ग्वालियर स्वास्थ्य विभाग ने बंद कर दिए थे, मिली भगत के खेल से फिर खुल गए अस्पताल !

स्वास्थ्य विभाग ने बंद कर दिए थे, मिली भगत के खेल से फिर खुल गए अस्पताल

MP News: अस्पतालों में कमियां या शिकायतें मिलने के बाद हुआ निरीक्षण, नोटिस के बाद बंद हुए हॉस्पिटल, स्वास्थ्य विभाग की मिली भगत और नये नाम से फिर से संचालित हो रहे वही अस्पताल, जानें क्या बोले CMHO

MP News: कोरोना काल के बाद जिले में तेजी से निजी अस्पताल (Hospitals in Gwalior) खुले हैं। इनमें तीन महीने के अंदर ही 10 अस्पतालों को खोलने की अनुमति दी गई है। साथ ही अनियमितताएं मिलने पर जिले में कई अस्पताल बंद भी किए गए हैं। लेकिन बंद किए गए कई अस्पताल नाम बदलकर फिर से चल रहे हैं। इन अस्पतालों की न बिल्डिंग बदली है न स्टाफ, केवल नाम बदला है।
रजिस्ट्रेशन रद्द होने के बाद भी फिर खुल गए अस्पताल
अस्पतालों में कमियां या शिकायतें आने के बाद स्वास्थ्य विभाग (Health Department) निरीक्षण करके एक महीने का नोटिस देता है। लेकिन कई अस्पतालों में इन नोटिस का असर नहीं होता है, जिस पर कुछ दिन बाद इन अस्पतालों का पंजीयन रद्द कर इन्हें बंद कर दिया जाता है। लेकिन स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत से कुछ दिन बाद ही यह बंद अस्पताल दूसरे नाम से खुल जाता है। इसमें बिल्डिंग और डॉक्टर के साथ स्टाफ वही रहता है। अस्पताल का नाम और डायरेक्टर का नाम बदल जाता है। कई बार ऐसे मामले भी सामने आए हैं, जिसमें अस्पतालों के पार्टनरों में लड़ाई के बाद बंद कर दिया, लेकिन कुछ दिन बाद यह उसी स्थान पर खुल गया।
जिले में 417 अस्पताल संचालित
स्वास्थ्य विभाग के अनुसार जिले में 417 निजी अस्पताल संचालित हो रहे हैं। इसमें डबरा में 12 निजी अस्पताल हैं। वहीं शहर में ही लगभग 350 अस्पताल हैं। तीन महीने में ही 10 अस्पतालों को खोलने की अनुमति मिली है।
अस्पतालों को भी समय- समय व्यवस्थाओं को लेकर नोटिस आदि दिए जाते है। इससे कुछ नियमों का पालन नहीं करने पर बंद भी हो जाते है। वहीं कोरोना काल में अस्पतालों की बहार आई थी। इसके बाद लगभग बीस फीसदी अस्पताल बंद हो गए है।
बंद स्मार्ट सिटी अस्पताल का एक साल में बोर्ड तक नहीं हटा
गुड़ागुड़ी का नाका कंपू में स्मार्ट सिटी मेटरनिटी एवं सर्जिकल हॉस्पिटल में बुधवार को अवैध गर्भपात का मामला सामने आया था। जबकि इस अस्पताल का पंजीयन एक साल पहले 31 मार्च 2024 को खत्म हो चुका है। लेकिन स्वास्थ्य विभाग की मिली भगत से अस्पताल का बोर्ड तक नहीं हटा। इसका मतलब है कि स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी, कर्मचारी यहां पर गए ही नहीं। अभी भी शहर में ऐसे कई अस्पताल संचालित हो रहे हैं, जिन पर स्वास्थ्य विभाग की नजर नहीं है।
इन अस्पतालों के बदले नाम
-जनक हॉस्पिटल —- आनंदम
-ऋषिश्वर हॉस्पिटल—- मनेश्वर हॉस्पिटल
-रीलाइफ हॉस्पिटल—- सहयोग हॉस्पिटल
परिवाद पेश करेंगे
स्मार्ट सिटी मेटरनिटी एवं सर्जिकल हॉस्पिटल में गर्भपात के मामले में न्यायालय में परिवाद पेश किया जाएगा। इसकी तैयारी की जा रही हैं।
-डॉ. सचिन श्रीवास्तव, सीएमएचओ
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कमीशन के वायरस ने बिगाड़ी स्वास्थ्य विभाग की सेहत
स्वास्थ्य विभाग को मलाईदार विभाग माना जाता है. सरकारी अस्पतालों में दवाएं उपलब्ध नहीं रहती लेकिन,हर साल करोड़ों रूपए की खरीदी होती है. दवाओं के अलावा अन्य सामग्री की खरीदी भी होती है. सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार दवाओं की खरीदी में ही सामने आता है. कमीशन भी खरीदी व्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा है.

May 28, 2022 10:56 AM IST

दशकों पहले तक देश में स्वास्थ्य विभाग की पहचान सेवा करने वाले विभाग के तौर पर होती थी. लेकिन,अब यह सरकार के मलाईदार विभागों में एक है. यद्यपि देश के लगभग हर राज्य में डॉक्टर और दवाइयों की कमी के मामले हमेशा सामने आते हैं. कोविड-19 के संक्रमण में बीमार स्वास्थ्य विभाग की कई तस्वीरें सामने आईं. वैसे सरकार का जोर देश की स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने पर है. कई राज्यों ने अपने स्वास्थ्य बजट में वृद्धि भी की है. विभाग के बजट का आकार जैसे-जैसे बढ़ रहा है वैसे-वैसे भ्रष्टाचार और कमीशन शिकायतें भी बढ़ रही हैं. पंजाब के स्वास्थ्य मंत्री विजय सिंगला को कमीशन की मांग करने के कारण ही पद गंवाना पड़ा और जेल भी जाना पड़ा.

स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति पर वित्त आयोग की चिंता 

पंद्रहवें  वित्त आयोग ने वित्तीय वर्ष 2022-26 के लिए अपनी रिपोर्ट में सलाह दी है कि राज्यों को अपने कुल बजट का 8 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करना चाहिए. रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य बजट में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर सबसे ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है. राज्यों को  स्वास्थ्य बजट का दो तिहाई हिस्सा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर खर्च करने की सलाह दी भी गई.

वित्त आयोग ने अपनी रिपोर्ट में  देश की स्वास्थ्य सेवाओं में भारी कमी की स्थिति का भी खुलासा किया था. भारत में एक एलोपैथिक डॉक्टर कम से कम 1,511 लोगों की सेवा करते हैं. ये डब्ल्यूएचओ के हर 1,000 लोगों के लिए एक डॉक्टर के मानक से बहुत अधिक है. नर्स और पैरामेडिकल स्टॉफ की कमी भी इस रिपोर्ट में बताई गई. पंद्रहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक नर्सों की कमी सबसे ज्यादा बिहार, झारखंड, सिक्किम, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में है. जबकि जनसंख्या के अनुपात के लिहाज से डॉक्टरों की कमी बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में चिंताजनक है.

अरबों की हेल्थ इंडस्ट्रीज फिर भी बिस्तर कम

एक अनुमान के अनुसार पूरे देश के अस्पतालों में लगभग बीस लाख बिस्तर हैं. जनसंख्या के अनुपात में बिस्तरों की संख्या कम होना स्वाभाविक है. भारत दुनिया की बड़ी आबादी वाले देशों में से एक है. यहां एक हजार व्यक्तियों पर डेढ़ से भी कम बिस्तर उपलब्ध हैं. जबकि चीन में यह संख्या चार बिस्तर की है. थाईलैंड और ब्राजील जैसे देशों में प्रति हजार व्यक्तियों पर उपलब्ध बिस्तर की संख्या दो है.

भारत का स्वास्थ्य देखभाल उद्योग 2016 से 22 प्रतिशत की वार्षिक चक्रवृद्धि प्रगति दर से बढ़ रहा है. नीति आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में अनुमान जाहिर किया कि जिस तेजी से यह उद्योग बढ़ रहा है इस दर से यह 2022 तक 372 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच जाएगा. स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र राजस्व और रोजगार के संदर्भ में भारतीय अर्थव्यवस्था के सबसे बड़े क्षेत्रों में से एक हो गया है. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक प्रति हजार व्यक्तियों पर पांच बिस्तर अस्पतालों में होना चाहिए. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण पर संसद की स्थायी समिति ने पाया कि वर्ष 2020 तक सरकारी अस्पतालों में प्रति हजार व्यक्तियों पर सिर्फ 0.05 बिस्तर ही उपलब्ध हैं.

निजी अस्पतालों में महंगा इलाज लोगों को गरीब बना रहा

स्वास्थ्य और परिवार मंत्रालय द्वारा जारी ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी, 2019-20 के अनुसार मई 2021 में ग्रामीण क्षेत्रों में 78.9 फीसदी सर्जन, 69.7 फीसदी प्रसूति-स्त्री रोग विशेषज्ञ, 78.2 प्रतिशत चिकित्सक और 78.2 प्रतिशत बाल रोग विशेषज्ञ की कमी रही है. 2011 की जनगणना के अनुसार, यहां की कुल जनसंख्या का लगभग 69 प्रतिशत है. इस कमी का सबसे ज्यादा लाभ निजी क्षेत्र के अस्पताल उठा रहे हैं. निजी अस्पतालों में खर्च होने वाली राशि आम आदमी के लिए कर्ज में डालने वाली है. आर्थिक सर्वेक्षण 2020-21 के अनुसार, भारत में कुल स्वास्थ्य व्यय का 65 प्रतिशत आउट-ऑफ-पॉकेट है और ये विश्व औसत 18.2 प्रतिशत की तुलना में बहुत अधिक है. यह देखा गया कि भारत में स्वास्थ्य सेवा का बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र द्वारा प्रदान किया जाता है जो कि सरकारी सुविधाओं से अधिक महंगा है.

देश में स्वास्थ्य सेवाओं में कमजोरी के दो प्रमुख कारण है. पहला कारण बजट की कमी और दूसरा बड़ा कारण उपलब्ध बजट का बड़ा हिस्सा कमीशनखोरी की भेंट चढ़ जाना है. आम आदमी का स्वास्थ्य किसी भी राज्य सरकार के लिए प्राथमिकता वाला क्षेत्र नहीं है. मेडिकल स्टॉफ की कमी को पूरा करने के लिए केन्द्र सरकार निजी क्षेत्र में मेडिकल कॉलेज खोले जाने की मंजूरी पूरी उदारता से दे रही है. निजी क्षेत्र के मेडिकल कॉलेज में प्रवेश प्रक्रिया भी विवाद का विषय रही है. मध्यप्रदेश में व्यापम के  घोटाले में मेडिकल कॉलेज कर प्रवेश परीक्षा भी विवाद का कारण बनीं थीं. तत्कालीन तकनीकी शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा का नाम इस घोटाले से जुड़ा था. केन्द्र सरकार का पूरा जोर स्वास्थ्य सेवाओं की मजबूत अधोसंरचना विकसित करने पर है. अपस्तालों के उन्नयन और उपकरणों की खरीदी के लिए भी राशि उपलब्ध कराई जा रही है.

मोहल्ला क्लीनिक और संजीवनी का प्रयोग असरदार 

व्यवस्था में राजनीतिक स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए ही राष्ट्रीय हेल्थ मिशन का प्रयोग किया गया है. राज्यों में यह सीधे मुख्यमंत्रियों के अधीन काम कर रहा है. दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल मोहल्ला क्लीनिक की चमक के जरिए अपनी छवि चमका रहे हैं. ऐसा माना जाता है कि स्वास्थ्य सेवाओं को सेहतमंद बनाने के लिए ही अरविंद केजरीवाल ने पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान को सिंगला की बलि लेने की अनुमति दी. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी वार्ड स्तर पर संजीवनी क्लीनिक शुरू की हैं. मुख्यमंत्री चौहान बड़े अस्पतालों का प्रबंधन प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ में देने की तैयारी कर रहे हैं.

दवा खरीदी जाती हैं पर मरीजों को नहीं मिलती

स्वास्थ्य सेवाएं सीधे राज्यों से जुड़ा हुआ विषय है. स्वास्थ्य विभाग को मलाईदार विभाग माना जाता है. सरकारी अस्पतालों में दवाएं उपलब्ध नहीं रहती लेकिन,हर साल करोड़ों रूपए की खरीदी होती है. दवाओं के अलावा अन्य सामग्री की खरीदी भी होती है. सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार दवाओं की खरीदी में ही सामने आता है. कमीशन भी खरीदी व्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा है. दवाओं की खरीदी के मामले में मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य विभाग में पदस्थ रहे आईएएस अफसर आयकर विभाग की जांच का सामना भी कर चुके हैं. संचालक स्तर के कई अधिकारियों को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने नौकरी से बर्खास्त भी किया था. हाल ही में दो मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार हुए हैं. स्वास्थ्य मंत्री और मुख्यमंत्री के बीच टकराव की खबरें कई राज्यों में सुनने को मिलती हैं. छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के बड़े विरोधी माने जाने वाले टीएस सिंहदेव भी राज्य के स्वास्थ्य मंत्री हैं.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News….. उत्तरदायी नहीं है.)

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