राजनीतिक फंडिंग की काली दुनिया का खुलासा ….

4 साल में इलेक्टोरल बॉन्ड से मिले 9,207 करोड़, ये चंदा कहां से मिला किसने दिया कुछ पता नहीं….

जनवरी 2022 के शुरुआती 10 दिनों में ही राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए SBI से करीब 1,213 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड बिके हैं। इस तरह 2018 से अब तक 4 साल में इलेक्टोरल बॉन्ड से पॉलिटिकल पार्टियों को 9,207 करोड़ रुपए चंदा मिला है। ये पैसा कहां से आया और किसने दिया, इसका कोई अता-पता नहीं है।

एक तरफ जनता को अपनी कमाई और खर्च के लिए पाई-पाई का हिसाब देना होता है। दूसरी तरफ राजनीतिक दलों ने जवाबदेही से खुद को बचाने के लिए एकसाथ कई कानून में ही बदलाव कर दिए हैं।

एक्सपर्ट मानते हैं कि पॉलिटिकल चंदा अब कालाधन बनाने का एक जरिया बन गया है। ऐसे में आज भास्कर इंडेप्थ में समझिए-राजनीतिक दलों को फंडिंग कैसे मिलती है? पॉलिटिकल फंडिंग की पूरी दुनिया कैसे स्याह काली है? इलेक्टोरल बॉन्ड क्या है और आखिर क्यों इस पर सवाल खड़े हो रहे हैं? कैसे कैश और बॉन्ड के जरिए ब्लैक मनी को व्हाइट में बदलने का खेल चल रहा है?

किसी राजनीतिक दल को कैसे मिलती है फंडिंग?
देश की बड़ी राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग में कैसे घपला हो रहा है, इस बात को जानने से पहले यह समझना जरूरी है कि इन्हें कितने तरह से फंडिंग मिलती है। भारत में राजनीतिक दलों के पास फंड जुटाने के 4 तरीके हैं…

  • सीधे लोगों के जरिए
  • कॉर्पोरेट घराने या कंपनियों के जरिए
  • विदेशी कंपनियों के जरिए
  • पब्लिक या सरकारी फंडिंग के जरिए

1. आम लोग 3 तरह से किसी पार्टी को चंदा देते हैं…

  • कैश
  • पार्टी के अकाउंट में पैसा भेजकर
  • इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए

2. कॉर्पोरेट या कंपनी पार्टियों को 2 तरह से चंदा देते हैं…

  • इलेक्टोरल ट्रस्ट के जरिए
  • इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए

3. पब्लिक या सरकारी फंडिंग दो तरह से होती है-

  • डायरेक्ट पब्लिक फंडिंग : सरकार राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए सीधे पैसा देती है। भारत में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं।
  • इनडायरेक्ट पब्लिक फंडिंग : इसमें पार्टियों को सरकारी मीडिया में प्रचार के लिए मुफ्त समय, रैली के लिए फ्री में स्टेडियम, मैदान, कॉन्फ्रेंस हॉल उपलब्ध कराया जाता है।

देश में राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग के सभी तरीकों और उनके जरिए पार्टियों को मिलने वाली रकम का हिसाब-किताब करें तो साफ हो जाता है कि फंडिंग का यह काला खेल मोटे तौर पर 3 तरह से चल रहा है।

पहला- कैश, दूसरा- इलेक्टोरल बॉन्ड और तीसरा- विदेशी कंपनियों से लिया जाने वाला डोनेशन। इनके अलावा कॉर्पोरेट्स के बनाए ट्रस्ट के जरिए मिलने वाली फंडिंग को सबसे आखिर में समझेंगे।

1. सबसे पहले कैश चंदे के गोरखधंधे को जानते हैं

  • कोई भी शख्स 2,000 रुपए से ज्यादा का चंदा कैश में नहीं दे सकता।
  • 2,000 रुपए से ज्यादा का चंदा डीडी, चेक या इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसफर और इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए ही दे सकता है।
  • पहले यह लिमिट 20 हजार रुपए थी, इसे 2018 के एक फाइनेंस बिल के जरिए 2,000 रुपए कर दिया गया।
  • कोई शख्स अगर 20 हजार रुपए से ज्यादा का चंदा देता है तो रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपल्स एक्ट (RPA) 1951 के तहत पार्टी को डोनर का नाम चुनाव आयोग को बताना होता है।
  • 20 हजार से कम चंदा देने पर चंदा देने वाले का नाम बताने की जरूरत नहीं होती है।
  • दिलचस्प बात यह है कि अगर कोई शख्स इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए 20 हजार से ज्यादा का चंदा देता है तो उसका नाम गोपनीय रखा जाता है।

राजनीतिक पार्टियां ऐसे करती हैं कैश को हजम

  • मान लीजिए किसी शख्स ने किसी पार्टी को एक लाख रुपए कैश दिया। रिप्रजेंटेशन ऑफ पीपल्स एक्ट (RPA) के मुताबिक पार्टी को चंदा देने वाले इस शख्स का नाम चुनाव आयोग को बताना होगा, लेकिन ऐसा होता नहीं है।
  • दरअसल, पार्टियां इस कैश चंदे को 2-2 हजार रुपए अलग-अलग चंदे के रूप में दिखा देती हैं और इस तरह उन्हें चंदा देने वालों का नाम बताने की जरूरत नहीं पड़ती।
  • साफ है इस तरह कैश के रूप में मिलने वाली बड़ी से बड़ी रकम को पार्टियां 2-2 हजार रुपए में बांटकर पूरी तरह पचा लेती हैं।
  • मतलब यह कि 2018 में देने चंदा देने की सीमा को 20 हजार से घटाकर 2 हजार करने से कालेधन के खेल पर कोई असर नहीं पड़ा।
  • बदलाव सिर्फ इतना हुआ है कि पहले पार्टियों को बड़ी से बड़ी रकम को 20-20 हजार रुपए में बांटकर दिखाना होता था और अब 2-2 हजार रुपए में बांटकर हजम कर जाती हैं।

निष्कर्ष : साफ है कि राजनीतिक दलों ने कानून का गलत फायदा उठाया और वो ये छुपाने में कामयाब रही हैं कि नगदी के तौर पर मिला चंदा कहां से आया है और किसने दिया। इससे ब्लैक मनी को भी बढ़ावा मिल रहा है।

2. अब बात राजनीतिक चंदे के सबसे बड़े जरिए यानी इलेक्टोरल बॉन्ड की

  • क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड: इलेक्टोरल बॉन्ड एक बियरर चेक की तरह होता है। इस पर न तो बॉन्ड खरीदने वाले का नाम होता है और न ही उस पार्टी का नाम जिसे ये दिया जाना है।
  • कहां और कैसे मिलते हैं इलेक्टोरल बॉन्ड: आमतौर पर केंद्र सरकार जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में 10-10 दिन के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने का समय तय करती है। इसके लिए देश में 29 SBI ब्रांच तय की गई हैं। SBI की ये ज्यादातर ब्रांच प्रदेशों की राजधानी में हैं।
  • केंद्र सरकार लोकसभा के चुनावी वर्ष में 30 दिन का अतिरिक्त समय भी दे सकती है।
  • कौन-कौन खरीद सकता है: कोई भी भारतीय नागरिक, हिंदू अविभाजित परिवार, कोई कंपनी, फर्म, लोगों की कोई एसोसिएशन और कोई एजेंसी। कोई व्यक्ति अकेले या दूसरों के साथ मिलकर भी बॉन्ड खरीद सकता है।
  • कितने-कितने रुपए के बॉन्ड होते हैं: बॉन्ड 5 तरह के होते हैं- 1 हजार, 10 हजार, 1 लाख, 10 लाख और 1 करोड़ ।
  • कौन सी पार्टी इलेक्टोरल बॉन्ड ले सकती है: इसकी दो शर्तें हैं। पहली- रिप्रजेंटेशन ऑफ पीपल्स एक्ट के तहत रजिस्टर्ड पॉलिटिकल पार्टी ही इलेक्टोरल बॉन्ड ले सकती है। दूसरी- इस पार्टी को ठीक इससे पहले हुए विधानसभा या लोकसभा चुनाव में कम से कम 1% वोट मिले हों।
  • साफ है नई और छोटी पार्टियों के लिए यह घाटे का सौदा है।
  • कितने दिनों में कैश किया जा सकता है बॉन्ड: जारी होने के 15 दिनों के भीतर ही बॉन्ड को कैश किया जा सकता है। ऐसा न करने पर यह पैसा प्रधानमंत्री राहत कोष में चला जाता है।
   

इलेक्टोरल बॉन्ड से पार्टियां हजारों करोड़ का गोपनीय चंदा हजम ऐसे हजम करती हैं

  • देश के टॉप 5 राजनीतिक दलों को इन दिनों मिलने वाली फंडिंग में 70% से 80% तक हिस्सा इलेक्टोरल बॉन्ड का होता है।
  • इलेक्टोरल बॉन्ड की खासियत यह है कि इसमें देने वाले का पता नहीं होता है। ऐसे में राजनीतिक दलों को मिलने वाले 70% से 80% चंदे का कोई सोर्स पता नहीं है।
  • यह नियम अनअकाउंटेड मनी यानी काले धन को बढ़ावा देता है। इसका इस्तेमाल राजनीतिक दलों के जरिए अपने पक्ष में नीतियां बनवाने में किया जा सकता है। चंदे देने वाली कंपनी या शख्स का नाम पता नहीं होने पर आम लोगों को पता नहीं चलता कि सरकार ये नीति क्यों बना रही है।
  • इससे पहले कोई भी कंपनी पिछले 3 सालों के अपने शुद्ध मुनाफे के वार्षिक औसत का 7.5% से ज्यादा चंदा राजनीतिक दलों को नहीं दे सकती थी। इलेक्टोरल बॉन्ड के लिए इस बाध्यता को खत्म कर दिया गया है।
  •  
  • यानी राजनीतिक चंदा देने के लिए कंपनी को कम से कम 3 साल पुराना और मुनाफा कमाने वाला होना चाहिए था। अब एक नई और मुनाफा न कमाने वाली कंपनी भी जितना चाहे चंदा राजनीतिक दलों को दे सकती है।
  • इलेक्टोरल बॉन्ड का यह नियम काले धन की हेरफेर करने और फर्जी कंपनी बनाने को बढ़ावा देता है।
  • इलेक्टोरल बॉन्ड में दी गई रकम का जिक्र कंपनी की बैलेंस शीट, इनकम टैक्स रिटर्न, प्रॉफिट-लॉस स्टेटमेंट में तो होता है, लेकिन यह किस पार्टी को दिया गया, इसका जिक्र नहीं होता है।
  • इलेक्टोरल बॉन्ड में दी जाने वाली पूरी रकम पर इनकम टैक्स से 100% छूट मिलती है।
  • इस नियम का इस्तेमाल राजनीतिक दलों के साथ मिलकर इनकम टैक्स में गैरजरूरी छूट लेने के लिए किया जा सकता है।
  • इलेक्टोरल बॉन्ड व्यक्तियों का समूह भी खरीद सकता है, ऐसे में अब धार्मिक संस्थाएं भी इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा दे सकती हैं।

ऐसे में सवाल उठता है कि जनता को अपने आधार और पैन कार्ड के जरिए अपनी कमाई और खर्च का पाई-पाई का हिसाब देना होता है तो राजनीतिक पार्टियों को आखिर क्यों नहीं?

3. अब जानते हैं कि कैसे 2017 में विदेशों से चंदा लेने का रास्ता किया गया साफ
2017 में विदेशी कंपनियों से चंदा लेने का रास्ता साफ करने के लिए सरकार ने पहले से बने 3 प्रमुख कानूनों में बदलाव किए।

पहला- फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगूलेशन एक्ट (FCRA) 2010
दूसरा- फाइनेंस एक्ट का सेक्शन 154
तीसरा- कंपनी एक्ट 2013 का सेक्शन 182

इससे राजनीतिक दलों को विदेश से चंदा लेने के खुली छूट मिल गई।
अब पढ़ते हैं कानूनों में बदलाव की वह कहानी जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट से दोषी पाए जाने के बावजूद किस तरह BJP ने खुद को और कांग्रेस को कानूनी कार्रवाई से बचा लिया…

  • 1976 में FCRA कानून बनाया गया। इसका मकसद राजनीतिक दलों को विदेश से मिलने वाले चंदे को नियंत्रित करना था।
  • 2004 से 2009 के बीच विदेशी कंपनी वेदांता की भारत में रजिस्टर्ड सब्सिडियरी कंपनी ने कांग्रेस और BJP को चंदा दिया।
  • 2010 में FCRA एक्ट 1976 को हटाकर उसकी जगह FCRA एक्ट 2010 लाया गया।
  • 2013 में एक पूर्व IAS अधिकारी ने दिल्ली हाईकोर्ट में चंदा लेने के खिलाफ FCRA 1976 के तहत याचिका दायर की। इस मामले में हाईकोर्ट ने दोनों दलों को दोषी पाया और चुनाव आयोग को एक्शन लेने का आदेश दिया।
  • 2016 में मोदी सरकार ने FCRA 2010 में बदलाव किया। इसके जरिए सरकार ने एक्ट में विदेशी कंपनी की परिभाषा को बदल दिया। मतलब ये कानून तो 2016 में बदला गया, लेकिन इसे लागू 2010 से माना गया।
  • इस तरह सरकार ने खुद को और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस को दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश से बचा लिया।
  • इस बदलाव के बाद सैद्धांतिक तौर पर आज कोई भी ऐसी कंपनी जिसमें 50% से ज्यादा हिस्सा विदेशी कंपनी का है, वह राजनीतिक चंदा नहीं दे सकती है।
  • अगर यह कंपनी किसी ऐसे सेक्टर की कंपनी है जिसमें 70% तक विदेशी कंपनी के इन्वेस्टमेंट की छूट है तो इस सेक्टर से जुड़ी कोई कंपनी चंदा दे सकती है। भले ही उस कंपनी की 51% हिस्सेदारी विदेशी कंपनी के पास हो।
  • 2017 में दिल्ली हाईकोर्ट ने इस बदलाव को अस्वीकार करते हुए सरकार को BJP और कांग्रेस के खिलाफ कार्रवाई के लिए 6 महीने का समय दिया।
  • 2018 में मोदी सरकार ने 1976 से ही FCRA में बदलाव कर दिया। तब से ही विदेशी कंपनियों से लिए गए राजनीतिक चंदे को वैध कर दिया गया।

चंदे के खेल के लिए देश में बनाई गई कई पॉलिटिकल पार्टिंयां
देश में सितंबर 2021 तक 2,829 रजिस्टर्ड पॉलिटिकल पार्टी हैं। देश में रजिस्टर्ड पार्टियों को मुख्यत: दो हिस्से में बांटा गया है। रिकग्नाइज्ड पॉलिटिकल पार्टी और अनरिकग्नाइज्ड पॉलिटिकल पार्टी। 97% अनरिकग्नाइज्ड पॉलिटिकल पार्टियां मुख्य रूप से क्षेत्रीय और छोटे दल हैं। इनके पास कोई निश्चित चुनाव चिह्न नहीं होता है। सभी रजिस्टर्ड पार्टियों को डोनेशन के जरिए चंदा लेने का हक है।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म यानी ADR के संस्थापक जगदीप छोकर का भी कहना है कि भारत में कई दल तो सिर्फ चंदा लेने के लिए बने हैं। यूपी में सितंबर 2021 तक 767 अनरिकग्नाइज्ड पॉलिटिकल पार्टियां थीं, जिनमें से सिर्फ 104 दलों ने अपनी आमदनी और खर्च का हिसाब चुनाव आयोग को दिया।

छोटी पार्टियां कैश के जरिए घालमेल कर रही हैं, जबकि बड़ी पार्टिंयां इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए ब्लैक मनी का घालमेल कर रही हैं। छोकर ने भी माना कि कानून के लूप एंड होल्स का फायदा उठाकर कई छोटी पॉलिटिकल पार्टियां धड़ल्ले से डोनेशन में मिली ब्लैक मनी को व्हाइट में बदल रही हैं।

इलेक्टोरल बॉन्ड को लागू करने के तरीके को ही बताया गलत
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक छोकर ने इलेक्टोरल बॉन्ड को लागू करने के तरीके पर सवाल खड़ा किया है। उन्होंने कहा, ‘इलेक्टोरल बॉन्ड को बजट में शामिल कर लोकसभा में पेश किया गया। बजट मनी बिल होता है, इसलिए राज्यसभा में इस बिल पर कोई बदलाव नहीं हो सकता है।’

उनका मानना है कि सत्ता में बैठी पार्टी वित्त मंत्रालय के जरिए एसबीआई से चंदा देने वालों की पहचान हासिल कर सकती है। जबकि आम आदमी और यहां तक कि चुनाव को आयोग को भी इसकी जानकारी नहीं होगी। इसका इस्तेमाल सरकार अपने विपक्षियों को मिलने वाले चंदे को प्रभावित कर उन्हें आर्थिक तौर पर कमजोर करने और दबाने के लिए कर सकती है। इलेक्टोरल बॉन्ड का सबसे ज्यादा फायदा बड़े दलों को मिलता है।

इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा लिए जाने से वोटर पर कैसे पड़ता है असर?
जनता वोट के जरिए सरकार चुनती है ताकि वह लोगों को लाभ पहुंचा सके। इलेक्टोरल बॉन्ड जनता की इस उम्मीद को तोड़ने का काम करता है। राजनीतिक दलों को जब ज्यादा चंदा गुमनाम कॉर्पोरेट से मिलता है तो इससे सरकार के फैसलों में कॉर्पोरेट घरानों की दखल बढ़ जाती है। सरकार उनके फायदे के लिए फैसला लेती है।

इसे इस घटना से समझा जा सकता है कि 2019-20 में सिर्फ कंपनी को इंसेंटिव और टैक्स में छूट देने की वजह से सरकारी खजाने में 2.24 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। खास बात तो यह है कि जनता को इस बारे में भनक तक नहीं लगी और सरकार ने प्राइवेट कंपनियों के हित में बड़ा फैसला ले लिया। एक्सपर्ट का मानना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड से मिल रहे चंदे की वजह से कॉर्पोरेट कंपनियां सरकार के फैसले तक को बदल सकती हैं।

आखिर में जानते हैं कॉर्पोरेट फंडिंग के दूसरे तरीके यानी इलेक्टोरल ट्रस्ट के बारे में
इलेक्टोरल ट्रस्ट: 
कॉर्पोरेट फंडिंग के 2 तरीकों में से पहला तरीका इलेक्टोरल ट्रस्ट का है। भारत में कुल 22 इलेक्टोरल ट्रस्ट काम कर रहे हैं, लेकिन इनमें सबसे अमीर और सक्रिय प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट है। कंपनियां इलेक्टोरल ट्रस्ट को पैसा देती हैं और फिर ये ट्रस्ट यही पैसा पॉलिटिकल पार्टी को चंदे में देता है।

  • कंपनी एक्ट 2013 के सेक्शन 182 के तहत इलेक्टोरल ट्रस्ट में चंदा देने वाली कंपनी कम से कम 3 साल पुरानी होनी चाहिए।
  • इसके अलावा, कोई भी कंपनी अपने पिछले 3 सालों के नेट प्रोफिट के औसत का 7.5% से ज्यादा चंदा नहीं दे सकती है।
  • कंपनी को अपने बही-खाते में राजनीतिक चंदे को दिखाना जरूरी है। बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की मंजूरी भी जरूरी है।
  • नियमों को तोड़ने वाली कंपनियों को दिए गए चंदे के 5 गुना तक पैनल्टी देना होता है।

निष्कर्ष: इलेक्टोरल ट्रस्ट का हिस्सा काफी कम है। ऐसे में इसके जरिए घालमेल की आशंका कम है। हालांकि, जानकार कहते हैं कि इलेक्टोरल ट्रस्ट की शुरुआत भी इस बात को छिपाने के लिए की गई थी कि किस कॉर्पोरेट घराने ने किस राजनीतिक पार्टी को कितना चंदा दिया।

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