औरत CEO है तो करियर की भूखी, फैशनेबल है तो चरित्र की हल्की; अगर नेता है, फिर तो मर्द अंगारों पर लोट पड़ते हैं

साल 2013 की बात है, ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड में एक राजनैतिक पार्टी ने इवनिंग पार्टी दी। लिबरल नेशनल पार्टी की उस शानदार दावत में भुने हुए गोश्त की दर्जनों किस्में थीं। हर टेबल पर मेन्यू भी था, ताकि मेहमान अपनी पसंद का खाना ले सकें। इसी मेन्यू में एक खास डिश थी, जिसका नाम था- जूलिया गिलर्ड फ्राइड क्वेल (बटेर)। डिश की खूबी ये बताई गई कि पक्षी के छोटे ब्रेस्ट और मांसल जांघें धीमी आंच में भुनकर जन्नत का स्वाद देती हैं। व्यंजन तो बटेर से बना था, फिर उसका नाम जूलिया गिलर्ड क्यों! तो बता दें कि जूलिया ऑस्ट्रेलिया की पूर्व प्रधानमंत्री थीं, जिनके शरीर की बुनावट कुछ इसी तरह की थी।

कार्यकाल खत्म होने पर जूलिया ने अपनी आखिरी स्पीच में उस मेन्यू का जिक्र किया। भरभराई आवाज। रोना रोकने की कोशिश में होंठ भिंचे हुए। स्पीच के साथ ऐसी खलबली मची, जैसे गोविंदा के हंसोड़ गानों के बीच सिनेमा हॉल में बम फट जाए। बिलबिलाकर बाहर निकली विरोधी पार्टियों ने जूलिया पर ‘जेंडर वॉर’ छेड़ने का आरोप लगा दिया। उनमें गुस्सा था कि जूलिया के बयान से अच्छी-भली औरतें शक्की बन जाएंगी।

रोशन-ख्याल ऑस्ट्रेलियाई नेताओं के पास डरने के कई कारण भी थे। सुनहरे-लाल बालों वाली जूलिया अपने बॉयफ्रेंड के साथ रहती थीं, बॉयफ्रेंड भी कौन- किसी शानदार इमारत में फाइलों पर दस्तखत करने वाला नहीं, बल्कि बालों की कटाई-छंटाई करने वाला ‘मामूली’ आदमी। जूलिया की तब कोई औलाद नहीं थी। इस पर भी उन्हें घेरा गया कि वे मुल्क की स्त्रियों के लिए गलत उदाहरण रख रही हैं। इसी बीच उनके पिता की हार्ट-अटैक से मौत हो गई।

पिता के जाने पर सिसकती बिटिया को किसी ने दुलारा नहीं, बल्कि मशहूर रेडियो ब्रॉडकास्टर एलन जोन्स ने दावा कर डाला कि मौत की वजह दिल का दौरा नहीं, बल्कि बेटी के कारण उपजी शर्मिंदगी थी। पिता शर्मिंदा था क्योंकि उसकी राजनेता बेटी एक हेयर ड्रेसर से प्यार करती थी और बच्चे पैदा करने को राजी नहीं थी। इस आरोप पर जूलिया ने इतना भर कहा- ‘मेरे पिता शर्मिंदगी से नहीं मरे। उन्हें अपनी बेटी पर हमेशा गर्व रहा’।

महिला नेता को कटघरे में लेने वाले ये लोग ऑस्ट्रेलिया तक ही सीमित नहीं, हिंदुस्तान में भी उनके भाई-बंधु बिखरे पड़े हैं। जैसे बबूल का बुढ़ाता पेड़ रात होते ही भूतहा दिखने लगता है, वैसे ही ये लोग भी सठियाए बबूल की तरह औरतों पर अपने खौफ का चंवर डुलाते रहते हैं।

औरत अगर किसी कंपनी में CEO है, तो करियर की भूखी। अगर कंघी-दर्पण में खोई हो, तो चरित्र की हल्की। और अगर नेता है, तब तो रूठे राजा अंगारों पर ही लोट पड़ते हैं।

लंदन में एक दुकान है- वन पाउंड शॉप। जैसा कि नाम से जाहिर है, वहां बर्थडे कैंडल से लेकर कपड़े तक हर माल 1 पाउंड में मिलता है। सस्तेपन के कद्रदान वहां ऐसे जुटते हैं कि खून-खच्चर मच जाए, लेकिन उस दुकान का सस्ता माल भी हमारी सस्ती सोच के आगे कीमती दिखता है। फिलहाल हम देसी महिला लीडरों पर चवन्नी-छाप जुमलेबाजी में मगन हैं।

अर्चना गौतम हमारी टारगेट लिस्ट में सबसे ऊपर हैं। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में हस्तिनापुर से खड़ी अर्चना मॉडल रह चुकी हैं। अब सोशल मीडिया पर सवाल हो रहे हैं कि बिकिनी पहन चुकी यह लड़की लीडर कैसे बन सकेगी! सवाल ठीक ऐसा है, जैसे पूछा जाए कि कोट-पैंट डाले पुरुष खेती-बाड़ी कैसे कर सकता है, या फिर मिनी स्कर्ट पहनी औरत संतान को जन्म कैसे दे सकेगी!

बिकिनी पर कसते तमंचों के बीच एक सवाल ये भी आता है कि क्या साड़ी पहनने पर हम औरतों की लीडरशिप आपको सुहा पाती है! देश में तमाम महिला लीडर्स साड़ीदार हैं और बहुतेरी बाल-बच्चेदार भी। उनके साथ ये पुछल्ला लटका रहता है कि जब वे नेतागिरी करती होती हैं तो उनके बच्चों को कौन संभालता है!

हाल ही में कांग्रेस की जनरल सेक्रेटरी प्रियंका गांधी का वीडियो वायरल हुआ। इसमें वे एक सवाल के जवाब में बता रही हैं कि कैसे घंटों चुनाव प्रचार के बाद वे घर लौटकर आधी रात तक बच्चों का होमवर्क कराती हैं। देश की युवा आबादी में बेहद लोकप्रिय इस महिला नेता के लिए कतई जरूरी नहीं था कि वे होमवर्क पर आए सवाल का ऐसा जवाब दें।

कामकाजी मांएं जानती हैं कि दफ्तर से लौटकर दूसरे कामों के बीच बच्चों का होमवर्क कराना मुश्किल होता है। प्रियंका अगर यही बात कहतीं तो खराब मां नहीं बन जातीं। न ही इससे उनके वोटबैंक पर असर होता, लेकिन उनपर घरेलूपन का दबाव था। कोई हैरानी नहीं, अगर कल को एक सवाल ये भी आ जाए कि संडे को सबके लिए नाश्ते में वे क्या-क्या पकाती हैं।

नेता हो, बेशक रहो, लेकिन औरत होने का फर्ज भूले बगैर। जनानेपन का ये दबाव भारत से लेकर अमेरिका तक सीधी लकीर की तरह चलता है। पूर्व अमेरिकी प्रेसिडेंट डोनाल्ड ट्रंप ने साल 2015 में विपक्षी नेता हिलेरी क्लिंटन को घेरते हुए कहा था- ‘अगर हिलेरी अपने पति को संतुष्ट नहीं कर सकीं तो उन्हें कैसे लगता है कि वे अमेरिका को संतुष्ट कर सकेंगी?’

चार्ल्स डार्विन ने सालों की माथापच्ची के बाद इवॉल्यूशन की थ्योरी दी थी, जिसके मुताबिक वक्त के साथ इंसानी शरीर के साथ दिमाग भी बढ़ा। हालांकि डार्विन अपनी थ्योरी में ये नहीं देख पाए कि हमारे दिमागों का एक हिस्सा लगातार सिकुड़ भी रहा है। इस खुफिया कोने तक तरक्की की कोई हवा नहीं पहुंच सकी। ये मानता है कि रसोई जनाना राजधानी है, शादी मकसद और मां बनना उनका मजहब।

हद तो ये है कि ख्यालों में भी हम स्त्री को घरेलू रोल में ही देखते हैं। चांद पर अगर बुढ़िया बसती है तो वो चरखा ही कातेगी, या भात ही रांधेगी। उसे चांद जैसी रहस्यमयी जगह पर सैर-सपाटे का कोई चाव नहीं, लेकिन ये हमारी कल्पना है।

हमारे दिमागों के झुर्रीदार कोने की उपज। क्या पता, असल में वो बुढ़िया कपास की बजाय सपने कात रही हो, उस आकाशगंगा के जहां धरती समेत हर ग्रह में बराबरी हो, और खुशहाली हो! जहां महिला लीडर से नाश्ते की रेसिपी या बच्चे की नैपी जैसे सवालों की बजाय इस पर बहस हो कि जीत के बाद वे क्या काम करेंगी।

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