और दावे को झूठा बताने की कोशिशें की थी.
अब जब बिहार के ग्रामीणों को पटना हाईकोर्ट की शरण लेनी पड़ रही है तो फैक्ट चेकर्स का दावा ही बेसिरपैर का दिखाई दे रहा है. इन सबके बीच सरकार ने आम नागरिकों से वक्फ एक्ट पर राय मांगी है. सांसद जगदम्बिका पाल के नेतृत्व वाली जिस संयुक्त संसदीय समिति के पास अभी वक्फ (अमेंडमेंट) बिल है, उसने लिखित में अंग्रेजी हिंदी में पंद्रह दिनों के भीतर जनता से राय मांगी है. आम आदमी जबतक स्वयं अपने हाथ में ऐसे मामलों को नहीं लेता तबतक स्थिति में कोई सुधार आएगा, ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती.
सिर्फ असीमित अधिकारों की बात छोड़ भी दें तो वक्फ बोर्ड में न तो महिलाओं को कोई प्रतिनिधित्व मिलता है, न ही इसमें पिछड़ी ज़ात के मुसलमानों को कोई जगह मिलती है. अनियमित तरीके से जमीन बेचने से लेकर किस्म किस्म की धांधली के आरोप भी वक्फ बोर्ड पर अलग-अलग राज्यों में लगते आये हैं. अब सवाल ये है कि बार-बार यू-टर्न मारती भाजपा सरकार क्या ये साबित कर पाएगी कि उसमें कोई रीढ़ की हड्डी है? या हाल के दौर के दूसरे कुछ कानूनों जैसा ही इसे भी संयुक्त संसदीय समिति के बहाने किसी ठन्डे बस्ते में डाल दिया जायेगा.
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