पहली बार पंजाब के चुनाव मैदान में किसान ….. किंग बनेंगे या किंग मेकर; 77 सीटों पर प्रभावी वोट बैंक; ग्रामीण इलाकों में राजनीतिक दलों की चुनौती बढ़ी

पंजाब चुनाव में पहली बार किसान राजनीतिक मैदान में हैं। किसान आंदोलन की सफलता के बाद 22 संगठनों ने संयुक्त समाज मोर्चा बनाया है। जिसके जरिए वह 117 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। पंजाब की 117 में से 77 विधानसभा सीटों पर किसान वोट बैंक प्रभावी है।

यह सभी सीटें ग्रामीण या शहरी-ग्रामीण हिस्से वाली हैं। ऐसे में बड़ा सवाल है कि पंजाब में किसान राजनीतिक किंग या फिर किंग मेकर बनेंगे। किसान आंदोलन के वक्त मिले सपोर्ट से सभी राजनीतिक दलों में किसानों के चुनाव लड़ने के ऐलान से हड़कंप जरूर मचा हुआ है।

पंजाब में किसानों की पैठ गहरी

पंजाब की इकॉनमी कृषि आधारित है। 75% आबादी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर कृषि से जुड़ी है। प्रत्यक्ष तौर पर जुड़े लोगों की बात करें तो इसमें किसान, उनके खेतों में काम करने वाले मजदूर, उनसे फसल खरीदने वाले आढ़ती और खाद-कीटनाशक के व्यापारी शामिल हैं। खेती के जरिए यह सभी लोग एक-दूसरे से सीधे जुड़े हुए हैं।

इनके साथ ट्रांसपोर्ट इंडस्ट्री भी जुड़ जाती है। आढ़तियों से फसल खरीदकर आगे सप्लाई करने वाले ट्रेडर्स और एजेंसियां भी खेती से ही जुड़ी हुई हैं। अगले फेज में शहर से लेकर गांव के दुकानदार भी किसानों से ही जुड़े हैं। फसल अच्छी होती है, तो फिर किसान खर्च भी करता है। इसके जरिए कई छोटे कारोबार भी चलते रहते हैं।

पंजाब की राजनीति में किसान की ताकत

पंजाब में कुल 117 विधानसभा सीटों में 40 अर्बन, 51 सेमी अर्बन और 26 पूरी तरह से अर्बन सीटे हैं। सिर्फ 40 सीटें ही ऐसी हैं, जहां शहरी वर्ग का ज्यादा वोट बैंक है। बाकी 77 सीटों पर ग्रामीण या सीधे तौर पर किसान वोट बैंक का दबदबा है। यहां किसान का वोट ही हार-जीत का फैसला करता है।

पंजाब माझा, मालवा और दोआबा यानी तीन हिस्सों में बंटा है। मालवा में 69, माझा में 25 और दोआबा में 23 सीटें हैं। सबसे ज्यादा सीटों वाले मालवा एरिया किसानों का गढ़ है। पंजाब के चुनाव में यही इलाका निर्णायक भूमिका निभाता है। दोआबा में दलित वोटें ज्यादा हैं लेकिन माझा में सिख वोट बैंक अधिक है। जिनकी सहानुभूति का फायदा भी किसानों को मिलेगा।

आंदोलन खत्म होने के बाद 25 दिसंबर को किसानों ने पंजाब चुनाव लड़ने का ऐलान किया।
आंदोलन खत्म होने के बाद 25 दिसंबर को किसानों ने पंजाब चुनाव लड़ने का ऐलान किया।

किसानों की एंट्री का पंजाब में राजनीतिक दलों के सियासी गणित पर असर..

शिरोमणि अकाली दल (बादल) : अकाली दल खुद को पंथक पार्टी कहती है। जिसका कोर वोट बैंक ग्रामीण सिख हैं। किसान चुनाव लड़ रहे हैं तो गांवों में अकाली दल का वोट बैंक बंटेगा। अकाली दल पहले ही कृषि कानून का समर्थन कर घिर चुका है। बाद में हरसिमरत बादल ने केंद्र सरकार से इस्तीफा दिया। सुखबीर बादल ने गठजोड़ तोड़ा लेकिन किसान उन्हें स्वीकार नहीं कर पाए। भाजपा से गठजोड़ तोड़ने के बाद अकाली दल को शहरी वोट बैंक में संघर्ष करना पड़ रहा है।

कांग्रेस : पार्टी प्रधान नवजोत सिद्धू और CM चरणजीत चन्नी की जोड़ी के लिए यह बड़ा झटका है। संगठन और सरकार में सिख चेहरे से पहले ही पार्टी का जातीय गणित बिगड़ा हुआ है। कांग्रेस के पास शहरों में कोई कद्दावर चेहरा नहीं है। कांग्रेस पहले आंदोलन और फिर किसान स्मारक, कर्ज माफी, मुआवजे के मुद्दे पर किसानों को रिझा रही थी लेकिन अब सब छिन गए।

AAP : आम आदमी पार्टी का आधार भी गांवों में ज्यादा है। पिछली बार उनकी 20 सीटों में अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों से ही थी। किसान खुद चुनाव लड़ रहे तो उनके लिए झटका है। हालांकि अगर चर्चा के हिसाब से उनका किसानों से गठजोड़ हो जाता है तो फिर ग्रामीण क्षेत्रों में आप के लिए यह फायदेमंद साबित होगा।

BJP : किसानों का राजनीति में आना भाजपा के लिए नुकसानदेह और फायदेमंद दोनों है। फायदा यह कि भाजपा अब खुलकर कहेगी कि किसान शुरू से ही राजनीति कर रहे थे। यह बात शहरी वर्ग में भुनाएगी। वहीं, किसानों का शहरों में ज्यादा आधार नहीं, ऐसे में वहां भाजपा इसका लाभ उठा सकती है। नुकसान यह है कि किसान आंदोलन के जख्म चुनाव होने तक हरे रहेंगे। जो पार्टी को नुकसान पहुंचाएंगे। गांवों में थोड़ी-बहुत पहुंच की आस वाली भाजपा को इससे झटका लगा है।

कैप्टन अमरिंदर सिंह : पंजाब लोक कांग्रेस बनाने वाले पूर्व CM कैप्टन अमरिंदर सिंह का गांवों के साथ शहरों में अच्छा रसूख है। कैप्टन के किसान नेताओं से भी अच्छे रिश्तों को लेकर चर्चा में रहे हैं। यह चर्चा थी कि किसान कैप्टन को फायदा पहुंचाएंगे। लेकिन अब किसान खुद ही चुनाव लड़ रहे हैं तो कैप्टन को झटका लगा है। शहरों में जरूर कैप्टन फायदे में रहेंगे क्योंकि वहां वह BJP के साथ मिलकर लड़ रहे हैं।

कृषि किसानों का सबसे बड़ा मुद्दा, केंद्र और राज्य सरकार सवालों के घेरे में

पंजाब में फिलहाल कृषि ही किसानों का सबसे बड़ा मुद्दा है। वह पंजाब में कृषि को फायदेमंद बनाने का दावा कर रहे हैं। इसके अलावा पंजाब में रेत और शराब माफिया का मुद्दा भी किसान उठा रहे हैं। किसानों का कहना है कि इन दोनों चीजों पर पारंपरिक राजनीतिक दलों ने कब्जा कर रखा है।केंद्र सरकार भी सवालों के घेरे में है, क्योंकि एक साल तक किसान आंदोलन चला, जिसमें करीब 700 किसानों की मौत हुई। उसके बाद कृषि कानून वापस हुए लेकिन MSP पर कानूनी गारंटी की कमेटी अब तक नहीं बनी। किसानों पर दर्ज केस भी अभी वापस नहीं लिए गए हैं। यह मुद्दे पंजाब में भाजपा की मुश्किलें बढ़ाएंगे।

आंदोलन के बीच ही गन्ने का रेट बढ़ाने पर किसान नेताओं ने कैप्टन का मुंह मीठा कराया था।
आंदोलन के बीच ही गन्ने का रेट बढ़ाने पर किसान नेताओं ने कैप्टन का मुंह मीठा कराया था।

इसके अलावा पंजाब की कांग्रेस सरकार भी कर्ज माफी को लेकर किसानों के निशाने पर है। 2017 में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस के सीएम कैंडिडेट के तौर पर पूर्ण कर्ज माफी का वादा किया था। जिसमें सरकारी बैंकों ही नहीं बल्कि आढ़तियों तक का कर्ज माफ करने का वादा था लेकिन अभी तक यह पूरा नहीं हो सका है। कैप्टन के हटने के बाद CM बने चरणजीत चन्नी ने किसानों से 2 बार मीटिंग की, लेकिन अभी तक कर्ज माफी नहीं हुई। उलटा सीएम चन्नी ने केंद्र को इसके लिए योजना बनाने की मांग कर डाली

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