स्टार्टअप शुरू करना चाहते हैं तो पहले B to B और B to C बिजनेस जैसे 25 शब्दों का मतलब समझ लीजिए

कोरोना महामारी के दौरान कई ऐसे शब्द रहे जो लोगों की जुबान पर आए। इनमें से एक है “स्टार्टअप”। आपने भी इन दिनों ये शब्द खूब सुना होगा। जैसे- मेरा स्टार्टअप, उसका स्टार्टअप, इसका स्टार्टअप। स्टार्टअप का मतलब होता है किसी नए बिजनेस या काम की शुरुआत। कोरोना में ढेरों लोग बेरोजगार हो गए और उनमें से कई ने अपना स्टार्टअप शुरू किया।

पहली बार टीवी पर भी स्टार्टअप और बिजनेस से रिलेटेड एक नया टीवी शो शुरू हुआ – शार्क टैंक इंडिया।

शार्क टैंक इंडिया एक अमेरिकी शो पर आधारित है। इस शो में लोग अपने-अपने बिजनेस आइडिया लेकर आते हैं और शो के पैनल को उस बिजनेस में पैसे इनवेस्ट करने के लिए मनाते हैं। जिसका आइडिया बेस्ट होता है या शार्क (पूरे पैनल) को पसंद आ जाता है। शार्क्स उसके बिजनेस को आगे बढ़ाने के लिए अपना इन्वेस्टमेंट करते हैं।

इस शो ने सभी सेक्टर में काम करने वाले लोगों के मन में इंटरेस्ट पैदा किया है, लेकिन उन लोगों को इसे समझने में थोड़ी दिक्कत हुई, जो बिजनेस और फाइनेंस की दुनिया के बारे कम या कोई भी जानकारी नहीं रखते हैं।

आज जरूरत की खबर में हम आपको बताएंगे बिजनेस/स्टार्टअप से जुड़े उन कॉमन शब्दों के बारे में जिन्हें स्टार्टअप शुरू करने से पहले आपको भी जानना चाहिए।

B to B बिजनेस : इसका मतलब है बिजनेस टू बिजनेस। एक उदाहरण से समझते हैं। माना कोई कंपनी साबुन बनाती है। अब अगर यह कंपनी अपने साबुन ग्राहकों के बजाय अलग-अलग होटलों को बेचती और आगे ये होटल अपने यहां ठहरने वाले ग्राहकों को ये साबुन देते हैं।

ऐसे बिजनेस को B to B यानी बिजनेस टू बिजनेस कहते हैं। इसमें प्रोडक्ट या सर्विस सीधे ग्राहकों के बजाय किसी दूसरे बिजनेस को बेचा जाता है। यहां दूसरा बिजनेस होटल है।

B to C बिजनेस : इसका मतलब है- बिजनेस टू कन्ज्यूमर। इसमें कोई कंपनी, फर्म या स्टार्टअप अपने प्रोडक्ट या सर्विस सीधे ग्राहकों को बेचती है। इसे भी एक उदाहरण से समझते हैं। अगर साबुन बनाने वाली कोई कंपनी अपने साबुन सीधे ग्राहकों को बेचती है तो ऐसे बिजनेस को B to C कहते हैं।

वैल्यूएशन (Valuation)- किसी बिजनेस या कंपनी की इकोनॉमी वैल्यू को निकालना ही वैल्यूएशन कहलाता है। इससे समझा जा सकता है कि इस कंपनी की कितनी कीमत होगी। जैसे- जब कभी अपना सामान बेचने जाते हैं तो उसकी क्वालिटी देखकर कीमत का अंदाजा लगाया जाता है। उसके बाद फाइनल वैल्यूएशन के बाद उस सामान को बेचा जाता है।

कब होता है इसका इस्तेमाल-

  • किसी कंपनी को बेचने के लिए।
  • पार्टनरशिप या ओनरशिप के लिए।
  • टैक्सेशन के लिए।

प्री- रेवेन्यू (Pre Revenue)- प्री रेवेन्यू किसी भी तरह की कमाई या खर्च नहीं है, बल्कि इसके जरिए एक मोटा-मोटी अंदाजा लगाया जाता है कि आप अपने बिजनेस में कितना कमा सकते हैं।

मार्जिन (Margin)- किसी प्रोडक्ट को बनाने में लगी कीमत और उसे बेचने के बाद आने वाले प्रॉफिट के बीच में जो अंतर होता है उसे ही मार्जिन या प्रॉफिट मार्जिन कहते हैं।

जैसे- मान लीजिए किसी कंपनी को चॉकलेट बनाने, पैक करने, डिलीवर करने और सभी एक्सट्रा खर्चों को जोड़ने के बाद 2.5 रुपए की लागत आती है और वो कंपनी अपनी चॉकलेट 5 रुपए में बेचती है। तो इस प्रोडक्ट का मार्जिन प्रॉफिट होगा 50 परसेंट।

इक्विटी (Equity)- इक्विटी का मतलब होता है किसी कंपनी में दूसरे इंवेस्टर की हिस्सेदारी। जब आप किसी को अपने बिजनेस के या बिजनेस आईडिया के बारे में बताते हैं तो आप उससे कहते हैं कि हम आपके इतने इंवेस्टमेंट के बदले इतने पर्सेंट इक्विटी देने को तैयार हैं।

जैसे- मान लीजिए कि आपने कहा मुझे 1 करोड़ का इंवेस्टमेंट चाहिए। इसके बदले में सामने वाले को 10 पर्सेंट इक्विटी दूंगा/दूंगी। तो इसका सीधा मतलब है कि पैसे लगाने वाले को आपके बिजनेस में 10 पर्सेंट की हिस्सेदारी मिलेगी।

एंटरप्रेन्योर (Entrepreneur)- ऐसे लोग जो अपना खुद का बिजनेस शुरू करते हैं और मैनेजमेंट से लेकर फायदा-नुकसान हर चीज का रिस्क लेते हैं, उन्हें एंटरप्रेन्योर कहते हैं।

एंजेल इन्वेस्टर (Angel Investor)- छोटे स्टार्टअप या एंटरप्रेन्योर को ऐंजल इन्वेस्टर पैसे से मदद करते हैं। इन्हें प्राइवेट इन्वेस्टर, सीड इन्वेस्टर और ऐंजल फंडर भी कहते हैं। ज्यादातर ऐंजल इन्वेस्टर, एंटरप्रेन्योर के परिवार और मित्रों के बीच से ही होते हैं। ऐसा भी होता है कि ऐंजल इन्वेस्टर किसी कंपनी में एक बार फंड इन्वेस्ट करते हैं, ताकि कंपनी शुरुआती समस्याओं से उबर सके और मजबूती से जमीन पर उतर कर अपने बिजनेस को बढ़ा सके।

ओवरहेड(Overhead)- ओवरहेड वो खर्चा नहीं है जो किसी सामान को बनाने या डिलीवर करने में आती है; बल्कि इसके अलावा जो खर्चा होता है, जैसे- गोदाम का किराया, ऑफिस का रेंट, किसी की लीगल फीस या कोई इंश्योरेंस। ऐसे खर्चों को ओवरहेड कहते हैं।

रॉयल्टी (Royalty)- मान लीजिए कि आपने कोई पेन बनाई और इसे पेटेंट करवा लिया। उस पेन का कॉपीराइट, लोगो, ट्रेडमार्क सब कुछ आपका है, लेकिन ये पेन ग्राहकों तक कोई थर्ड पार्टी बेचना चाहती है। तो उसे हर पेन के पीस की सेल-प्राइस का कुछ हिस्सा आपको, यानी असली मालिक को देना होगा। इसे ही रॉयल्टी कहते हैं।

स्केलेबिलिटी (Scalability)- अगर आपके पास पेन बनाने की कोई कंपनी है तो इस बिजनेस में आगे कितनी ग्रोथ होगी, इसकी बिक्री कितनी कम या ज्यादा होने की संभावना है, प्रॉफिट कितना बढ़ेगा, ग्राहकों की डिमांड कैसे और कितनी पूरी हो सकती है। इन सब बातों से किसी भी बिजनेस की स्केलेबिलिटी तय की जाती है।

परचेज आर्डर (Purchase order (PO)- इस शब्द का मतलब है एग्रीमेंट। किसी प्रोडक्ट को खरीदने वाला व्यक्ति सामने वाले बिजनेसमेन से कितने पैसों में कितने पीस प्रोडक्ट खरीदेगा इस बात का एग्रीमेंट होता है।

पेटेंट(Patent)- पेटेंट का सीधा मतलब है किसी भी प्रोडक्ट या सामान पर आपके नाम की मुहर लगना। मान लीजिए आपने एक पेंसिल का आविष्कार किया। उस आविष्कार का पेटेंट अपने नाम करा लिया। अब इस पेंसिल को कोई भी तब तक नहीं बना सकता जब तक आप, यानी मालिक उसे इनवेंट करने, इस्तेमाल करने और बेचने की इजाजत नहीं दे देता। बिना परमिशन के कोई भी उसकी कॉपी नहीं निकाल सकता है।

ट्रेडमार्क (Trademark)- किसी भी कंपनी के प्रोडक्ट की अपनी विशेष पहचान को ही उस कंपनी का ट्रेडमार्क कहते हैं। जैसे- एप्पल कंपनी का कटा हुआ सेब या फिर मैक्डॉनल्ड का ‘I’m lovin it’….ये सब इन कंपनियों की एक विशेष पहचान है। आप ध्यान करें कि जब भी आप किसी प्रोडक्ट का रैपर देखते हैं तो उसके नाम के साथ एक जगह पर छोटा सा t लिखा होता है। ये उसका ट्रेडमार्क होता है, जिसे दूसरी कंपनी कॉपी नहीं कर सकती है।

कॉपीराइट(Copyright)- ये भी पेटेंट और ट्रेडमार्क से मिलता-जुलता ही है। जैसे आपने कोई किताब लिखी, कोई कहानी लिखी या फिल्म बनाई। तो आपके द्वारा बनाए हुए कंटेट या सामान पर आपका कॉपीराइट है। इसे आपकी बिना परमिशन के कोई इस्तेमाल नहीं कर सकता है।

परपिटुइटी(Perpetuity)- परपिटुइटी का मतलब है हमेशा। मान लीजिए आपने कोई नॉवेल लिखी। पब्लिश करने वाले से कहा कि आप एक नॉवेल की प्रति बिकने पर 50 रुपए रॉयल्टी परपिटुइटी में लेंगे। मतलब है कि जब तक ये नोवेल बिकेगी आपको हर कॉपी के 50 रुपए मिलेंगे।

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