संवैधानिक संस्था की अनदेखी, कैग रिपोर्ट से ‘आप’ पर उठने लगे सवाल
संवैधानिक नैतिकता और निष्ठा उन्हें समयबद्धता के लिए प्रेरित करती है। ऐसे लोग समय के प्रति जागरूक होते हैं। सब जानते हैं कि महत्वपूर्ण काम समय पर नहीं होते तब व्यापक राष्ट्रीय क्षति होती है। आखिरकार दिल्ली के उपराज्यपाल को रिपोर्ट मिलने और मुख्यमंत्री तक रिपोर्ट पहुंचने तक अधिकतम कितना समय लगना चाहिए? इसमें महीनों लग गए। अनावश्यक लाभ के लिए जानबूझकर की गई देरी क्षमा योग्य नहीं होती।
….दिल्ली में आम आदमी पार्टी यानी आप सरकार की विदाई के बाद कैग की रिपोर्ट दिल्ली विधानसभा के पटल पर रखने के बाद कई आशंकाएं सही साबित हुई हैं। कैग की रिपोर्ट पूर्ववर्ती सरकार की शराब नीति से लेकर मोहल्ला क्लीनिकों और शासन के कई स्तरों पर चलने वाली योजनाओं पर सवाल उठाती हैं।
वस्तुत: आप सरकार ने कैग की रिपोर्ट सदन में रखने के संवैधानिक दायित्व की उपेक्षा की। संभव है कि रिपोर्ट को सदन में न रखने की योजना सोच-समझ कर बनाई गई हो। अतीत में भी कैग की रिपोर्ट खलबली मचाती रही हैं। कैग के कामकाज का यशस्वी इतिहास है। बोफोर्स तोप घोटाला कैग रिपोर्ट के कारण ही राष्ट्रीय मुद्दा बना।
2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की पोल कैग ने ही खोली। कोयला घोटाला कैग की रिपोर्ट से गंभीर मुद्दा बना। 1962 की कैग रिपोर्ट में जीप खरीदने को लेकर तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन भी फंस गए थे। राष्ट्रमंडल खेल आयोजन पर कैग रिपोर्ट से सत्तारूढ़ दल परेशानी में था। यह किसी से छिपा नहीं कि सार्वजनिक धन के अपव्यय या गलत तरीके से इस्तेमाल करने से राष्ट्र को क्षति होती है। भारी भ्रष्टाचार होता है। शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार सामने आने से अंतरराष्ट्रीय बदनामी भी होती है।
भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग एक संवैधानिक संस्था है। अनुच्छेद 148 के अनुसार कैग और संसद भारत के सार्वजनिक धन के उपयोग के पहरेदार हैं। कैग देखता है कि देश की संचित निधि का व्यय संविधान एवं कानून के अधीन ही हुआ है। कैग की रिपोर्ट का विवेचन लोक लेखा समिति द्वारा होता है।
समिति में सत्तापक्ष एवं विपक्ष, दोनों के सांसद होते हैं। कैग की रिपोर्ट को नजरअंदाज करना आसान नहीं। यह शक्तिसंपन्न संवैधानिक संस्था है। डा. आंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि वह नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक को भारतीय संविधान में शायद सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी के रूप में देखते हैं।
हालांकि इंग्लैंड और अमेरिका में उनके समकक्ष अधिकारी के जिम्मे खजांची और लेखाकार के कार्य होते हैं, लेकिन कैग को लेखा परीक्षण के सबसे ज्यादा अधिकार हैं। संसदीय परंपरा में कैग को लोक लेखा समिति का मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक बताया गया है। भारत में लोक लेखा परीक्षण विभाग की स्थापना 1853 में ही हो गई थी।
स्वतंत्र संस्था के रूप में इसे 1919 के अधिनियम से आकार मिला। इसकी नियुक्ति भारत सचिव द्वारा होती थी। भारत शासन अधिनियम 1935 से उसके अधिकारों को और ज्यादा शक्ति मिली। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 ने कैग की शक्ति का संवर्धन किया। देसी रियासतों के भारतीय संघ में विलय के बाद कैग का उत्तरदायित्व पूरे देश में व्यापक हो गया।
1950 में संविधान में महालेखा परीक्षक का नाम नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक कहा गया। इंग्लैंड में यह एक महत्वपूर्ण संस्था है। भारत का कैग महालेखा निरीक्षक है, लेकिन नियंत्रक नहीं है। ब्रिटेन के महालेखा परीक्षक के पास नियंत्रक महालेखा कार्य की शक्तियां भी हैं। भारत में कैग खर्च हुए लोक धन की गहन जांच करता है।
वहीं ब्रिटेन का कैग धन के खर्च होने के पहले ही लोक धन का नियंत्रण करता है। ब्रिटेन में कैग की अनुमति के अभाव में राजकोष से कोई पैसा निकाला नहीं जा सकता। भारत का कैग संसद का सदस्य नहीं होता। ब्रिटेन में कैग हाउस आफ कामंस (निचले सदन) का सदस्य होता है। संविधान निर्माताओं ने गहन अध्ययन के बाद ही यह पद गढ़कर इसकी निष्पक्षता सुनिश्चित की। सीएजी को उसी तरह हटाया जा सकता है जैसे सुप्रीम कोर्ट के जज को।
संविधान में अनेक संस्थाएं हैं। सबके अपने अधिकार और कर्तव्य हैं, लेकिन ऐसे कार्यों के संपादन में समय प्रतिबद्धता का उल्लेख नहीं है। कैग का काम बड़ा है। निर्धारित समय के भीतर कठिन परिश्रम द्वारा ही कार्य संभव है। दिल्ली सरकार के मामले में कैग की रिपोर्ट सदन में नहीं रखी गई। सरकार का यह कृत्य संविधानसम्मत नहीं रहा।
कैग वस्तुत: तमाम अंतर्विरोधों से निपटने और लोक धन के समुचित उपयोग को सुनिश्चित करने की जांच करता है। रिपोर्ट बनाता है। समितियों में रिपोर्ट की गहन विवेचना होती है। संवैधानिक संस्थाओं के पदधारकों के लिए कार्य का समय निर्धारित करने में कठिनाइयां आती हैं। उन्हें समयबद्ध करने के लिए कोई संवैधानिक उपचार नहीं है।
संवैधानिक नैतिकता और निष्ठा उन्हें समयबद्धता के लिए प्रेरित करती है। ऐसे लोग समय के प्रति जागरूक होते हैं। सब जानते हैं कि महत्वपूर्ण काम समय पर नहीं होते तब व्यापक राष्ट्रीय क्षति होती है। आखिरकार दिल्ली के उपराज्यपाल को रिपोर्ट मिलने और मुख्यमंत्री तक रिपोर्ट पहुंचने तक अधिकतम कितना समय लगना चाहिए? इसमें महीनों लग गए। अनावश्यक लाभ के लिए जानबूझकर की गई देरी क्षमा योग्य नहीं होती।
लोक लेखा समिति सहित सभी संसदीय समितियां महत्वपूर्ण काम करती हैं। लोक लेखा समिति का काम बड़ा है। समिति कैग रिपोर्ट को संसद में पेश होने के पहले भी देख सकती है। लोकसभा के अध्यक्ष रहे जीवी मावलंकर ने कहा था, ‘समिति को उसी समय उनकी परीक्षा करनी चाहिए।
इससे उसे काम करने का अधिक समय मिलेगा, लेकिन समिति इस संबंध में सभा को तब तक कोई प्रतिवेदन नहीं दे सकती जब तक कि संगत लेखाओं, लेखा परीक्षा प्रतिवेदनों को औपचारिक रूप से सभा के सामने नहीं रख दिया जाता।’
हालांकि समितियों की बैठकें पर्याप्त दिनों तक नहीं चलतीं। विधानमंडलों की हालत और खराब है। कहीं-कहीं 8-10 साल पुराने मामले समिति में लंबित हैं। कम से कम संवैधानिक संस्थाओं की पत्रावलियां समयबद्ध गतिशील होनी चाहिए। कई मामलों में दोषी पाए गए लोग सेवानिवृत्त हो जाते हैं, पर कार्यवाही नहीं होती।
आश्चर्य है कि वरिष्ठ पदधारक भी समय की महत्ता पर प्रायः ध्यान नहीं देते। संवैधानिक संस्थाओं को स्वयं ही समय अनुशासन का ध्यान रखना चाहिए। इस विषय पर संसद या संसद की किसी समिति को गहनता से विचार करना होगा। विलंब के कारण भी सुस्पष्ट तरीके से प्रस्तुत करने चाहिए।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)