जब यह पता चला कि डीपसीक का विकास जेजियांग यूनिवर्सिटी के इंजीनियरिंग के स्नातक ने 60 लाख डॉलर से भी कम की लागत से साल भर में ही कर दिखाया है तो अमेरिकी बाजारों में हड़कंप मच गया। चीनी कंपनी के तकनीकी विकास से ऐसी घबराहट पहली बार फैली। ऐसा नहीं है कि डीपसीक अमेरिका के चैटजीपीटी जैसे जेनरेटिव एआई माडलों से आगे निकला हो।

गणित, कोडिंग और सहज भाषा तर्क में वह अमेरिकी माडलों की बराबरी पर ही है, पर अमेरिका और यूरोप में हड़कंप इसलिए मचा कि चीन के इंजीनियर ने कुछ लोगों और मामूली लागत से साल भर में ऐसा माडल तैयार कर दिखाया, जो ऊंची लागत और वर्षों के शोध के बाद बने माडलों को टक्कर दे रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि डीपसीक ओपन सोर्स माडल है यानी इसका प्रयोग, परिष्कार और वितरण मुफ्त में किया जा सकता है। यह अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली चिपों और कम ऊर्जा की खपत से चल सकता है।

ट्रंप ने इस प्रसंग पर चिंता जताने की जगह इसे अमेरिकी एआई उद्योग के लिए चेतावनी बताया और अमेरिकियों से कहा कि यदि आप इसी गुणवत्ता के माडल कम लागत पर बना सकें तो वह हमारे लिए अच्छा ही होगा। इससे एक तो अमेरिकी एआई माडलों की लागतों पर सवाल उठे, जिससे उनकी फंडिंग का संकट खड़ा हो सकता है। दूसरे यह सवाल उठा कि सस्ते और किफायती चीनी माडल मिलने पर अमेरिका के महंगे और अधिक ऊर्जा की खपत वाले माडल को कोई क्यों लेगा?

इससे एआई उद्योग पर अमेरिका की जगह चीन का वर्चस्व कायम हो सकता है, ठीक वैसे ही जैसे इलेक्ट्रिक वाहनों और सौर सैलों के निर्माण पर हो चुका है। मशीन लर्निंग, रोबोट विज्ञान और ड्रोन निर्माण में भी चीनी कंपनियां इतनी आगे निकल चुकी हैं कि अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन को भी रक्षा सामान के लिए घरेलू कंपनियों को तमाम आर्थिक प्रोत्साहन देने के बावजूद चीन पर निर्भरता समाप्त करने में दिक्कत आ रही है।

अमेरिका और यूरोप में अभी तक चीन की छवि नकल में पारंगत और सस्ता माल बनाने वाले देश की रही है। इसे बदलने और 2030 तक विज्ञान और प्रौद्योगिकी में विश्व का अग्रणी बनने के लिए चीन ने 2006 में शोध और विकास यानी आरएंडडी की एक रणनीति बनाई थी, जिसे उसने अंजाम तक पहुंचाया। चीन अपना 2.5 प्रतिशत से अधिक बजट शोध एवं विकास पर लगाता है और यह भी सुनिश्चित करता है कि आर्थिक विकास में उसका योगदान 60 प्रतिशत हो। इस मामले में अमेरिका विश्व का अग्रणी देश रहा है, लेकिन अब चीन उससे बहुत पीछे नहीं है।

अमेरिका शोध एवं विकास पर अपने जीडीपी का 3.4 प्रतिशत खर्च करता है तो चीन 2.41 प्रतिशत खर्च कर रहा है। भारत इस मामले में फिसड्डी है और जीडीपी का मात्र 0.64 प्रतिशत ही शोध एवं विकास पर खर्च करता है। यानी शोध एवं विकास पर चीन भारत से चौगुना बजट खर्च करता है। चीन का जीडीपी भी भारत से पांच गुना अधिक है, जिसके कारण शोध एवं विकास पर चीन का खर्च भारत से लगभग 20 गुना बैठता है और यह अंतर पिछले 20 साल से चल रहा है।

शोध एवं विकास पर विश्व में सबसे अधिक खर्च करने और आर्थिक विकास में उसका योगदान सुनिश्चित करने के कारण ही अमेरिका पिछले 50 वर्षों से विज्ञान और प्रौद्योगिकी में अग्रणी बना हुआ है। अब चीन उसी राह पर और भी सुनियोजित ढंग से चल रहा है। डीपसीक माडल के विकास से पश्चिमी देशों की नींद उड़ा देने वाले चीनी इंजीनियर वेनफेंग ने हाल के एक इंटरव्यू में कहा था, ‘हम अक्सर सुनते हैं कि चीनी और अमेरिकी एआई के बीच एक या दो साल का फासला है, पर असली फासला नकल और मौलिकता का है। वह नहीं बदला तो चीन हमेशा पिछलग्गू बना रहेगा और चीन हमेशा पिछलग्गू बना नहीं रह सकता।’

वेनफेंग जैसे सैकड़ों अन्वेषक गुणवत्ता और लागत में पश्चिम को चुनौती दे सकने वाली तकनीक का विकास करने में जुटे हैं। स्वच्छ ऊर्जा उपकरण, बिजली की कारें, कंप्यूटर गेम और अब एआई माडलों में भी चीन की कंपनियां इतनी आगे निकल चुकी हैं कि उन्हें रोकने के लिए अमेरिका और यूरोप को अब व्यापार संरक्षण का सहारा लेना पड़ रहा है।

मुक्त व्यापार और वैश्वीकरण दौर से अब संरक्षणवाद और क्षेत्रीय गुटबंदी के दौर में प्रवेश करती दुनिया में विकास करने और वर्चस्व कायम करने के लिए शोध एवं विकास पर बल देने की जरूरत और बढ़ गई है। इसके बिना न अपनी कंपनियों को विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाया जा सकता है और न अपना माल बेचकर व्यापार बढ़ाया जा सकता है। दूसरे देशों में अपना माल और सेवाएं बेचे बिना आर्थिक विकास नहीं हो सकता। इतिहास में कोई ऐसा देश नहीं हुआ जो अपना माल बाहर बेचे बिना संपन्न बना हो।

इसलिए भारत को यदि अपनी प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाना है तो बुनियादी ढांचे के विकास के साथ-साथ शोध एवं विकास के लिए अपने बजट को कई गुना बढ़ाना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि आर्थिक प्रगति में उसका योगदान अधिक से अधिक रहे।

इसके लिए उसे आर्थिक संसाधनों की जरूरत होगी, जिन्हें आयकर जैसे प्रत्यक्ष करों का दायरा बढ़ाए बिना हासिल नहीं किया जा सकता। करीब 25 से 40 करोड़ वाले मध्यवर्ग और लगभग 6.5 करोड़ लघु उद्यम वाले देश में दो-ढाई करोड़ लोगों के आयकर से यह सब नहीं हो सकता। कर्ज उठाने से महंगाई बढ़ने का खतरा पैदा होता है और जीएसटी से मांग घटती है और अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ती है।

(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)