दुनिया भर की चिंता बढ़ाते ट्रंप !
दुनिया भर की चिंता बढ़ाते ट्रंप, कई देश अपना परमाणु कवच मजबूत करने के बारे में सोचने लगे
भारत के दवा और मोटर पार्ट उद्योगों पर इसका तत्काल बुरा असर पड़ेगा और भारत के नवोदित सेमीकंडक्टर उद्योग पर भी बुरा असर पड़ सकता है। अमेरिका के माल पर टैरिफ कम करने या हटाने के अलावा भारत अपने माल के लिए दूसरी मंडियां तलाश कर सकता हैपर उसमें समय लगेगा। ट्रंप के इस व्यापार युद्ध के कारण अब हर देश अपनी मंडियां बचाने के लिए संरक्षण का सहारा लेगा।
…. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के युद्धविराम कराने के दोनों प्रयासों को लेकर यूरोप, पश्चिम एशिया और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के मित्र देश गहरी चिंता में हैं। युद्धविराम के जरिये शांति स्थापित कराने की ट्रंप की बेताबी किसी को बुरी नहीं लगती, लेकिन इस व्यग्रता के लिए वह जो कीमत चुकाने को तैयार हैं, उसकी वजह लोगों की समझ से परे है।
गाजा में वह फलस्तीनियों और उनके देश के अस्तित्व को संकट में डालकर और दुनिया का विरोध और निंदा झेलकर भी प्रधानमंत्री नेतन्याहू को खुली छूट देने को तैयार हैं, ताकि नेतन्याहू खुद को और अपनी सरकार को बचाए रख सकें। यूक्रेन में वह उसकी 20 प्रतिशत जमीन पर कब्जा किए बैठे पुतिन पर जमीन वापस करने और हमलों से किए विनाश की भरपाई का कोई दबाव डाले बिना युद्धविराम कराना चाहते हैं।
यह भी संभव है कि वह पुतिन की इस शर्त को मान लें कि यूक्रेन को न तो कभी नाटो की सदस्यता मिलेगी और न उसकी रक्षा के लिए नाटो की सेना वहां जा सकेगी। हो सकता है कि इसके लिए यूक्रेन की जनता की राय लेने की रस्म भी निभाई जाए, जिसमें रूस को भी खेलने की पूरी छूट मिले।
अरब और खाड़ी देशों में ट्रंप की गाजा नीति का विरोध करने की हिम्मत नहीं नजर आती। हमास और हिजबुल्ला की कमर टूटने और सीरिया में असद सरकार के पतन के कारण ईरान भी चुप है। हालांकि उसने ट्रंप की शर्तों पर परमाणु समझौता करने का प्रस्ताव ठुकरा दिया है, लेकिन ट्रंप यमन के हूतियों की कमर तोड़ने की मुहिम छेड़कर उस पर भी दबाव बढ़ा रहे हैं।
पुतिन के साथ संबंध बहाल होने के बाद संभव है कि ईरान पर रूस का भी दबाव डलवाया जाए, लेकिन पुतिन से शांति के लिए यूरोप के देश यूक्रेन की बलि देने को तैयार नहीं हैं। हंगरी, सर्बिया, स्लोवाकिया और बुल्गारिया जैसे कुछ यूरोपीय देश रूस के साथ शांति की हिमायत करते हैं, परंतु तभी तक जब तक उन्हें नाटो का संरक्षण प्राप्त है।
रूस की सीमा से लगते फिनलैंड और पोलैंड जैसे देशों और पश्चिमी यूरोप के देशों को पुतिन के इरादों पर भरोसा नहीं है। उधर जर्मनी ने रक्षा खर्च बढ़ाने के लिए अपने संविधान में संशोधन किया है। ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, स्पेन और स्वीडन हर देश नाटो के बजट में अपना योगदान और रक्षा खर्च बढ़ाने वाला है।
ब्रिटेन और फ्रांस के परमाणु कवच को यूरोप के देशों के लिए उपलब्ध कराने पर भी विचार हो रहा है, ताकि अमेरिका के परमाणु कवच पर निर्भरता को कम किया जा सके। इसके विपरीत ट्रंप परमाणु हथियारों के अप्रसार की मुहिम छेड़ना चाहते हैं। रूस के साथ संबंध बहाल करने के पीछे भी उनका एक उद्देश्य परमाणु अप्रसार की प्रक्रिया को फिर से शुरू करना है।
ट्रंप का कहना है कि वह चीन, भारत, पाकिस्तान और इजरायल जैसी अन्य परमाणु शक्तियों को भी अप्रसार वार्ताओं में शामिल करना चाहते हैं। हालांकि वह जिस तरह के युद्धविराम कराना चाहते हैं, उनका असर ठीक इसके विपरीत होता दिखता है। यूक्रेन पर हमला होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि उसके पास परमाणु हथियार नहीं हैं और रूस दुनिया की बड़ी परमाणु शक्ति है। 1991 में सोवियत संघ से अलग होने के बाद यूक्रेन दुनिया की तीसरे नंबर की परमाणु शक्ति था।
1994 की बुडापेस्ट विज्ञप्ति के आधार पर उसने अपने परमाणु हथियार त्याग कर रूस को दे दिए। बदले में उसे अमेरिका, ब्रिटेन और रूस ने सुरक्षा की गारंटी दी। सुरक्षा की गारंटी देने वाले रूस ने ही 2014 में हमला करके उसका क्रीमिया प्रायद्वीप छीन लिया और 2022 में फिर हमला किया, जो आज तक जारी है। न सुरक्षा की गारंटी देने वाला अमेरिका उसके बचाव में आया और न ब्रिटेन, क्योंकि हमलावर रूस एक बड़ी परमाणु शक्ति था। इस घटना के बाद भला कौन सा देश अपने परमाणु कवच को हल्का करना या उसका परित्याग करना चाहेगा?
नाटो जैसे मित्र देशों के गठबंधन के बचाव से हाथ खींचने की ट्रंप सरकार की नीतियों के कारण भी न केवल यूरोप के देशों को अपना परमाणु कवच और मजबूत करने के बारे में सोचना पड़ रहा है, बल्कि जापान, दक्षिण कोरिया और सऊदी अरब जैसे और भी कई देश परमाणु होड़ में शामिल होने की सोच रहे हैं। भारत के समक्ष तो चीन और पाकिस्तान की दोहरी चुनौती है।
हालांकि ट्रंप चाहते हैं कि रूस के साथ-साथ चीन भी परमाणु अप्रसार की पहल में शामिल हो, लेकिन जिसे आप तकनीक और व्यापार युद्ध का निशाना बना रहे हैं, वह आपके कहने पर अपना परमाणु कवच क्यों कमजोर करेगा? चीन जिस गति से परमाणु हथियार बना रहा है, उसके चलते दो दशकों के भीतर ही अमेरिका और रूस की बराबरी पर पहुंच जाएगा। यह भारत के लिए भी बहुत बड़ा सिरदर्द होगा।
फिलहाल तो भारत के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द ट्रंप की व्यापार नीति है। उन्हें लगता है कि बहुत से देशों ने अमेरिकी माल पर शुल्क लगाकर उसे तो अपनी मंडियों में आने नहीं दिया और अपना माल अमेरिकी मंडियों में बेचकर अमेरिकी उद्योगों को चौपट किया है। इसलिए वह दो अप्रैल से हर देश पर जवाबी टैरिफ लगाने जा रहे हैं। यानी जितना टैरिफ आप अमेरिका के माल पर लगाएंगे, अमेरिका उतना ही आपके माल पर लगाएगा।
भारत के दवा और मोटर पार्ट उद्योगों पर इसका तत्काल बुरा असर पड़ेगा और आगे चलकर भारत के नवोदित सेमीकंडक्टर उद्योग पर भी बुरा असर पड़ सकता है। अमेरिका के माल पर टैरिफ कम करने या हटाने के अलावा भारत अपने माल के लिए दूसरी मंडियां तलाश कर सकता है, पर उसमें समय लगेगा। ट्रंप के इस व्यापार युद्ध के कारण अब हर देश अपनी मंडियां बचाने के लिए संरक्षण का सहारा लेगा। अर्थशास्त्रियों को आशंका है कि संरक्षणवाद की इस लहर से पिछले तीन दशकों में मुक्त व्यापार से हुई प्रगति धीमी पड़ सकती है।
यह सब ऐसे समय में हो रहा है, जब भारत को अपना अधिक से अधिक माल विदेश में बेचकर वह पूंजी कमाने करने की सख्त जरूरत है, जिसके बिना लोगों का जीवन स्तर सुधारा नहीं जा सकता। चीन ने चार दशकों तक लाखों करोड़ का व्यापार लाभ कमाया है। उसी के बल पर वहां के लोगों का जीवन स्तर सुधरा है।