राजनीति से कतराने वाला मध्यम वर्ग बाहर निकले … नया विचार बदलाव सिर्फ ऊपर से फरमान देने से नहीं आता, प्रेशर नीचे से भी पड़ना चाहिए

आजकल मुंबई और गुरुग्राम में इमारतें आसमान चूम रही हैं। अपनी बालकनी में चाय पीते-पीते इन बिल्डिंगों के वासियों को आम आदमी की दुनिया से कोई लेना-देना नहीं। भाई सब कुछ परिसर में ही उपलब्ध है। क्लबहाउस, स्विमिंग पूल, फिसलपट्‌टी-झूले, किराने की दुकान और कुछ में तो स्कूल भी। इन्हें कहा जाता है ‘गेटेड कम्युनिटी’ यानी कि फाटक के अंदर जो लोग रहते हैं, जिन्होंने पैसे देकर फ्लैट खरीदा है, सुविधाएं उन्हीं को उपलब्ध हैं। तो फिर सवाल उठता है- आम जनता का क्या? उन्हें भी तो खेलने-कूदने, टहलने-फिसलने के साधन चाहिए। जिन्हें हम जानते हैं ‘पब्लिक पार्क’ के नाम से।

शांत वातावरण और खुली हवा से जहां जनता को सुकून मिलता है, वहीं कुछ ऐसे लोग हैं, जिनके दिमाग में हलचल मचती है। इन्हें कहा जाता है ‘नेता।’ ये महानुभाव सैर करते हुए भी मन में कैलकुलेशन कर रहे हैं कि इस बगीचे में एक प्रोजेक्ट शुरू कर दूं, तो कितनी कमाई होगी। कुछ समय पहले, मेरे घर के बगल के उद्यान में कुछ ऐसा ही हुआ। एक दिन, मॉर्निंग वॉकर्स ने देखा कि बगीचे के बीचों-बीच कंस्ट्रक्शन शुरू हो गया है। पूछताछ की तो पता चला कि हमारे कॉर्पोरेटर साहब हमारे भले के लिए वातानुकूलित लाइब्रेरी बना रहे हैं। ताकि हम वहां सीमेंट-कांक्रीट के कमरे में बैठकर अखबार पढ़ सकें।वैसे तो हमारा मध्यमवर्गीय नागरिक किसी भी प्रोटेस्ट में शामिल होना नहीं चाहता। लेकिन ये प्रोजेक्ट इतना फिजूल था कि बर्दाश्त के बाहर। विरोध करने वाले मुख्यतया सफेद बालों वाले रिटायर्ड साइंटिस्ट थे, कुछ नौजवान भी।

थोड़ी नारेबाजी हुई, लोकल न्यूज चैनल्स ने सेगमेंट भी टेलीकास्ट किया। मगर कंस्ट्रक्शन का काम बेशर्मी से चलता रहा।असल में नेता मोटी चमड़ी के होते हैं। इस प्रोजेक्ट का मकसद क्या था? पब्लिक फंड्स में हाथ डालकर अंगुलियां चाटना। 4-5 लाख के काम को 20-25 लाख का बता दो, कौन चैलेंज करेगा? खैर, इस कहानी का ‘द एंड’ तब हुआ, जब कुछ वरिष्ठ नागरिक म्युनिसिपल कमिश्नर तक गए। और उन्होंने काम पर रोक लगाई। इस बात को दो-तीन साल हो गए। लेकिन अब भी वो आधी-अधूरी ज़ंग भरी कंस्ट्रक्शन याद दिला रही है, किस तरह सार्वजनिक संपत्ति का कब्जा होते-होते बच गया। वो इसलिए कि हम सबने आवाज़ उठाई, और सि‌र्फ वर्चुअल फोरम में नहीं।

वहां खड़े होकर विरोध किया। और जब तक जीत नहीं मिली, जिद पर अड़े रहे।ये बस एक छोटा-सा उदाहरण है। हमारे आसपास ना जाने कितने फिजूल प्रोजेक्ट मंजूर होते हैं। हम आंख बंद करके बैठे हैं। भाई, अपनी जिंदगी, अपने काम में व्यस्त हैं। बात लाखों की नहीं, करोड़ों में होती है। मुंबई में कोस्टल रोड का निर्माण एक ऐसा उदाहरण है। 14 हजार करोड़ की लागत से बन रही एक चिकनी-चुपड़ी सड़क, जबकि आम सड़कों की ऊबड़-खाबड़ अवस्था देखने लायक है। कमर टूट जाए पर गड्ढे न भर पाएं। क्योंकि बार-बार रिपेयर करने में ही तो कमाई है। इसी सड़ी-गली मानसिकता की वजह से आज हर भारतवासी को सिर झुकाकर चलना पड़ रहा है।

एक तरफ मंगलयान और चंद्रयान बनाने वाला देश। एक अरब से अधिक लोगों को वैक्सीन पहुंचाने वाला देश। गणतंत्र दिवस पर ड्रोन प्रदर्शन करने वाला देश। दूसरी तरफ फुटपाथ-हीन, शहर ‘नॉट क्लीन’ वाला देश। विदेश यात्रा के दौरान हर भारतीय के मन में बस यही सवाल उठता है- अगर इनके शहर सुंदर हो सकते हैं, तो हमारे क्यों नहीं?हां, स्वच्छ भारत अभियान से कुछ फर्क पड़ा है। खासकर इंदौर-भोपाल जैसे शहरों में। मगर बदलाव सिर्फ ऊपर से फरमान देने से नहीं आता।

प्रेशर नीचे से भी पड़ना चाहिए। वो मध्यम वर्ग जो राजनीति से कतराता है, उसे लोकल एडमिनिस्ट्रेशन में रुचि लेनी होगी।मेरा सुझाव है कि हर कॉलोनी में जो पढ़े-लिखे रिटायर्ड लोग हैं, उन्हें ये दायित्व संभालना चाहिए। आप बुजुर्ग नहीं, अनुभवी हैं। और आज भी हमारे समाज में सफेद बालों का सम्मान किया जाता है। अगर आप हर हफ्ते कॉर्पोरेटर के ऑफिस में जाकर सवाल पूछेंगे, उन्हें जवाब देना होगा।अपने कंफर्ट ज़ोन से निकलकर कुछ कीजिए। आने वाली पीढ़ियों को तोहफा दीजिए कि वो सच्चे दिल से कह सकें- ‘प्राउट टु बी इंडियन।’ (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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