आखिर कब मिलेगा न्याय, अदालतों में पड़े हैं 5 करोड़ केस ?

तारीख पर तारीख: आखिर कब मिलेगा न्याय, अदालतों में पड़े हैं 5 करोड़ केस

कम जज और बढ़ते मुकदमों से भारत की अदालतें दबी हैं. 5 करोड़ मामले में अदालतों में लंबित हैं. मध्यस्थता अधिनियम 2023 इस बोझ को कम करने का लक्ष्य रखता है.

भारत का ज्यूडिशियल सिस्टम इस समय भारी संकट से गुजर रहा है. अदालतों में लंबित मामलों की संख्या चिंताजनक स्तर पर पहुंच गई है. सर्वोच्च न्यायालय में 82,000 से ज्यादा मामले, उच्च न्यायालयों में 62 लाख और निचली अदालतों में करीब 5 करोड़ मामले अभी तक सुलझ नहीं पाए हैं.

ये आंकड़े बताते हैं कि न्याय मिलने में देरी अब आम बात हो गई है. लोग सालों-साल अदालतों के चक्कर काटते हैं, लेकिन फैसला नहीं मिलता. इस समस्या से निपटने के लिए मध्यस्थता (Mediation) एक नया और आसान रास्ता बनकर सामने आ रही है. यह तरीका न सिर्फ अदालतों का बोझ कम कर सकता है, बल्कि लोगों को जल्दी और सस्ता न्याय भी दे सकता है

मामलों के लंबित होने के कारण क्या हैं?

भारत में इतने सारे मामले क्यों लटके हुए हैं? इसके कई कारण हैं, जो इस समस्या को और जटिल बनाते हैं. 

1. कम जजों की संख्या: भारत में हर दस लाख लोगों के लिए सिर्फ 21 जज हैं. यह दुनिया में सबसे कम अनुपात में से एक है. इतने कम जजों के पास इतने सारे मामलों को निपटाने की जिम्मेदारी है कि देरी होना स्वाभाविक है.

2.मामलों की बढ़ती संख्या: आज लोग अपने हक के लिए ज्यादा जागरूक हैं. इस वजह से छोटे-मोटे विवादों के लिए भी लोग कोर्ट पहुंच जाते हैं. जनहित याचिकाएं (PIL) भी बढ़ गई हैं, जिससे काम का बोझ और बढ़ा है. कई बार ऐसे मामले भी आते हैं, जो कोर्ट में लाने लायक नहीं होते.

3. सरकार की भूमिका: लंबित मामलों में से आधे मामले ऐसे हैं, जिनमें सरकार खुद एक पक्ष है. सरकारी विभागों के बीच विवाद या उनके खिलाफ मुकदमे बोझ को और बढ़ाते हैं.

4. कानूनी प्रक्रिया की जटिलता: भारत का कानून कई बार मामलों को लंबा खींच देता है. बार-बार की अपील और बीच-बीच में दायर होने वाली अर्जियां प्रक्रिया को धीमा कर देती हैं. मिसाल के तौर पर, बिहार में शराबबंदी कानून के बाद जमानत की अर्जियों ने हाई कोर्ट पर दबाव बढ़ा दिया है.

5. बुनियादी सुविधाओं की कमी: कई कोर्ट में जगह की कमी है. डिजिटल सिस्टम भी पूरी तरह तैयार नहीं है. बजट कम होने की वजह से नए कोर्ट या जजों की भर्ती नहीं हो पाती.

6. अन्य छोटी-मोटी दिक्कतें: सुनवाई टलना, गवाहों का न मिलना और सबूत जुटाने में देरी जैसे कारण भी मामले लंबे खींचते हैं.

7. मध्यस्थता का कम इस्तेमाल: मध्यस्थता, सुलह और बातचीत जैसे आसान तरीके मौजूद हैं, लेकिन लोग इन्हें अपनाने से हिचकते हैं. ज्यादातर लोग सीधे कोर्ट की ओर भागते हैं.

मध्यस्थता कैसे मदद कर सकती है?
मध्यस्थता एक ऐसा तरीका है, जिसमें कोई तटस्थ व्यक्ति (मध्यस्थ) दोनों पक्षों को बैठाकर बातचीत करवाता है. इसका मकसद यह है कि दोनों पक्ष मिलकर कोई ऐसा हल निकालें, जो दोनों को मंजूर हो. यह तरीका आसान, सस्ता और गोपनीय है. इसमें कोर्ट की तरह सख्त नियम नहीं होते. तो आइए देखें कि यह लंबित मामलों को कम करने में कैसे मददगार है.

  • कम समय में हल: मध्यस्थता में महीनों या सालों तक इंतजार नहीं करना पड़ता. मध्यस्थता अधिनियम, 2023 के तहत 120 दिनों में मामला सुलझाना जरूरी है. जरूरत पड़ने पर 60 दिन और मिल सकते हैं.
  • अदालतों का बोझ कम: मध्यस्थता से संपत्ति, परिवार, व्यापार या उपभोक्ता से जुड़े विवाद सुलझ सकते हैं. इससे कोर्ट को बड़े और जटिल मामलों पर ध्यान देने का मौका मिलता है
  • कानूनी ताकत: मध्यस्थता अधिनियम, 2023 के तहत मध्यस्थता से हुए समझौते को कोर्ट के फैसले जैसी मान्यता मिलती है. यानी इसे मानना जरूरी होता है.
  • कुछ मामलों में छूट: हालांकि, आपराधिक मामले, टैक्स विवाद या तीसरे पक्ष के अधिकारों से जुड़े मामले मध्यस्थता से बाहर हैं.
  • रिश्ते बचाने में मदद: खासकर पारिवारिक मामलों में, जैसे तलाक या संपत्ति विवाद में, मध्यस्थता से न सिर्फ हल निकलता है, बल्कि रिश्ते भी टूटने से बचते हैं.

भारत में मध्यस्थता को मजबूत करने के लिए कई कानून बनाए गए हैं

  • मध्यस्थता अधिनियम, 2023: इसमें सिविल और व्यापारिक मामलों में कोर्ट जाने से पहले मध्यस्थता जरूरी की गई है.
  • वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015: व्यापार से जुड़े विवादों में मध्यस्थता को प्राथमिकता दी गई है
  •  सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908: इसमें भी मध्यस्थता और सुलह जैसे तरीकों को जगह दी गई है.

नीति आयोग ने भी सुझाव दिया है कि सरकारी मामलों में मध्यस्थता को बढ़ावा देकर कोर्ट का बोझ कम किया जाए.

चुनौतियां क्या हैं?
ज्यादातर लोगों को मध्यस्थता के बारे में पता ही नहीं है. वकील और पक्षकार पुराने तरीके से कोर्ट जाना पसंद करते हैं. प्रभावी सिस्टम का अभाव: मध्यस्थता अधिनियम, 2023 में भारतीय मध्यस्थता परिषद बनाने की बात है, लेकिन अभी तक यह शुरू नहीं हुई है.  सरकारी एजेंसियां जल्दी हल की बजाय लंबी लड़ाई लड़ना पसंद करती हैं स्वैच्छिक होना: मध्यस्थता में कोई जबरदस्ती नहीं है. अगर एक पक्ष पीछे हट जाए, तो बात नहीं बनती. हर कोर्ट में मध्यस्थता केंद्र नहीं हैं, जिससे लोगों तक इसकी पहुंच कम है.

इस समस्या से निपटने के लिए कुछ जरूरी कदम उठाने होंगे

– दूसरे देशों से सीख: ब्रिटेन और इटली जैसे देशों में मध्यस्थता को अनिवार्य किया गया है. भारत भी ऐसा कर सकता है.
– मजबूत सिस्टम: भारतीय मध्यस्थता परिषद को जल्द शुरू करना होगा, जो मध्यस्थों को ट्रेनिंग दे और नियम तय करे.
– ऑनलाइन मध्यस्थता: डिजिटल तरीके से मध्यस्थता को बढ़ावा देना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट का SUPACE पोर्टल इसमें मदद कर सकता है.
-जजों की संख्या बढ़ाना: विधि आयोग की सिफारिश के मुताबिक, जजों का अनुपात 21 से 50 प्रति मिलियन करना चाहिए.
– जागरूकता और ट्रेनिंग: लोगों और वकीलों को मध्यस्थता के फायदे बताने के लिए अभियान चलाने चाहिए. मध्यस्थों को बेहतर ट्रेनिंग भी जरूरी है.

भारत की न्यायिक प्रणाली पर लंबित मामलों का बोझ कम करना आसान नहीं है, लेकिन मध्यस्थता एक उम्मीद की किरण है. यह न सिर्फ कोर्ट को राहत दे सकती है, बल्कि लोगों को सस्ता, तेज और सौहार्दपूर्ण न्याय भी दिला सकती है. इसके लिए सरकार, कोर्ट और समाज को मिलकर काम करना होगा. अगर सही दिशा में कदम उठाए जाएं, तो “न्याय में देरी, न्याय से वंचित” वाली कहावत को खत्म किया जा सकता है.

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