…..यदि एन. बीरेन सिंह जातीय हिंसा की आग में जलते मणिपुर को संभालने में नाकामी के चलते मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने को मजबूर नहीं हुए होते तो दिल्ली में रेखा गुप्ता सरकार की ताजपोशी के साथ ही भाजपा और उसकी अगुआई वाला राजग देश की सत्ता-राजनीति में वर्चस्व का अपना ही कीर्तिमान और बेहतर कर चुका होता।

तब देश के 19 राज्यों और दो केंद्रशासित प्रदेशों में राजग का शासन होता। इससे पहले 2018 में राजग का 20 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में शासन था। एन. बीरेन सिंह के इस्तीफे के बावजूद राजग शासित राज्यों की संख्या 20 है। 15 राज्यों या केंद्रशासित प्रदेशों में तो भाजपा के ही मुख्यमंत्री हैं, शेष में राजग की सरकार है।

वैसे भाजपा विधायक दल में नए नेता के नाम पर सहमति न बन पाने के चलते मणिपुर में विधानसभा निलंबित कर राष्ट्रपति शासन लगाया गया है यानी नई सरकार बनने का विकल्प खुला हुआ है।

बेशक 27 साल बाद देश की राजधानी में सत्ता की वापसी का जश्न भाजपा के लिए नए सत्ता-कीर्तिमान के साथ और भी खास बन जाता, लेकिन 18 राज्यों और दो केंद्रशासित प्रदेशों में सरकार होना भी वर्तमान राजनीति में कम बड़ी उपलब्धि नहीं। इसका अर्थ यह भी है कि पिछले साल लोकसभा चुनाव में लगे झटके से भाजपा उबर चुकी है।

राज्यों की राजनीति की दृष्टि से 2019 के बाद का समय भाजपा और राजग के लिए उतार-चढ़ाव वाला रहा। 2019 के चुनाव के बाद महाराष्ट्र में पुराने मित्र शिवसेना से मुख्यमंत्री पद को लेकर हुई तकरार के चलते सत्ता हाथ से निकल गई तो बाद में बिहार में नीतीश कुमार भी पाला बदल कर राजद-कांग्रेस के महागठबंधन में चले गए।

2023 के अंत में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जीत हासिल कर भाजपा ने सबको चौंका दिया। 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने महाराष्ट्र और बिहार, दोनों में अपने समीकरण दुरुस्त कर लिए। महाराष्ट्र में शिवसेना में दलबदल के जरिये सत्ता में वापसी कर ली तो बिहार में भी नीतीश कुमार अचानक पाला बदल कर फिर राजग में आ गए।

इसके बावजूद लोकसभा चुनाव में झटके से भाजपा नहीं बच सकी। बिहार में तो ज्यादा नुकसान नहीं हुआ, पर महाराष्ट्र के साथ ही उत्तर प्रदेश में जबरदस्त झटका लगा। अगर प्रधानमंत्री मोदी पुराने नाराज दोस्तों नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू को चुनाव पूर्व ही राजग में न ले आए होते तो सत्ता की हैटट्रिक मुश्किल हो जाती, क्योंकि अपने दम पर तो भाजपा बहुमत का आंकड़ा पाने में चूक ही गई थी।

भाजपा के ग्राफ में सबसे बड़ा उछाल लोकसभा चुनाव के झटके के बाद ही आया। हरियाणा में लगातार दूसरी बार सरकार बनाने के बावजूद लोकसभा चुनाव में भाजपा 10 में से पांच सीटें हार गई थी, मगर पिछले विधानसभा चुनाव में उसने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए सत्ता की हैटट्रिक लगाई।

महाराष्ट्र में तो कमाल ही हो गया। लोकसभा चुनाव में आइएनडीआइए के स्थानीय स्वरूप एमवीए की भारी बढ़त के बावजूद विधानसभा चुनाव में भाजपा और उसके नेतृत्व में महायुति ने एकतरफा जीत हासिल की। इसके बाद दिल्ली में खुद को अजेय समझने वाले अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को सत्ता से बेदखल कर भाजपा ने साफ राजनीतिक संदेश दे दिया है कि उसे रोक पाना, खासकर विभाजित विपक्ष के लिए तो असंभव सा है।

पिछले दो विधानसभा चुनावों के मद्देनजर तो दिल्ली में मुकाबला ही नहीं माना जा रहा था, लेकिन भाजपा ने ऐसी चुनावी बिसात बिछाई कि आप से 40 सीटें छीन कर बहुमत से भी 12 ज्यादा 48 तक जा पहुंची। बेशक 21वीं शताब्दी में पहली बार दिल्ली में भाजपा सरकार बनी है, लेकिन इस जीत का एक और बड़ा राजनीतिक फलितार्थ यह है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उसे अकेले दम पर बहुमत से वंचित कर देने वाला विपक्षी गठबंधन बिखराव के कगार पर पहुंच गया है।

लोकसभा चुनाव साथ मिलकर लड़ी कांग्रेस ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में अकेले ताल ठोकी तो विपक्षी गठबंधन के तृणमूल, सपा, शिवसेना-यूबीटी और शरद पवार की राकांपा जैसे घटक दलों ने अरविंद केजरीवाल की आप का समर्थन किया। ऐसे में विपक्षी गठबंधन में सब कुछ सामान्य नहीं रह गया है।

इसी साल बिहार में विधानसभा चुनाव हैं। वहां राजद और कांग्रेस के बीच सीट बंटवारे को लेकर तनातनी के संकेत हैं। सबसे महत्वपूर्ण होंगे अगले साल होने वाले बंगाल विधानसभा चुनाव। आइएनडीआइए में होते हुए भी तृणमूल ने बंगाल में अकेले लोकसभा चुनाव लड़ा तो अब विधानसभा चुनाव भी अकेले ही लड़ने का एलान कर दिया है।

दिल्ली में कांग्रेस भले ही लगातार तीसरी बार खाता खोलने में नाकाम रही, पर उसने आप की सत्ता से विदाई में निर्णायक भूमिका निभाई। इससे कांग्रेस ही नहीं, भाजपा भी उत्साहित है। अगर बंगाल विधानसभा चुनाव में तृणमूल अकेले लड़ने के फैसले पर अडिग रहती है तो कांग्रेस-वाम मोर्चा गठबंधन की चुनावी रण में मौजूदगी भाजपा के लिए मददगार हो सकती है।

बार-बार हुंकार भरने के बावजूद भाजपा बंगाल में मुख्य विपक्षी दल बनने तक ही पहुंच पाई है। सत्ता अभी भी बहुत दूर नजर आती है, लेकिन दिल्ली के चुनाव परिणाम बताते हैं कि समीकरण बदलते देर नहीं लगती। लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा सिर्फ मोदी की लोकप्रियता पर ही चुनाव नहीं लड़ती आई है।

उसने स्थानीय नेतृत्व को भी चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका देते हुए स्थानीय मुद्दों को धार देने का जो प्रयोग किया है, वह महाराष्ट्र से दिल्ली तक वांछित परिणाम देने वाला साबित हुआ है। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच असहजता की चर्चाओं पर भी विराम लग गया है।

दोनों चुनाव प्रबंधन में बेहतर समन्वय से काम करते हुए लक्ष्य प्राप्ति में भी सफल दिख रहे हैं। लोकसभा चुनाव में जोर-शोर से उठाए गए संविधान और आरक्षण को खतरे के मुद्दों पर कांग्रेस से इतर विपक्ष की शिथिलता तथा विपक्षी मोर्चे में बढ़ता टकराव भी भाजपा के लिए अनुकूल साबित हो रहा है। भाजपा ने 2018 के अपने सत्ता-वर्चस्व के साथ-साथ आत्मविश्वास भी वापस पा लिया है। यह विपक्ष के लिए शुभ संकेत नहीं है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)