अंतरराष्ट्रीय अशांति, पड़ोस में अस्थिरता, महंगाई और बेरोजगारी के दौर में धार्मिक विवादों का फोकस में आना क्या सिर्फ संयोग है?

अदालतें कुछ मामलों में तो बुलेट ट्रेन की रफ्तार से रातों-रात सुनवाई करके प्रभावी फैसला कर देती हैं। लेकिन बकाया मामले पैसेंजर गति से आगे बढ़ते हैं। अयोध्या विवाद एक मिसाल है। कई दशकों तक अदालतों में घिसटने के बाद इच्छाशक्ति जाग्रत होने पर कुछ महीनों में ही निर्णायक फैसला हो गया।

काशी की तर्ज पर आगे चलकर मथुरा और ताजमहल मामलों में भी सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम आदेश पारित हो सकते हैं, लेकिन अंतिम फैसले के लिए संविधान पीठ का गठन करना होगा। धर्मस्थल कानून 1991 की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाएं पिछले एक साल से सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं।

अयोध्या फैसले में पांच जजों की बेंच ने 1991 के कानून को धर्मनिरपेक्षता और समानता के लिहाज से अहम बताते हुए वैध ठहराया था। अब काशी और मथुरा के विवाद को निपटाने के लिए 1991 के कानून की वैधता पर पुनर्विचार करना होगा। 7 जजों की संविधान पीठ का गठन करना पड़ सकता है। सुनवाई और फैसले में लम्बा समय लग सकता है।

राम मंदिर आंदोलन के उफान के समय 1991 में नरसिम्हाराव सरकार जब यह कानून लाई तो भाजपा ने पुरजोर विरोध करते हुए उसे संसदीय समिति को भेजने की मांग की थी। विरोध के उन्हीं बिंदुओं पर आगे चलकर सुप्रीम कोर्ट में लम्बी-चौड़ी बहस होगी। एक, धार्मिक स्थल से जुड़े मामले राज्यों के दायरे में आते हैं तो केंद्र ने इस बारे में कैसे कानून बनाया?

दो, 15 अगस्त 1947 की तारीख का मनमाफिक तरीके से निर्धारण होने से हिंदू, जैन और सिख धर्मावलंबियों के संवैधानिक अधिकार आहत हुए हैं। तीन, जहां अधिकार हैं वहां उपचार भी होना चाहिए, लेकिन इस कानून से लोगों के संवैधानिक अधिकारों का हनन हुआ है। चार, संविधान के अनुच्छेद 13 और बेसिक स्ट्रक्चर के खिलाफ होने के कारण इस कानून को रद्द कर देना चाहिए।

अदालती लड़ाई से अलग, पूरे विवाद में तीन सवाल उभरते हैं। पहला, अगर 1991 में यह कानून नहीं बनता तो भी धार्मिक विवादों को बढ़ने से कैसे रोका जा सकता था? दूसरा, मध्यकाल में कानून का शासन नहीं होने से धर्मान्ध सुल्तानों और बादशाहों ने धार्मिक स्थलों को रौंदा। लेकिन आजादी के बाद संवैधानिक तंत्र के दायरे में मध्यकाल की बर्बरता के खिलाफ न्याय कैसे हो?

तीसरा, राम मंदिर आंदोलन के समय नारा था काशी-मथुरा बाकी है। काशी की तर्ज पर अब मथुरा और हजारों अन्य धार्मिक स्थलों के सर्वे और वीडियोग्राफी की मांग का छोटा स्वर सोशल मीडिया के माध्यम से राष्ट्रीय अभियान में बदल सकता है। तो धर्मान्धता के रक्तबीज के प्रसार और प्रतिकार को कानून या अदालत के फैसले के कैसे रोका जाए?

यूरोप में धर्मयुद्ध, पुनर्जागरण, औद्योगिक क्रांति, पूंजीवाद, उपनिवेशवाद के बाद डिजिटल क्रांति और अब चांद पर बस्ती बसाने की तैयारी हो रही है। दूसरी तरफ भारत में एक फीसदी से कम आबादी यूनिकॉर्न और डिजिटल क्रांति की लहर पर सवार है। बकाया आबादी के हाथों में मध्यकालीन मुद्दों का डंडा थमाया जा रहा है।

ज्ञानवापी पर मीडिया की सुर्खियां बढ़ने के बाद भाजपा सांसद ने कृषि कानूनों की तर्ज पर धर्मस्थल कानून को रद्द करने की मांग कर डाली। सर्वे रिपोर्ट उजागर होने के बाद उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री मौर्य ने कहा सत्य पूरी दुनिया के सामने प्रगट हो गया है। दूसरी तरफ बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर 14 देशों के राजनयिकों को संबोधित करते हुए भाजपा अध्यक्ष नड्डा ने कहा कि ‘सबका साथ सबका विकास’ के आधार पर ही पार्टी चुनाव लड़ती है।

उनके अनुसार समान नागरिक संहिता जैसे मामलों पर राज्यों की सरकारें भले ही काम कर रही हों, लेकिन ये पार्टी के चुनावी मुद्दे नहीं हैं। उसी दिन उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्रियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने उन्हें सुशासन का पाठ पढ़ाया।

ज्ञानवापी और मथुरा मामले के समाधान के लिए 1991 के कानून में चार तरीके से व्याख्या या बदलाव हो सकता है- पहला, पुरानी मस्जिदों को प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम 1958 के तहत मानते हुए उन्हें 1991 के कानून धारा 4(3)(बी) के तहत बाहर करते हुए सिविल अदालतें फैसला करें।

दूसरा, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ इस कानून को आंशिक या पूरी तरह से रद्द कर दे। तीसरा, संसद के माध्यम से कानून रद्द हो या उसमें बदलाव करके काशी और मथुरा को कानून के दायरे से बाहर लाया जाए। चौथा, धारा 4(3)(सी) के तहत दोनों पक्ष समझौते से धार्मिक स्थल में बदलाव कर लें। ज्ञानवापी मामले पर अच्छी पहल करते हुए मुस्लिम विद्वानों, शिक्षाविद और पूर्व उपकुलपति आदि की एक कमेटी बनी है।

उनके अनुसार मुस्लिमों के लिए मक्का-मदीना महत्वपूर्ण है, उसी तरह से हिंदुओं के लिए अयोध्या, काशी और मथुरा पवित्र हैं। उन्होंने कहा है कि मुस्लिम पक्ष को बड़ा दिल करके, उन दो स्थलों को हिंदू भाइयों को सौंप दें तो इससे अन्य स्थानों पर विवाद बढ़ने को रोका जा सकता है। लेकिन मीडिया में मुस्लिम समुदाय की तरफ से ओवेसी जैसे नेताओं का हठधर्मी सुर ज्यादा मुखर दिखता है।

ओवेसी काशी और मथुरा मामले को बाबरी मस्जिद की क्रोनोलॉजी से जोड़कर अपना अखिल भारतीय आधार बढ़ा रहे हैं। ज्वलंत मुद्दों का संविधान, संवाद और सदाशयता के दायरे में समाधान जरूरी है। कानून की व्याख्या के नाम पर लोगों को मुकदमेबाजी और नेतागिरी की लत लग गई तो आर्थिक संकट से जूझ रहा देश अराजकता की गिरफ्त में भी आ सकता है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

भावनात्मक प्रश्न बनाम संवैधानिक दायित्व

विपक्ष में रहकर मंदिरों के पक्ष में आंदोलन भाजपा का हक और देश की जरूरत थी। लेकिन बहुमत की सरकार बनाने के बाद इन मुद्दों को पुलिस, अदालत और राज्यों के पाले में ठेलने से संवैधानिक अराजकता बढ़ती है। चुनाव जीतने के मुद्दों और सरकार की संवैधानिक विवशता के बढ़ते अंतर्विरोध को समझने के साथ उसे पाटने की कोशिश हो तो गवर्नेंस के साथ विकास की गाड़ी पटरी में आएगी।

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