ट्रंप और जेलेन्स्की के बीच का विवाद दुनिया के लिए नहीं ठीक ?
टी-शर्ट, हथियार और स्टुपिड प्रेसिडेंट तक
ये एक सेंसेटिव मुद्दा है. युद्ध का मसला कोई हॉकी या फुटबॉल का खेल नहीं है. उसको डिस्कस करेंगे तो कई सारे बैक चैनल भी होते हैं, बातचीत होती है, नेगोशिएशन्स होते हैं. डिप्लोमैसी में मान-मनव्वल होता है. जेलेन्स्की और ट्रंप ने पूरी दुनिया के सामने झगड़ा करके बस अपनी राजनीति साधने की कोशिश की है. तो जो 28 फरवरी को हुआ, वह होना ही था और आगे भी होगा. परवेज़ मुशर्रफ़ जब भारत आए थे तो मीडिया के सामने उन्होंने इस तरह के वक्तव्य दे दिए थे. कहीं ना कहीं यहां से वह अपने देश के लिए कुछ माहौल लेकर गए थे. यह दिखा कर कि देखो भारत में जाकर भारत के खिलाफ बोल कर मैं आ गया, या मैं अपने देश का सबसे बड़ा नेता हूं. बाद में मुशर्रफ का क्या हश्र हुआ, पाकिस्तान का अभी क्या हाल है, वो सबने देखा, तो इसलिए मीडिया के सामने इस तरह की चीज करने से बचना चाहिए.
अमेरिका ने भी यही गलती की. उन्होंने कल पूरी दुनिया भर की मीडिया के सामने डिबेट और डिस्कशन किया. पहले बैक चैनल का इस्तेमाल होना चाहिए था जो अमेरिका कर भी रहा था. क्योंकि पिछले कुछ दिनों में ट्रंप ने पुतिन से एक घंटा फोन पर बातचीत की. हाई लेवल ऑफिशल्स जो है. उसके बाद रियाद में मिलते हैं. और 27 तारीख को इस्तांबुल में मिलते हैं. वहां कुछ-कुछ चर्चा हुई होगी. उस चर्चा के बाद जेलेंस्की को बुलाया गया, तो उनका कुछ और मान-मनव्वल करना था और उनको समझना भी था. पहले बंद कमरे में समझाया जाता, बातचीत की जाती और अगर बातचीत सफल होती तभी कदम उठाना चाहिए था और मीडिया के सामने आना चाहिए था.
हालांकि, सारा डिस्कशन जो हुआ उससे यही नजर आता है कि अमेरिका ने पहले से ही सब कुछ तय कर रखा था. इसीलिए बात जेलेन्स्की के सूट से होती हुई, हथियारों और औकात पर आयी और फिर स्टुपिड प्रेसिडेंट तक पहुंच गयी. जेलेंस्की तो अपरिपक्व हैं ही लेकिन ट्रंप भी डेसपरेट है. और वह चाहते हैं कि पूरी दुनिया के सामने वह एक ऐसा पैमाना रख दें कि लोगों को लगे कि हां, यह कुछ परिवर्तन विश्व की राजनीति में हो गया है. ट्रंप एक निर्णयात्मक नेता हैं और विश्व में वही शांति ला सकते हैं. लेकिन जल्दबाजी में उन्होंने कल गड़बड़ की.
ऐसा नजर आता है कि जेलेन्स्की भी अपने आप को नेता साबित करना चाहते थे. अपने देश में सुप्रीमो बनके रहना चाहते थे. ट्रंप चाहते थे कि दुनिया के सबसे बड़े नेता बन जाए, लेकिन ट्रंप को या अमेरिका को कुछ हाथ लगा नहीं. मेरे हिसाब से अमेरिका ने कल मुंह की ही खाई है. क्योंकि जेलेन्स्की यह दिखा रहे हैं कि वह यूक्रेन सबसे बड़े नेता हैं. मगर मुझे लगता है कि अब वो समय आ गया है कि उनको विश्व के नेताओं की सुननी चाहिए थी, लेकिन किस तरीके से सुनेंगे उसका रास्ता थोड़ा सा खोजा जा सकता है. इसमें कल गड़बड़ी हुई है. जेलेन्स्की को तुरंत ही ब्रिटेन और फ्रांस का समर्थन मिला है, और अब अमेरिका बनाम नाटो और यूरोपीय यूनियन में ठन जाने के आसार हैं. यह वैश्विक राजनीति के लिए थोड़ा फायदेमंद भी है, लेकिन वह विषय फिलहाल अलग है.
युद्ध की विनाशलीला और यूक्रेन की दुर्दशा
यह बहुत ही संवेदनशील मामला है, क्योंकि लगभग तीन साल में यूक्रेन बर्बाद हो गया है. डायरेक्ट फाइट से पहले भी जेलेन्स्की ने बोला कि 2014 में जब क्रीमिया पर हमला हुआ, तब भी कुछ इलाकों पर कब्जा कर लिया गया था. जब से सोवियत संघ का विघटन हुआ, उसके बाद करीबन दर्जन भर नए राष्ट्र निकले थोड़ा-बहुत बॉर्डर का झगड़ो हुआ था. क्रीमिया को लेकर तब से रूस यह बोलता था कि वह उनका इलाका है और वहां रूसी रहते हैं. रूस ने उस पर अपना कब्जा बना लिया. जेलेन्स्की यह चाहते हैं कि अमेरिका के डेस्परेशन के माध्यम से वह अपना सारा राजनीतिक हित साध लें. जितनी भी जमीन यूक्रेन की बेवकूफी की वजह से रूस ने कब्जा की है या तहस-नहस की है, वह सब वापस ले लें. मुझे लगता है वैसा होगा नहीं, क्योंकि 3 साल में अगर बेड़ागर्क हुआ है तो यूक्रेन का ही हुआ है. वहां का इंफ्रास्ट्रक्चर लगभग नष्ट हो चुका है. बच्चों की पढ़ाइयां छूट चुकी है. लोग परेशान हैं -बीमारियों और आपदाओं से. नौकरी पेशा लोग मुद्रास्फीति से परेशान हैं, बहुत सारी चीजें हैं जिनको एड्रेस भी नहीं कर रहे हैं और सोच भी नहीं रहे हैं.
जेलेन्स्की की राजनीति और आगे की रणनीति
अब जेलेन्स्की सिर्फ यही चाहते हैं कि यूक्रेन को नाटो-सदस्य का दर्जा मिल जाए. अगर वेस्टर्न कंट्रीज यूक्रेन को नाटो की सदस्यता देनी ही होती, तो उनको मिल ही जाती. उनको पैसा दिया जा रहा है. अमेरिका ने भी अकूत पैसा दिया है, जो 28 फरवरी की बहस में भी निकाल कर सामने आया. इक्विपमेंट दिए हैं लेकिन अभी तक भी जेलेंस्की रूस को कुछ हद्द तक ही रोक पाए हैं. जैसा उस बातचीत में ट्रंप ने कहा भी कि अगर वे यूक्रेन की मदद नहीं करते तो 3 दिन में यूक्रेन खत्म हो चुका होता. इतनी बर्बादी होने के बाद जेलेन्स्की को थोड़ी परिपक्वता दिखानी चाहिए थी. राजनय में भी और वॉर स्ट्रेटजी में भी ऐसा होता है कि अगर आपको लंबी छलांग लेनी है तो कई बार आपके पीछे हटना पड़ता है. अगर पीछे हटे और लंबी छलांग लेते हैं तो यूक्रेन के लिए भी जो पिछले 3 साल में हुआ, उसको दोबारा से सोचें और उसके हिसाब से निर्णय लें. जेलेन्स्की अपने देश की जनता की भलाई के लिए जाएं, फिलहाल तो उनका सबक यही है.
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