मनमानी का लोकतंत्र,हर कोई परम स्वतंत्र !
मनमानी का लोकतंत्र,हर कोई परम स्वतंत्र
भारत में लोकतंत्र अब मनमानी का पर्याय बन चुका है। यदि सत्ता प्रतिष्ठान आपके हाथों में है तो आप जो जी में आये कर सकते हैं । न ‘ लोक ‘ आपका हाथ पकड़ सकता है और न ‘ तंत्र ‘ । यानी लोकतंत्र में परम स्वतंत्र होने की आजादी इस देश की सियासत को वर्ष 2104 के बाद पूरी तरह से मिल चुकी है। 2014 से पहले ये आजादी आंशिक रूप से कांग्रेस के पास थी । जो सत्ता प्रतिष्ठान से बाहर हैं वे ही अब परतंत्र हैं ,क्योंकि उनका लोक ,उनका तंत्र अब बीमार हो चुका है।
* अपनी बात के समर्थन में मेरे पास एक नहीं अनेक तथ्य हैं ,तर्क हैं,दुर्भाग्य ये है कि आज के लोकतांत्र में न तथ्य काम आ रहे हैं और न तर्क। तर्कों का मुकाबला कुतर्कों से हो रहा है और तथ्यों का समाना झूठ से। देश में पहली बार हुआ है कि भाजपा शासित राज्यों में सत्ता प्रतिष्ठान ने होली के मौके पर इबादतगाहों को कपडे या तिरपाल से ढंक दिया है। इबादतगाहें ढंकने की शुरुवात एक परम सभ्य प्रदेश से हुई जिसके मुखिया एक सन्यासी हैं ,लेकिन सत्ताधीश हैं। उन्होंने संविधान की परवाह किये बिना इबादतगाहों को ढंकने का फरमान जारी कर दिया और मशीनरी ने आनन-फानन में मस्जिदों को ढंक दिया। ये कार्रवाई संविधान का मखौल है ,लेकिन योगी बाबा को न राष्ट्रपति ने रोका और न प्रधानमंत्री ने। वे रोकते भी कैसे ? दोनों खुद योगी कि अनुयायी हैं। योगी से ही ‘ बंटोगे तो कटोगे ‘ का नारा उधार लेकर उसकी पैरोडी बनाते हैं। कहते हैं ‘ एक रहोगे तो सेफ ‘ रहोगे।
* भाजपा की सरकारें एक दूसरे से प्रेरणा लेती रहतीं है। योगी ने इबादतगाहें ढंकवाई तो मध्यप्रदेश की सरकार कहाँ पीछे रहने वाली थी । मध्यप्रदेश के पढ़े-लिखे मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव ने भी योगी की नकल करते हुए अपने यहां इबादतगाहों को ढंकने का फतवा जारी कर दिया। परम स्वतंत्र ,न सर पर कोई ‘इसी को कहते हैं। अब चूंकि सत्तारूढ़ दल में कोई अल्पसंख्यक विधायक है नहीं ,और होता भी तो वो इस कार्रवाई का विरोध नहीं कर पाता और विपक्ष के विरूद्ध को विरोध माना नहीं जाता। विपक्ष की परवाह कौन करता है ?
* दुनिया में ये नए तरह का बहुसंख्यक आतंकवाद है। लोग रंगों से खुश होने के बजाय भयभीत हैं। अल्पसंख्यकों को को भगवा रंग आतंकित कर रहा है तो बहुसंख्यकों को हरे रंग से चिढ हो रही है। अल्पयंख्यक अब बहुसंख्यकों को आतंकवादी समझ रहे हैं और बहुसंख्यक ,अल्पसंख्यंकों को आतंकवादी मान बैठे हैं । मान क्या बैठे हैं उनसे आतंकियों जैसा बर्ताव भी करने लगे हैं। नफरत केवल रंगों से ही नहीं है । नफरत भाषा तक जा पहुंची है । तमिलनाडु सरकार ने तो भारतीय रूपये के प्रतीक चिन्ह को ही बदल डाला है। नामुराद तमिलनाडु सरकार नहीं समझना चाहती कि भारतीय रूपये पर तमिल पहले से दर्ज भाषा है।
* आपको बता दें कि भारतीय नोट पर 17 भाषाएं मुद्रित होती हैं. इंग्लिश और हिंदी सामने की तरफ होती हैं तो नोट के पीछे की तरफ 15 भाषाएं दर्ज होती हैं। दुर्भाग्य ये है की भारतीय संविधान में किसी भी भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा नहीं मिला और देश में 22 भाषाएं बोली जाती हैं. ऐसे में इन सभी भाषाओं को नोट पर प्राथमिकता दी गई है। एक देश ,एक चुनाव का नारा देने वाली सरकार भी भारत कि लिए एक भाषा पर अम्ल नहीं कर पायी। जो भाषाएं नोट पर छपी होती हैं उनमें हिंदी और अंग्रेजी के अलावा असमी, बंगाली, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृति, तमिल, तेलगु और उर्दू शामिल हैं। इसके साथ ही 2000 रुपए के नोट पर ब्रेल लिपि भी छपी होती थी जिससे उन लोगों को आसानी हो जो देख नहीं सकते हैं ,लेकिन ये नोट भी हमारी सरकार ने बंद करा दिया।
* कहने का आशय ये है कि न भाजपा सरकार को संविधान की परवाह है और न तमिलनाडु सरकार को। दोनों नफरत के मामले में एक जैसे है। तमिलनाडु सरकार को हिंदी भाषा से चिढ है तो भाजपा की राज्य सरकारों को अल्पसंख्यक मुसलमानों से नफरत है। नफरत के इस माहौल में न संविधान सुरक्षित है और न लोकतंत्र। लेकिन इसकी चिंता किसी को नहीं है । सब अपना-अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। गन्दी सियासत इसी को तो कहते हैं। मुझे आशंका होती है के आने वाले दिनों में भाषायी नफरत कि चलते कहीं दक्षिण वाले अपना नोट खुद न छाप लें या फिर वोटों की राजनीति कि चलते हमारी केंद्र सरकार खुद अलग-अलग प्रदेशों कि लिए अलग-अलग भाषा के नोट छपने पर मजबूर न हो जाये।
* सवाल ये है कि जो सरकार अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटा सकती है, जो सरकार अयोध्या में राम मंदिर बनवा सकती है ,जो सरकार महाकुम्भ से लाखों करोड़ रूपये कमा सकती है। वो मस्जिदों को ढंकने से नहीं रोक सकती क्या ? क्या उस सरकार के पास इतनी ताकत नहीं है कि वो भारतीय रूपये का प्रतीक चिन्ह बदलने वाली तमिलनाडु सरकार को बर्खास्त कर दे ?
* होली के मौके पर इस मुद्दे पर यदि आप होली मन से विचार करें तो ही बात बनेगी अन्यथा अब न सियासत ‘ होली ‘ बची है और न राष्ट्रीयता की पाकीजगी महफूज रह गयी है। आज का दिन मेरे लिए नियमित लिखने वाले हिंदी के धुरंधर लेखक स्वर्गीय वेद प्रताप वैदिक को याद करने का दिन भी है। आज ही के दिन उन्होंने देवलोक गमन किया था। उनके ही तरह मै भी बिना कोई अवकाश लिए पिछले पांच साल से लिखता आ रहा हूँ बिना किसी अपेक्षा के । वैदिक जी के प्रति विनम्र श्रृद्धांजलि।