एक्सीडेंट क्लेम में बड़ा घोटाला !
मध्यप्रदेश में फर्जी दिव्यांगता सर्टिफिकेट बनाकर एक्सीडेंट क्लेम लेने के बढ़ते मामलों की जांच के लिए हाईकोर्ट ने डीजीपी को एसआईटी गठित कर जांच के निर्देश दिए हैं। दरअसल, छिंदवाड़ा के रहने वाले राकेश वल्तिया ने दिव्यांगता का फर्जी सर्टिफिकेट लगाकर बीमा क्लेम लेने की कोशिश की थी।
बीमा कंपनी ने इस क्लेम को चैलेंज करते हुए हाईकोर्ट में याचिका लगाई थी। याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने पाया कि सर्टिफिकेट फर्जी था। लिहाजा, जबलपुर के जिस डॉक्टर ने ये जारी किया था उसके खिलाफ भी कार्रवाई के निर्देश दिए हैं। हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद जब …… ने एक्सपर्ट से बात की तो पता चला कि पूरे मामले के दो पक्ष हैं।
पहला ये कि बोगस क्लेम दिलाने के लिए एक सिंडिकेट काम करता है। दूसरा क्लेम न देना पड़े, इसलिए बीमा कंपनियां भी उसे रिजेक्ट करने के लिए अलग-अलग बहाने बनाती है। आखिर किस तरह से चलते हैं ये दोनों खेल..
पहले जानिए क्या है पूरा मामला…?
दरअसल, ये मामला छिंदवाड़ा के राकेश वल्तिया से जुड़ा है। एक्सीडेंट में चोट लगाने के बाद ट्रिब्यूनल ने उसे 2 लाख 74 हजार रुपए का मुआवजा देने के निर्देश इंश्योरेंस कंपनी को दिए थे। श्रीराम जनरल इंश्योरेंस कंपनी ने मुआवजे की राशि को हाईकोर्ट में चैलेंज किया।
सुनवाई के दौरान कोर्ट में खुलासा हुआ कि क्लेम पाने के लिए वल्तिया ने फर्जी दिव्यांगता सर्टिफिकेट लगाया था। सर्टिफिकेट जिला अस्पताल जबलपुर से बना था, जिसे डॉ. शरद द्विवेदी ने बनाया था। कोर्ट में क्रॉस एग्जामिनेशन के दौरान खुद वल्तिया ने माना कि वो कभी अस्पताल में भर्ती नहीं हुआ था, न ही जांच के लिए गया था।
मामले में डॉ. द्विवेदी की भूमिका पर सवाल खड़े हुए। ये भी पता चला कि मुआवजा दिलाने के लिए जबलपुर के सुविधा अस्पताल के डॉ. बालकृष्ण डांग द्वारा फर्जी दस्तावेज तैयार किए गए थे। हाईकोर्ट ने ऑर्डर में लिखा है कि डॉ. बालकृष्ण डांग के मामले को भी मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को भेजा जाना चाहिए, ताकि उनके खिलाफ उचित कार्रवाई की जा सके।
साथ ही जबलपुर कलेक्टर को निर्देश दिए हैं कि ड्रग इंस्पेक्टर से मां फार्मेसी का निरीक्षण करवाएं और पता लगाएं कि मां फार्मेसी को जीएसटी/बिक्री नंबर के बिना बिल जारी करने का अधिकार कैसे है। क्योंकि वल्तिया के इलाज के लिए दवाइयों की खरीदी यही से बताई गई थी। कोर्ट ने अपने आदेश में वल्तिया को 2 लाख 22 हजार का मुआवजा देने के निर्देश दिए।
अब जानिए क्या कहते हैं एक्सपर्ट?
दरअसल, एक्सीडेंट बीमा क्लेम के दो पहलू हैं। पहला ये कि फर्जी सर्टिफिकेट के जरिए बीमा कंपनियों से क्लेम हासिल किया जाता है। इसका दूसरा पहलू ये है कि बीमा कंपनियां भी क्लेम न देने के कई बहाने बनाती हैं। ….. ने इन दोनों पहलुओं पर एक्सपर्ट से बात की।
फर्जी बीमा क्लेम के लिए काम करता है सिंडिकेट एक्सीडेंट क्लेम के एडवोकेट सूर्यकांत भुजाड़े बताते हैं कि ऐसे केस में ये देखा जाता है कि संबंधित आवेदक को कितनी गंभीर चोटें आई हैं। इसे देखने का माध्यम इलाज करने वाले डॉक्टर का सर्टिफिकेट होता है। सर्टिफिकेट से पता चलता है कि विकलांगता कितनी फीसदी है? ये स्थायी है या अस्थायी है।
क्लेम दिलाने के पीछे बाकायदा एक सिंडिकेट काम करता है। ये किसी एक व्यक्ति के बस की बात नहीं होती। रोड पर किसी व्यक्ति का एक्सीडेंट हुआ है, तो उसे क्या पता कि इस तरह के सर्टिफिकेट कौन बनाता है? किन-किन डॉक्यूमेंट के आधार पर ये सर्टिफिकेट कहां बनते हैं? कौन से डॉक्टर इस तरह के सर्टिफिकेट बनाते हैं?
भुजाड़े कहते हैं कि कुछ सक्रिय दलाल हैं, जो थाने से जानकारी निकाल कर पीड़ित को संबंधित डॉक्टर तक पहुंचा देते हैं। अगर किसी हॉस्पिटल में इलाज चला तो वहां से भी सर्टिफिकेट बनाने के लिए कह दिया जाता है और बता दिया जाता है कि वह यहां से बनेगा। इसके लिए बाकायदा चार्ज लिया जाता है।
छोटे एक्सीडेंट को बड़ा दिखाने की कोशिश होती है
भुजाड़े कहते हैं कि फर्जी क्लेम के लिए जुगाड़ की जाती है। जैसे छोटा एक्सीडेंट हुआ है, लेकिन उसे बड़ा दिखाने की कोशिश की जाती है। उसके लिए डॉक्टरों से लेन-देन कर (फिजिकल डिसेबिलिटी सर्टिफिकेट) ज्यादा पर्सेंट का सर्टिफिकेट बनवा लिया जाता है।
कोर्ट में क्रॉस एग्जामिनेशन के दौरान गवाही में जो बातें सामने आती हैं, उस आधार पर कोर्ट 40-50 पर्सेंट डिसेबिलिटी को 20-25 पर्सेंट भी कर देता है।
जैसे, अगर कोई कहे कि उसका पैर खराब हो गया है, लेकिन क्रॉस एग्जामिनेशन में पता चले कि वो बाइक चला सकता है, चल सकता है। डिसेबिलिटी तो है, लेकिन उसे कोर्ट रिड्यूस कर देता है, लेकिन कुछ बोगस केस में देखते हैं कि लोग 70-80 पर्सेंट डिसेबिलिटी का सर्टिफिकेट बनवाकर ले आते हैं। कई बार फ्रैक्चर में 50 पर्सेंट का बनवा लाते हैं।
अब 2 केस से समझिए बीमा कंपनियों के क्लेम न देने के बहाने
केस-1: कंपनी ने क्लेम नहीं दिया, कोर्ट ने दिलाए 1 करोड़ रुपए
ये केस इंदौर के रहने वाले दुष्यंत सिंह राजपूत का है। अपनी स्कूटर से जा रहे राजपूत को एमआर-11 बायपास पर कार नंबर एमपी 41 सीबी 1573 के ड्राइवर ने पीछे से टक्कर मार दी थी। हादसे में दुष्यंत बुरी तरह से घायल हुए। उनके पैर में फ्रैक्चर हुआ। कार का पिछला पहिया हाथ के ऊपर से गुजरने से हाथ कोहनी के ऊपर से कट गया था।
उन्हें इंदौर के एमवाय अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहां वह कोमा में चले गए और स्थायी रूप से अपंग (90%) हो गए। घटना की रिपोर्ट इंदौर के लसूड़िया थाने में दर्ज हुई थी। दुष्यंत की तरफ से दो करोड़ दस लाख पचास हजार रुपए का बीमा क्लेम का केस कोर्ट में लगाया गया।
इस मामले में वीर सिंह, आकाश मालवीय और आईसीआईसीआई लोम्बार्ड जनरल इंश्योरेंस कंपनी को पार्टी बनाया गया था। वीर सिंह और आकाश ने जवाब दिया कि हमने एक्सीडेंट नहीं किया है। वाहन का बीमा है, इसलिए हम क्लेम देने के लिए जिम्मेदार नहीं है।
वहीं, बीमा कंपनी ने कोर्ट में जवाब दिया कि एक्सीडेंट दुष्यंत की ही लापरवाही से हुआ है। पुलिस ने दो दिन बाद एफआईआर दर्ज की।
केस-2: पीड़ित ने हेलमेट नहीं पहना था ड्राइविंग लाइसेंस नहीं था
ये केस सीहोर की देवकी खुराना का है, जिनके पति गोकुल प्रसाद खुराना की एक्सीडेंट में मौत हो गई थी। गोकुल प्रसाद को रॉन्ग साइड से आ रहे ट्रक नंबर एमपी 09 केसी 5349 ने सामने से जोरदार टक्कर मार दी थी। इस मामले की शिकायत मंडी सीहोर थाने में दर्ज की गई थी।
गोकुल जनपद पंचायत सीहोर में समन्वय अधिकारी थे। पत्नी देवकी ने 2 करोड़ 25 लाख रुपए 12 पर्सेंट ब्याज समेत सहायता राशि दिलवाने की मांग की थी। इस मामले में शकील अली, मोहम्मद इलियास और यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड को पार्टी बनाया गया था।
कंपनी ने इन बिंदुओं पर बीमा क्लेम खारिज कर दिया…
- एक्सीडेंट वाले दिन ट्रक क्रमांक एमपी 09 केसी 5349 के ड्राइर के पास वाहन चलाने का वैध लाइसेंस नहीं था। इस तरह वाहन मोटरयान अधिनियम व बीमा पॉलिसी की शर्तों का उल्लंघन किया गया।
- एक्सीडेंट की जानकारी शकील और मोहम्मद इलियास ने बीमा कंपनी को नहीं दी, जो बीमा पॉलिसी की शर्तों का उल्लंघन है। ट्रक को परमिट की शर्तों का उल्लंघन कर चलाया जा रहा था।
- एक्सीडेंट साइड से टक्कर मारने के कारण हुआ, जिसमें गोकुल की बाइक का भी पूरा योगदान है। बाइक की बीमा कंपनी को पार्टी नहीं बनाया गया
बीमा कंपनी जवाब और गवाही देने में करती है देरी
एक्सीडेंट क्लेम के एडवोकेट एलबी यादव बताते हैं कि एक्सीडेंट मामलों में बीमा कंपनी के प्रतिनिधि को कोर्ट में हाजिर होना पड़ता है। उन्हें जवाब देना रहता है, लेकिन समय पर जवाब नहीं दिया जाता है। एक पेशी पर जवाब दे देना चाहिए, मगर 4 से 5 पेशी के बाद जवाब दिया जाता है।
हर बार अगली तारीख लगती है और पीड़ित परेशान होता रहता है। 6-6 महीने तक टाला जाता है। बीमा कंपनी 1 महीने में जवाब दे तो लोगों को अधिकतम 3 महीने में न्याय मिल जाए। इतना ही नहीं जवाब में बीमा कंपनी ये तक कह देती है कि उनके यहां संबंधित वाहन का बीमा नहीं है। ऐसे में कोर्ट को गुमराह किया जाता है, इससे केस लेट चलता है।
क्लेम न देना पड़े, इसलिए बीमा कंपनी ये तर्क भी देती है कि पुलिस ने एफआईआर देरी से लिखी है। कई बार केस दर्ज होने में 8 से 10 दिन लग जाते हैं। बीमा कंपनी कहती है कि पुलिस गलत काम कर रही है। जबकि पुलिस निष्पक्ष जांच करती है। जांच में ही 8-10 दिन लग जाते
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एमपी हाईकोर्ट ने दावेदार के लिए जाली विकलांगता प्रमाण पत्र बनाने वाले वकील और डॉक्टरों के खिलाफ कार्रवाई का आदेश दिया
मोटर दुर्घटना बीमा दावे से संबंधित मामले की सुनवाई करते हुए मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने पुलिस महानिदेशक को झूठे मामले में फंसाने के उन मामलों की जांच के लिए विशेष जांच दल गठित करने का निर्देश दिया है, जहां दावेदार, पुलिस, क्षेत्रीय अधिकारी और डॉक्टर मिलीभगत से काम करते हैं।
ऐसा करते हुए न्यायालय ने दावेदार को देय शुद्ध मुआवजा राशि 2,74,096 रुपये से घटाकर 2,22,043 रुपये कर दी और मामले में शामिल संबंधित डॉक्टरों, फार्मेसी और वकील के खिलाफ जांच के निर्देश दिए।
जस्टिस विवेक अग्रवाल की एकल पीठ ने कहा,
“…पुलिस महानिदेशक को एसआईटी के रूप में एक उच्च स्तरीय टीम गठित करने का निर्देश भी जारी किया जाता है, ताकि झूठे आरोपों के ऐसे मामलों की जांच की जा सके, जिनमें तीन पक्ष अनिवार्य रूप से दावेदार, पुलिस, क्षेत्र के अधिकारी और संबंधित डॉक्टर की मिलीभगत हो। इसके अलावा, कभी-कभी दावेदार अपने वकील के उकसावे पर काम करते हैं, जो मोटर दुर्घटना दावा मामलों या आपराधिक कानून के क्षेत्र में काम कर रहे होते हैं। इसलिए, एसआईटी से अनुरोध किया जाता है कि वह इन धोखाधड़ी की जांच व्यवस्था के साथ करे, जो दिन-प्रतिदिन जारी रहती हैं और न्यायिक प्रणाली की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाती हैं।”
पक्षों की सुनवाई और रिकॉर्ड देखने के बाद, न्यायालय ने दावेदार के वकील से रिकॉर्ड में उपलब्ध कुछ फार्मेसी बिलों के बारे में पूछा, जो संबंधित फार्मेसी से जीएसटी नंबर या सील के बिना थे। न्यायालय ने पाया कि वकील के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था कि वे बिल साक्ष्य में कैसे स्वीकार्य थे।
“ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकरण ने इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया, जबकि उसने यह तथ्य स्वीकार कर लिया कि दावेदार द्वारा प्रस्तुत विकलांगता प्रमाण-पत्र तथा प्रदर्श पी-130 के रूप में अभिलेख के साथ संलग्न विकलांगता प्रमाण-पत्र उसके विचारणीय नहीं है।”
न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि संबंधित चिकित्सक ने जिला चिकित्सा बोर्ड के सदस्य के रूप में कार्य करते हुए जाली विकलांगता प्रमाण-पत्र जारी किया था। यह देखा गया कि प्रदर्श पी-130 में जिला चिकित्सा बोर्ड का कोई समर्थन नहीं था। इस प्रकार, यह स्पष्ट था कि प्रमाण-पत्र जाली था, जैसा कि दावेदार ने कहा कि यह उसके वकील द्वारा बिना किसी जांच या परीक्षण के प्राप्त किया गया था।
इसके बाद न्यायालय ने डॉक्टर द्वारा जारी विकलांगता प्रमाण-पत्र और पुरस्कार को लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के प्रमुख सचिव को भेज दिया ताकि यदि डॉक्टर सेवा में बने रहते हैं तो उनके खिलाफ विभागीय जांच की जाए और उन पर बड़ा जुर्माना लगाया जाए, क्योंकि “सिस्टम के साथ धोखाधड़ी करने और मरीज की जांच किए बिना गलत और जाली मेडिकल प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने के इस कृत्य को जारी रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती”।
इसके अलावा, एक अन्य डॉक्टर के संबंध में, जिसकी दावेदार के गवाह संख्या 3 के रूप में जांच की गई थी, न्यायालय ने मामले को उचित कार्रवाई करने के लिए भारतीय चिकित्सा परिषद को भेज दिया, यह देखते हुए कि डॉक्टर का “झूठे और मनगढ़ंत प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने का आपराधिक इतिहास” है, जिसके कारण उसे जेल जाना पड़ा था।
मामले को न्यायालय में ले जाने के लिए परिषद को भेजते हुए न्यायालय ने कहा कि डॉक्टर “दावेदार को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से उपचार के कागजात सहित झूठे और मनगढ़ंत कागजात प्रस्तुत करने का प्रथम दृष्टया दोषी है”।
न्यायालय ने कहा कि दावेदार ने कभी यह स्वीकार नहीं किया कि वह उस अस्पताल में गया था, जहां डॉक्टर (दावेदार का गवाह) काम करता था और उसने खुद कहा था कि वह केवल तीन सरकारी अस्पतालों में गया था, अर्थात् हर्रई, नरसिंहपुर और छिंदवाड़ा, इसके अलावा जबलपुर में एक अस्पताल। इसलिए न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि जिस स्थान पर डॉक्टर काम करता था, वहां के बिल झूठे प्रतीत होते हैं।
इस प्रकार, उपरोक्त कारकों पर विचार करने के बाद, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि फार्मेसी द्वारा बिना किसी जीएसटी नंबर/बिक्री कर नंबर और फार्मेसी की मुहर के बिना जारी किए गए अनुचित चिकित्सा बिलों के कारण भुगतान की गई राशि को दावा न्यायाधिकरण द्वारा दी गई राशि से काट लिया जाएगा।
इस प्रकार, दावेदार के पक्ष में देय शुद्ध मुआवजा 52,053 रुपये कम हो गया।
इसके बाद, न्यायालय ने कलेक्टर, जबलपुर को निर्देश दिया कि वे ड्रग इंस्पेक्टर को संबंधित फार्मेसी का निरीक्षण करने का निर्देश दें ताकि पता लगाया जा सके कि वह जीएसटी/बिक्री कर नंबर के बिना बिल जारी करने का हकदार कैसे है।
न्यायालय ने राज्य बार काउंसिल को भी निर्देश दिया कि वह दावेदार के वकील के खिलाफ कार्रवाई करे, जो न्यायाधिकरण के समक्ष उपस्थित हुए और दावेदार की कोई जांच किए बिना ही जाली और मनगढ़ंत चिकित्सा प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया।