प्रैक्टिस के लिए जब शहर आई तो गांव वालों ने कहा ‘भाग जाएगी’, अब सब-इंस्पेक्टर बनकर सबके मुंह पर लगाया ताला

रोज पेट भरना मुश्किल था। ऐसे में क्या ख्वाहिशें पालती जब वे पूरी ही नहीं हो सकती थीं। इसलिए सपने पाले ही नहीं। मैंने तो तय कर लिया था कि जिंदगी में कुछ हासिल नहीं कर पाऊंगी, ऐसे ही ये जिंदगी कट जाएगी, लेकिन लाइफ में एक ऐसा मोमेंट आया जब मैंने सपने देखना शुरू किया और उन्हें पूरा करने के लिए मेहनत भी करनी शुरू कर दी। आज उसी मेहनत का फल है कि सब-इंस्पेक्टर बन पाई हूं और राजस्ठान के अलवर में पोस्टेड हूं।’ ये कहानी है उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के सिरौंधन गांव में पली-बढ़ी मीनू प्रजापति की।

मीनू प्रजापति।
मीनू प्रजापति।

…… वुमन से बातचीत में मीनू कहती हैं, ‘मैं एक ऐसे परिवार में पली-बढ़ी,जहां मजदूरी करके पेट पालना भी मुश्किल था। रोज ईख काटना, गन्ने की पूली को उठाकर लाना, गेंहू के मौसम में गेंहू काटना। दूसरों के खेतों में काम करने की वजह से कभी नियमित तौर पर स्कूल जा ही नहीं पाई। घर के नाम पर सिर्फ ईंटों का जमघट था। घर में न तो बिजली थी और न ही स्मार्टफोन की लत। हम तीन बहनें और एक भाई मेहनत करते। पिता का साया बचपन से ही हमारे सिर से उठ गया। पिता का सुख क्या होता है, ये हमने बचपन से जाना ही नहीं। मां के साथ मेहनत मजदूरी करके पेट पाला। ऐसे ही घास-फूस की तरह हम बड़े हो गए।
‘प्रतियोगिताओं में नहीं जा पाई क्योंकि पैसे नहीं थे’
जब पापा जिंदा थे तब बड़ी बहन की शादी कर दी गई। जब मुझसे बड़ी दूसरी बहन की शादी हुई तो मां पर कर्ज हो गया। उसे उतारने के लिए खतों की मजदूरी काफी नहीं थी। इसलिए सबसे बड़ी बहन के घर नोएडा आना पड़ा। यहां एक कंपनी में काम किया। इसी बीच कॉलेज में दाखिला कराया, लेकिन नोएडा से बुलंदशहर रोज आना जाना मुश्किल था, पर फिर भी बीए पास किया। स्कूल और कॉलेज के दौरान खेल की प्रतियोगिताओं में जाने का मौका मिलता तो उसे छोड़ती नहीं। खेल में तेज थी और कई बार ईनाम भी पाए।
नौकरी और बीए साथ-साथ किया। ये सब इसलिए कर रही थी ताकि मां की मदद कर दूं और कर्ज निपट जाए।
‘रिश्तेदार ने दिखाया आगे का रास्ता’
नोएडा में काम करते हुए ही मेरे एक रिश्तेदार जिनका नाम सतबीर है, ने मुझे कहा कि मीनू कुछ ऐसा कर जिससे तुझे भी जिंदगी पर गर्व हो। उसके बाद उन्होंने कहा कि तुम दौड़ती अच्छा हो, इसी में करिअर बनाओ। उन्होंने मेरी ट्रेनिंग शुरू करवाई और मैं जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में दौड़ने पहुंच गई। यहां से दौड़ का ट्रैक अपना फिर वो बुलंदशहर की ओर वापस नहीं मुड़ा। फिर मैं धर्मशाला, ऊटी कई राज्यों में गई।
2016 में धर्मशाला में इंडिया कैंप में जाने का मौका मिला। वहां साथियों ने कहा कि राजस्थान में सब-इंस्पेक्टर के फॉर्म निकले हैं, उन्हें भर दो। मैंने ये फॉर्म भरा और स्पोर्ट्स कोटे से 2017 में जयपुर में पोस्टिंग मिली।

बचपन से दौड़ना पसंद था : मीनू प्रजापति
बचपन से दौड़ना पसंद था : मीनू प्रजापति

‘…जब पहली बार में मिली हार’
ऐसा नहीं है कि मेरी जिंदगी की ये पहली कोशिश थी। इससे पहले भी 2015 में दिल्ली में मैं बीएसएफ का ट्रायल देने गई थी। इस नौकरी से मुझे ज्यादा उम्मीदें थीं। तब मां भी बताती थीं कि लड़की को गांव से बाहर भेज दिया है। उसे वापस बुला लो नहीं तो भाग जाएगी। मम्मी को पीछे से ज्यादा सुनने को मिलती थी। मैं उन लोगों की बातों को नजरअंदाज करके मेहनत करती रहती। मेरे कोच साहब भी मुझे बहुत मोटिवेट करते। बहुत मोटिवेशन के बाद भी मेरा सिलेक्शन इस नौकरी में नहीं हुआ तो मन बिखर गया। रातें काटना मुश्किल हो गया, लेकिन फिर खुद को समेटा और फिर उड़ान भरने के लिए हाथ-पैर मारने लगी। मेरे मन में ये ही था कि मेरी ख्वाहिश की नौकरी मिले या न मिले, लेकिन एक बार इंडिया पीछे लिख जाए। पर एसआई की नौकरी मिलकर दोनों ही सपने पूरे हो गए।
‘शादी के बाद प्रतियोगिताओं पर लगा ब्रेक’
अभी तक तो मैं खुद को प्रूव करने की कोशिश ही कर रही थी और थोड़ी सफलता पाई ही थी कि 2019 में शादी कर दी गई। इसी साल मैंने जिंदगी की बेस्ट दौड़ जो पांच हजार मीटर थी, वो लगाई। तब मेरी सिर्फ 24 थी और मैं मां से कह रही थी कि मेरी अभी उम्र नहीं शादी की उम्र नहीं है। 2019, 2020, 2021 ये तीन साल ऐसे निकल गए हैं कि कोई मेडल नहीं ले पाई हूं और इस बात का मुझे बहुत दुख होता है। अब लगता है कि मैंने शादी का डिसिजन गलत लिया था। मेरे ससुराल वाले बहुत अच्छे हैं, वो किसी काम के लिए मना नहीं करते, लेकिन खुद के ऊपर बहुत सी जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। जिनके बाद आप किसी को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते।

मजदूरी करके पेट पाला, लेकिन हार नहीं मानी।
मजदूरी करके पेट पाला, लेकिन हार नहीं मानी।

‘अब कई राज्यों में जा चुकी हूं’
मैं इंटरनेशनल खिलाड़ी हूं। 2018 में ओपन नेशनल में सेकेंड मेडल 10 हजार मीटर की दौड़ में था। 2019 में वर्ल्ड पुलिस फायर गेम्स भी खेला, जिसमें तीन मेडल मिले।
एक लड़की जो किसी छोटे से गांव में रहती थी, आज वो अपने काम की वजह से देश के कई राज्यों में घूम चुकी है। गांव से निकल शहरों को लोगों को देखना अच्छा लगता था। बहुत बार तो स्टेडियम में किसी से बात करने का कॉन्फिडेंस भी नहीं था, लेकिन आज किसी से भी खुलकर बात कर सकती हूं। मेहनत से घबराती नही हूं। अभी भी ऊटी में फेडरेशन कप की तैयारी कर रही हूं।
‘अपने सपनों के लिए मेहनत करें’
अब ऐसे ही आगे बढ़ते जाना है। जिन लोगों के सपोर्ट से आज यहां तक पहुंची हूं, उन्हें जीवन मं कभी नहीं भूलूंगी। बाकी लड़कियों को यही कहना चाहूंगी कि अपने सपने अपने हिसाब से बुनो और फिर उन्हें पूरा करो।

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