खतरे में संसद की विश्वसनीयता ?
विधायिका और इससे जुड़ी संस्थाओं की सार्थकता पर अब हर तरफ से सवाल उठने लगे हैं। कारण यह है कि अब संसद में बहस के बजाय हंगामा ही हो रहा होता है। जब सदन चलेगा ही नहीं तो वहां पर कामकाज कैसे होगा? आमजन में यह भावना तेजी से घर करती जा रही है कि अब संसद में किसी विषय पर ढंग से बहस नहीं होती
… ‘दुश्मनी जम कर करो, लेकिन ये गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त बन जाएं तो शर्मिंदा न हों…।’ प्रसिद्ध शायर बशीर बद्र का यह शेर आजकल बार-बार कहने का मन करता है। वजह है, राजनीतिक कटुता का माहौल। संसद के भीतर-बाहर जिस तरह गलत भाषा का खुला प्रयोग होने लगा है, वह दुखद है।
असहमति में तो लोकतंत्र के प्राण बसते हैं, पर वह मर्यादापूर्वक होनी चाहिए। अगर मर्यादापूर्ण असहमति पर पर ध्यान दिया जाए, तो कम से कम संसद में घटिया शब्दावली का प्रयोग जरूर थम जाएगा। संसद को वाद-विवाद और संवाद से सहमति बनानी होगी, न कि असहमति का माहौल बनाने में अपने समय को नष्ट करना होगा। आज देश की आबादी में 65 प्रतिशत हिस्सेदारी 35 वर्ष से कम युवाओं की है। हमें इस आबादी की संरचना को ध्यान में रखते हुए युवाओं के चौतरफा विकास की गति को तेज कर उस पर खरा उतरना होगा। यदि हम ऐसा नहीं कर पाए तो संसद और सांसदों की प्रतिष्ठा तार-तार हो जाएगी।
विधायिका और इससे जुड़ी संस्थाओं की सार्थकता पर अब हर तरफ से सवाल उठने लगे हैं। कारण यह है कि अब संसद में बहस के बजाय हंगामा ही हो रहा होता है। हंगामे से सदन को बार-बार बिना वजह स्थगित करना पड़ता है। जब सदन चलेगा ही नहीं तो वहां पर कामकाज कैसे होगा?
सच बात यह है कि संसद में हंगामा करने वाले सदस्यों को अपने दल के नेताओं से हरी झंडी मिली होती है। उनसे कहा जाता है कि वे सदन में नारेबाजी करते रहें और कामकाज न होने दें। अगर आप कोर्ट की कार्यप्रणाली से वाकिफ होंगे तो आपको पता होगा कि वहां वकील सुबह से शाम तक एक-दूसरे के खिलाफ केस लड़ते हैं। उनके बीच तीखी बहस भी होती है, पर लंच और फिर नाश्ते के समय सब बैठकर गपशप कर रहे होते हैं। उनमें कहीं कोई कटुता नहीं होती। ऐसे वकीलों से भी संसद सदस्य कुछ सीख ले सकते हैं।
अभी कुछ दिन पहले एक मोटिवेशनल स्पीकर और हिंदू धर्म ग्रंथों के विद्वान एक सेमिनार में कह रहे थे कि जीवन में किसी को शत्रु मानना या उससे शत्रुता रखना कतई सही नहीं है। आप अपने को उसी दिन से बेहतर इंसान मान सकते हैं, जिस दिन आपके मन में किसी के लिए कोई कटुता न रहे, पर संसद में सत्तापक्ष- विपक्ष के बीच दुश्मनी वाला भाव दिखता है। अब यह भाव संसद के बाहर भी दिखने लगा है।
कभी-कभी बहुत क्लेश होता है कि अब संसद में यादगार भाषण सुनने को नहीं मिलते। एक दौर था जब संसद में सार्थक चर्चा होती थी और सदस्य सारगर्भित भाषण दिया करते थे। हमारे यहां कई प्रखर सांसद हुए हैं, जिन्होंने अपनी वाकपटुता, तार्किक क्षमता और संसदीय ज्ञान से महत्वपूर्ण योगदान दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी के संसद में दिए भाषणों को कौन भूल सकता है। वह अपनी कविताओं और भाषणों के लिए जाने जाते हैं। डा. राम मनोहर लोहिया भी आलोचनात्मक शैली और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर मुखरता के साथ अपनी बात रखते थे। मधु लिमये तो बार-बार याद आते हैं। वह प्रश्नकाल में तीखे सवाल पूछते थे। ओजस्वी वक्ता तो वह थे ही। इसी क्रम में जार्ज फर्नांडिस भी थे। वह सामाजिक न्याय और गरीबों के अधिकारों के लिए मुखर थे। इसके अलावा कई अन्य सांसद भी ऐसे रहे हैं, जिन्होंने अपनी प्रखरता से भारतीय संसद को समृद्ध किया है।
एक बार मशहूर क्रिकेट कमेंटेटर वेंकट सुंदरम बता रहे थे कि उनके शिक्षाविद् पिता पीएम सुंदरम उन्हें बचपन में कहते थे कि वह अखबारों में संसद की कार्यवाही को ध्यान से पढ़ लिया करें। उन्हें पढ़कर देश-दुनिया की स्थिति को समझने मदद मिलेगी। क्या आज कोई अभिभावक अपने बच्चों को कहता होगा कि वे संसद कार्यवाही से जुड़ी खबरों को पढ़ें या कार्यवाही को टीवी पर देखें? वजह बहुत साफ है कि संसद में बहस का स्तर ही नहीं गिरा है, बल्कि वहां तो संग्राम वाली स्थिति बनी रहती है।
सिर्फ पंगेबाजी और एक-दूसरे पर उलटे-सीधे आरोप लगाने से तो संसद नहीं चल सकती। पिछले हफ्ते संसद परिसर में तब शर्मनाक घटना घटी, जब दो सांसद धक्का-मुक्की में घायल हो गए। किसने किसको धक्का दिया इसकी जांच चल रही है, पर धक्का तो दिया गया, तभी तो एक सांसद का सिर फटा?
संसद में तमाम असहमति के बाद भी देश हित के मामलों पर वाद, विवाद और संवाद होना अनिवार्य है। अगर संसदीय लोकतंत्र में राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर बहस ही नहीं होगी तो फिर क्या होगा। आज देश की आम जनता में यह भावना तेजी से घर करती जा रही है कि संसद में कायदे से संविधान के अनुरूप कुछ होता ही नहीं। वहां पर तो सदस्य मात्र शोर-शराबा करने के लिए जाते हैं। यह समझा जाना चाहिए कि संसद की महत्ता और उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है।
अब हंगामा करने वालों को देश सीधे टीवी पर देखता है। संसद की कार्यवाही का टीवी प्रसारण इस उम्मीद में शुरू किया गया था कि इसस संसद की कार्यवाही का स्तर ऊंचा उठेगा, लेकिन अब तो इसका उलटा हो रहा है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)