पक्षियों के संरक्षण के लिए दाना पानी फॉर बर्ड्स की टीम बाल-भवन में बच्चों को सेकड़ो सकोरे बाटे

ग्वालियर.  बाल भवन में पक्षियों के संरक्षण हेतु दाना पानी का किया गया। दाना पानी फॉर बर्ड्स के संयोजक राज चड्डा स्केटिंग करने बच्चों को बताते है प्यासे पछियो के लिए आप सभी दाना पानी करना व मम्मी पापा से भी करने के लिए कहना,निमीश पाराशर जूतों के डिब्बे से चिडियों के लिए सभी बच्चों को घर बनाना सिखाया व सभी टीम के सदस्य बच्चों टीम सकोरे देती है, पहल के बारे में चड्डा जी बताते है एक समय था जब घर घर में गौरैया  थी लेकिन समय के साथ पक्के मकानों और कम होते जंगलों के कारण गौरैया के कुनबे भी कम हो गए, जिसका असर पर्यावरण पर भी पड़ रहा है। ऐसे में आंखों से ओझल हो रही गौरेया को बचाने के लिए ‘दाना पानी फॉर बर्ड्स ’नाम की पहल शुरू की गयी है। गैर सरकारी संस्था दाना पानी फॉर बर्ड्स पिछले 8 बर्षो से पंछियों के संरक्षण के लिए काम कर रही है, गौरैया की घटती संख्या के कुछ मुख्य कारण हैं, भोजन और जल की कमी, घोंसलों के लिए उचित स्थानों की कमी तथा तेजी से कटते पेड़-पौधे है, एक अध्ययन के अनुसार भारत में गौरैया की संख्या में करीब 60 फीसदी की कमी आई है। हैरानी की बात ये भी है कि यह कमी ग्रामीण और शहरी,  दोनों ही क्षेत्रों में हुई है।  हमारी टीम द्वारा शुरू की गयी इस सार्थक पहल को लोगो को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाना होगा तभी आने बाले समय में स्वस्थ पर्यावरण मिल सकता है और विलुप्त हो रही चिड़िया फिर से वापस आ सकती है

दाना पानी टीम के सदस्य व शराब बंदी आन्दोलन के संयोजक शुभम चौधरी कहते है सत्ता में बैठे लोगों में शायद ही कोई ऐसा हो, जो पशु के प्रति संवेदनशील नजरिया रखता-पक्षियों हो, उनके बारे में कुछ जानकारियां रखता हो, उन्हें पहचानता हो। इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जितनी भी प्रशंसा की जाए, वह कम है। एक बार भरतपुर प्रवास के दौरान उन्होंने केवलादेव पक्षी विहार में तकरीबन 80 चिड़ियों को उनके नाम से पहचानकर सबको चौंका दिया था। हमारे यहां ‘दाना पानी फॉर बर्ड्स ’ के संयोजक राज चड्डा अकेले ऐसे शख्स हैं, जो बीते 8 वर्षो से गौरैया को बचाने के अभियान में लगे हैं। देखा जाए, तो गौरैया को बचाने के आज तक किए गए सभी प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। ‘हेल्प हाउस स्पैरो’ नाम से समूचे विश्व में चलाए जाने वाले अभियान में हमारी सरकार की ओर से कोई सकरात्मक पहल नहीं की गई। यहां तक कि गौरैया को बचाने की दिशा में सरकार ने न कोई कार्यक्रम बनाया और न ही बाघ, शेर, हाथी की तरह कोई प्रोजेक्ट बनाने पर ही विचार हुआ। देश में पहले ही जीवपक्षियों की हजारों प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट है, उसमें गौरैया और शामिल हो जाएगी, तो सरकार पर कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं। मगर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का तो यह राजकीय पक्षी है। दुख यह है कि इस बारे में सब मौन है। ऐसे में, गौरैया आने वाले समय मे सिर्फ किताबों में रह जाए इसलिए हम सब अपने स्थर पर दाना पानी का कार्यक्रम कर रहे है।

 

टीम के सदस्य डॉ.निलेश शर्मा  बताते है मॉडर्न टेक्नोलॉजी ने भी गौरैया का बहुत नुकसान किया है। मोबाइल टॉवरों का रेडिएशन भी चिड़िया के लिए बहुत खतरनाक होता है। चिड़िया कई बार उसी में मर जाती हैं। उसका रेडिएशन चिड़िया के लिए बहुत खतरनाक होता है। पर्यावरण मंत्रालय के मुताबिक मोबाइल टावर के रेडिएशन से पक्षियों पर बहुत ही बुरा असर पड़ रहा है। इसलिए इस मंत्रालय ने टेलिकॉम मिनिस्ट्री को एक सुझाव भेजा है। जिसमे एक किमी के दायरे में दूसरा टावर ना लगाने की अनुमति देने को कहा गया है और साथ ही साथ टावरों की लोकेशन व इससे निकलने वाले रेडिएशन की जानकारी सार्वजनिक करने को भी कहा गया है, जिससे इनका रिकॉर्ड रखा जा  सके। परंतु सरकार का किसी सुझाव पर कोई ध्यान नहीं है।

 

ग्वालियर के रहने वाली पक्षी प्रेमी श्रीमति सीमा शर्मा कहती है कभी मेरे घर भी आना गौरैया, कहां गई गौरैया? क्यों नहीं दिखती गौरैया? सवाल और भी हैं। सवाल सबके लिए हैं। हम पहली बार जिस पक्षी से परिचित हुए थे, वह गौरैया थी। जिस पक्षी के लिए आंगन में अनाज के दाने बिखेरे जाते थे, वह थी गौरैया। लोकगीतों में जिस पक्षी का वर्णन सबसे पहले और ज्यादा मिलता था, वह थी गौरैया। लेकिन अब हम सबकी प्यारी गौरैया घर आंगन में चहकती नहीं दिखती। यह पर्यावरण का नहीं, संस्कृति का भी संकट है।

नीति चड्डा बताती है जीवनशैली का एक और बदलाव है, जिसने चिड़िया को हमसे दूर किया है। पहले के समय में परचून की दुकानें हुआ करती थीं। उनमें गेहूं की बोरियां होती थीं। चिड़िया आकर उनमें बैठती थी। अनाज के दाने चुगती थी। अब मॉल कल्चर आ गया है। सब कुछ पैक हो गया है। गेहूं भिगोकर आंगन में सुखाने की प्रवृत्ति के ह्रास के चलते गौरैया ने घरों से मुंह मोड़ लिया। हमने उसके रहने और रुकने की जगह भी छीन ली और उसके खाने का सामान भी, तो गौरैया कहां आएगी और क्यों आएगी?

आर्ट ऑफ़ लिविंग के टीचर सुधीर कुशवाह बताते है गौरैया की संख्या सिमटते जाने की एक बड़ी वजह विकसित व विकासशील देशों में बिना सीसा वाले पेट्रोल का चलन है। इनके जलने से उत्पन्न होने वाले मिथाइल नाइट्रेट नामक जहरीले यौगिक से छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़े खत्म हो जाते हैं। ये गौरैया को बेहद प्रिय हैं, जिन्हें वे बड़े चाव से खाती हैं। जब वे उसे खाने को ही नहीं मिलेंगे, तो वे जिएंगी कैसे? बढ़ते शहरीकरण, कंक्रीट की ऊंची इमारतों और जीवन की आपाधापी के बीच आज व्यक्ति के पास इतना समय ही नहीं है कि वह अपनी छतों पर कुछ जगह ऐसी भी छोड़े, जहां पक्षी अपने घोंसले बना सकें। यदि लोग बचे हुए अन्न के दानों को नालियों, सिंक में बहने से बचाएं और उनको छत की खुली जगह पर डाल दें, तो उनसे गौरैया अपनी भूख मिटा सकती है। पर आधुनिक भवन संरचना में दाने सीधे नालियों में गिरते हैं। सिर्फ़ एक दिन नहीं हमें हर दिन जतन करना होगा गौरैया को बचाने के लिए। गौरैया महज एक पक्षी नहीं है, ये तो हमारे जीवन का अभिन्न अंग भी रहा है। बस इनके लिए हमें थोड़ी मेहनत रोज करनी होगी छत पर किसी खुली छावदार जगह पर कटोरी या किसी मिट्टी के बर्तन में इनके लिए चावल और पीने के लिए साफ़ से बर्तन में पानी  रखना होगा। फिर देखिये रूठा दोस्त कैसे वापस आता है।

रिटायर रजिस्टार एच.के.खैगड़ बताते है मैं एक बात मानता हूं कि चींटी से लेकर हाथी तक हर जीव-जंतु जिसे प्रकृति ने बनाया है, वह धरती के संतुलन के लिए जरूरी है। गौरैया भी इन्हीं में से एक है। गौरैया को फिर से बुलाने के लिए लोगों को अपने घरों में कुछ ऐसे स्थान उपलब्ध कराने चाहिए, जहां वे आसानी से अपने घोंसले बना सकें और उनके अंडे तथा बच्चे हमलावर पक्षियों से सुरक्षित रह सकें। उसकी संख्या का धीरे-धीरे कम होते जाना, संतुलन के लिए हानिकारक ही नहीं, हमारे जीवन के लिए खतरनाक भी है। मैं मुंबई में 1995 जाता रहा हूँ। 10-15 साल पहले हर तरफ नजर आती थी गौरैया, अब कहीं नहीं दिखती। तब में और अब में फर्क यह भी आया है कि पहले के समय में आर्किटेक्चर ही ऐसा होता था कि उसमें चिड़िया के लिए भी जगह बनाई जाती थी। झरोखे होते थे, जिनसे चिड़िया घर में आ सकती थी। आले होते थे, जिनमें वह घोंसला बना सकती थी। अब हम घर भी पश्चिम की तर्ज पर बना रहे हैं। सीमेंट के घर बनने से भी काफी नुकसान हुआ है। चारों तरफ से घिरे हुए सीमेंट के घरों की वजह से आजकल के घरों में चिड़िया को जगह नहीं मिल रही, न खेलने के लिए न नहाने के लिए। मैं कुछ समय पहले गुड़गांव गया था, तो मुझे लगा सैन फ्रांसिस्को पहुंच गया हूं। कहीं भारत की कोई छवि ही नहीं थी। हर तरफ कांच की इमारतें। अब हम कांच की इमारतें बनाएंगे, तो चिड़िया कहां से आएगी ! गौरैया की संख्या कम होने के पीछे सबसे बड़े जिम्मेदार आर्किटेक्ट भी हैं। साउथ मुंबई का उदाहरण दूं, तो वहां कई हेरिटेज बिल्डिंगें हैं। वहां जाता हूं, तो गौरैया दिखती हैं। लेकिन बाकी जगह शीशे के बड़े-बड़े टावर हैं, वहां चिड़िया कहीं नजर नहीं आती। हमारे देश के आर्किटेक्ट्स को यह महसूस होना चाहिए कि वे चिड़िया को मार रहे हैं और हमें चिड़िया के लिए कुछ करना चाहिए। गौरैया इतिहास का प्राणी बन न बन जाए और भविष्य की पीढ़ियों को यह देखने को ही न मिले इसलिए लोगों को ऐसे पेड़ों को लगाना चाहिए जहां उनको भोजन भी मिल सके।

कार्यक्रम में प्रमुख रूप से शुभम चौधरी, निमीश पाराशर, सुधीर कुशवाह, नीति चड्डा, सीमा शर्मा, डॉ.निलेश शर्मा, रिटायर रजिस्टार एच.के.खैगड़ सहित सभी सदस्य व सैकड़ो बच्चे समिलित हुए।

इन पक्षियों की प्रजातियों पर है सबसे ज्यादा खतरा :- गौरेया, मैना, तोता, कौआ, उच्च हिमालीय प्रवासी पक्षी आद पक्षियों के संरक्षण के लिए दाना पानी फॉर बर्ड्स की टीम बाल-भवन में बच्चों को 300 सकोरे बाटे –

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