बीते सालों में अदालत का फोकस बदला लेकिन अब भी निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं सार्वजनिक महत्व के मामले

आज यह भावना बलवती है कि सर्वोच्च अदालत के द्वारा महत्वपूर्ण मुकदमों के निराकरण में देरी हो रही है। विमुद्रीकरण को दी गई चुनौती, आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए सीटों के आरक्षण हेतु संविधान-संशोधन, अनुच्छेद 370 का निरस्तीकरण, ये सभी मामले निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। ये कोई अपवाद नहीं हैं। विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी द्वारा हाल ही में किया गया एक अध्ययन बताता है कि आज ऐसी संवैधानिक खण्डपीठों- जिनमें पांच या इससे अधिक न्यायाधीश हैं- के समक्ष 587 मामले लम्बित पड़े हैं।

संविधान-निर्माताओं ने सर्वोच्च अदालत की स्थापना इसलिए की थी, ताकि संवैधानिक महत्व के मसलों का निराकरण किया जा सके। इसके बावजूद इस प्रकार के मामले लम्बे समय से लम्बित हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं, जो अब यथास्थिति बन चुके हैं, उनके बारे में कुछ नहीं किया जा सकता। मिसाल के तौर पर, क्या 1000 के पुराने नोट को कानूनी रूप से फिर से चलन में लाया जा सकता है? ऐतिहासिक रूप से सर्वोच्च अदालत की संवैधानिक खण्डपीठों ने भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों को सहेजने का काम किया है।

फिर चाहे केशवानंद भारती के मामले में यह निर्णय हो कि लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और कानून का राज भारतीय संविधान का मूलभूत ढांचा हैं जिन्हें बदला नहीं जा सकता, या मेनका गांधी के मामले में सरकारों द्वारा नागरिकों के एक जगह से दूसरी जगह जाने के अधिकार को मनमाने तरीके से बाधित करने पर निर्णय हो, या हाल में शायरा बानो केस में सुनाया गया यह फैसला, जिसमें मुस्लिम पुरुषों के लिए इंस्टैंट तीन तलाक को गैरकानूनी बनाया गया हो, या फिर केएस पुट्‌टास्वामी के मामले में यह निर्णय कि निजता का अधिकार बुनियादी है- संवैधानिक खण्डपीठों ने हमेशा ऐसे निर्णय सुनाए, जिन्होंने सर्वोच्च अदालत को दुनिया में प्रतिष्ठा दिलाई और नागरिकों का भरोसा जीता है।

संवैधानिक खण्डपीठों के जो मामले आज लम्बित हैं, वो भी उपरोक्त वर्णित मामलों से अधिक नहीं तो उतने ही महत्वपूर्ण अवश्य हैं। मिसाल के तौर पर, आंध्रप्रदेश में मुस्लिमों को पिछड़े वर्ग के दर्जे की संवैधानिकता का मामला और मुम्बई में महाराष्ट्र सरकार का किराया-भाड़ा नियंत्रण सम्पदा प्राप्त करने का अधिकार- ये इन दोनों राज्यों में संवेदनशील राजनीतिक महत्व के मामले हैं।

सीएए की वैधता, असम में एनआरसी की आजमाइश, शबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का अधिकार, वॉट्सएप्प की गोपनीयता नीति में परिवर्तन ऐसे मामले हैं, जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। इनका राजनीतिक महत्व ही नहीं, ये आमजन-जीवन को भी प्रभावित करते हैं। इसके बावजूद आज एक भी खण्डपीठ सक्रिय नहीं है। पांच, सात और नौ न्यायाधीशों की खण्डपीठों के समक्ष 35 मुख्य और 552 संबंधित मामले लम्बित हैं।

इनमें सबसे पुराना केस तो वर्ष 1999 में सात जजों की संवैधानिक खण्डपीठ को भेजा गया था। तब से लेकर अभी तक किसी मुख्य न्यायाधीश ने यह जरूरी नहीं समझा कि इस मामले की सुनवाई के लिए बेंच गठित की जाए। 2010 से 2020 तक के आंकड़ों के आधार पर सर्वोच्च अदालत ने हर साल औसतन 63 हजार मामलों का निराकरण किया है। इसलिए सवाल अक्षमता का नहीं, प्राथमिकताओं का है।

बीते अनेक सालों में अदालत का फोकस बदला है। अदालत सामान्यतया तलाक, मोटरयान दुर्घटना और बंटवारे संबंधी मामलों की अपीलों पर सुनवाई करती है, जिनका संबंधित पक्षों के लिए भले महत्व हो, सार्वजनिक हित के मामले वे अमूमन नहीं होते। इस कारण संवैधानिक अदालत के अपने दायित्व का निर्वहन वह नहीं कर पाती। यह बदलाव वांछनीय नहीं है।

ऐसे में अदालत को एक स्थायी संवैधानिक खण्डपीठ का गठन करना चाहिए, जो वर्षभर संवैधानिक महत्व के मामलों की तत्समय सुनवाई करे। जब तक यह नहीं होगा, संविधान निष्प्रभावी सिद्ध होता रहेगा और अदालत की नैतिक वैधता क्षीण होती रहेगी। संविधान ने तो सर्वोच्च अदालत की कल्पना संवैधानिक और अपीलीय दोनों तरह के न्यायालय के रूप में की थी, लेकिन कालांतर में उसका ध्यान अपीलों के निपटान पर अधिक रहा है। इस कारण संवैधानिक अदालत के दायित्व का निर्वहन वह नहीं कर पाती।

(ये लेखकों के अपने विचार हैं)

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