गली-गली में शोर है ,प्रत्याशी चित चोर है

गली-गली में शोर है ,प्रत्याशी चित चोर है

प्रदेश में पंचायत और स्थानीय निकाय चुनावों का हल्ला है .इस हल्ले में गली,मुहल्ले आबाद हो गए हैं .गांव से लेकर शहरों तक प्रत्याशियों ने गलियों को रौंद कर फेंक दिया है .गलियों की धूल हवा में उड़ चुकी है .भावी जनसेवकों की फ़ौज को हाथ जोड़ते हुए देखकर लगता है कि दुनिया में यदि सबसे विनम्र जनसेवक यदि कहीं के होंगे तो शायद हमारे यहां के ही होंगे .गांव वाले पंच-सरपंच चुन रहे हैं तो शहर वाले पार्षद और महापौर का चुनाव करते हैं .

स्थानीय निकाय के चुनावों में नामांकन भरने से लेकर वापसी तक बड़ा रोमांच रहता है. नामांकन चुने जाने का सपना पालने वाले सभी लोग भरते हैं लेकिन बाद में बहुतों को नाम वापस लेकर अपनी कुर्बानी देना पड़ती है. कभी अनुशासन के नाम पर तो कभी व्यक्तिनिष्ठा के नाम पर .बहुत कम होते हैं जो न अनुशासन के नाम पर मैदान छोड़ते हैं और न व्यक्तिगत निष्ठा के सामने हथियार डालते हैं .पूरे प्रदेश में परिदृश्य लगभग एक जैसा होता है .मुझे याद है कि अतीत में स्थानीय निकाय के चुनाव ‘ फ्री फॉर ऑल ‘ की तर्ज पर हुए .यानि राजनीतिक दलों ने किसी को अपना-पराया नहीं कहा.जो जीता सो सिकंदर कहलाया .

स्थानीय निकाय के चुनावों में स्थानीय नेताओं की प्रतिष्ठा अक्सर लेकिन खामखां दांव पर लगा दी जाती है .जनसेवा का दम्भ भरने वाले नेता अपनी जन्मकुंडली के आधार पर जीतते हारते हैं .कम से कम पार्षदों के साथ तो यही होता है. क़ानून भले ही आरक्षण के तहत महिलाओं को प्रतिनिधित्व देता है किन्तु असल में चुनाव महिलाओं के पतियों को ही लड़ना पड़ता है .महिलाएं तो डमी होती हैं .कुछ ही हैं जो अपने बलबूते पर चुनाव लड़ती और जीतती हैं .

पहले स्थानीय निकाय के चुनावों को मुंशी पाल्टी का चुनाव कहा जाता था .एक जमाने में ग्वालियर शहर में महाराज बाड़ा पर चुने हुए जनसेवक अपनी जेब में रबर की मुहर लिए मिल जाया करते थे .वे सच्चे जन सेवक थे. वार्ड की जनता को पार्षद से जिस चीज का प्रमाणीकरण करना हो खड़े-खड़े कर दिया जाता था. आपातकाल से पहले बाबू राजेंद्र सिंह और आपातकाल के बाद पूरन सिंह पलैया जैसे जन सेवकों के नाम स्थानीय चुनाव की राजनीति के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखे हुए हैं .पहले हर शहर में ऐसे समर्पित पार्षद होते थे .अब नहीं होते .अब लक-झक पार्षद होते हैं .

आजकल जनसम्पर्क पर निकले जन सेवक बलि के बकरों की तरह घर से निकलते ही फूल मालाओं से लद जाते हैं .जो नहीं लद पाते उन्हें लाद दिया जाता है .जन सम्पर्क में आगे-आगे फूल मालाएं लेकर कार्यकर्ता चलते हैं और पीछे-पीछे प्रत्याशी .वे ही मतदाताओं को मुफ्त की माला देकर प्रत्याशियोंका स्वागत करते हैं .पूरा परिदृश्य एकदम फ़िल्मी दिखाई देता है .प्रत्याशी घर से सजधज कर ऐसे निकलते हैं जैसे जनसम्पर्क पर न जाकर मॉडलिंग करने जा रहे हों .पहले नारे लगते थे ‘गली-गली में शोर है,..फलां..फलां चोर है’ .अब नारे लगते हैं -‘ गली-गली में शोर है,प्रत्याशी चितचोर’ है ‘

सेहत के लिहाज से स्थानीय निकाय चुनावों का जनसम्पर्क अभियान बहुत महत्वपूर्ण होता है. एक पखवाड़े के जन सम्पर्क में प्रत्याशी के सारे रोग दूर हो जाते हैं. हर प्रत्याशी को रोजाना कम से कम आठ-दस घंटे तो पदयात्रा करना ही पड़ती है .इतनी पदयात्रा में शरीर का सारा खून साफ़ हो जाता है .अच्छा-बुरा कॉलस्ट्रॉल ठिकाने पर आ जाता है,वजन संतुलित हो जाता है वाणी में मिठास और स्वभाव में विनम्रता अपने आप फलित होने लगती है .पुराने जमाने में जनसेवक को मतदाता समर्थन के साथ पैसे भी देता था लेकिन अब लेता है .जानता है कि चुनाव जितने के बाद जनसेवा तो किसी को करना नहीं है ,सब धन ही कमाएंगे .

मुझे स्थानीय निकाय चुनावों का व्यावहारिक अनुभव है ,इसीलिए मै आधिकारिक रूप से लिख पा रहा हूँ. मैंने खुद महापौर का चुनाव लड़ा और मेरी पत्नी ने पार्षद का .बहुत कम लेखक ऐसे होंगे जो इस तरह अनुभव जन्य लिख पाते हों .चुनाव का मौसम दरअसल मौज-मस्ती का मौसम होता है. हर प्रत्याशी के घर लंगर चल रहा होता है. रोज दोनों वक्त गरमा-गर्म खाना मिलता है. क्षमतावान प्रत्याशी खाने के साथ कार्यकर्ताओं के लिए ऐपिटाइजर की व्यवस्था भी करते हैं .मतदाताओं के लिए दूसरे इंतजाम किये जाते हैं .

स्थानीय निकाय लोकतंत्र की पहली सीढ़ी माने जाते हैं .इस चुनाव को जीतकर ही नेता अपने शहर से प्रदेश और देश की राजधानी तक पहुंचता है. हमारे साथ के मुन्ना भैया हों या दूसरे और कोई स्थानीय निकाय चुनाव जीतकर ही आज केंद्र में मंत्री बने हैं .बहुत कम नेता ऐसे होते हैं जो बिना स्थानीय निकाय चुनाव लड़े सीधे केंद्र में मंत्री बन जाते हैं .ऐसे लोग खानदानी होते हैं ,इसलिए उनके लिए स्थानीय निकाय चुनाव लड़ना जरूरी नहीं है .जैसे नेहरू जी या मोदी जी ने कौन सा स्थानीय निकाय का चुनाव लड़ा है ,लेकिन वे प्रधानमंत्री बने न आखिर !

आजकल मै देख रहा हूँ कि बहुत से नेता बुढ़ापे में भी स्थानीय निकाय का चुनाव लड रहे हैं .उनके मन में विधानसभा चुनाव लड़ने का सपना आता ही नहीं है .वे कम भी पार्षद थे,वे कल भी पार्षद ही रहना चाहते हैं .बड़े ही सुकून का काम होता है पार्षद बनना .हमारे गोयल साहब तो पार्षद बनकर पूरे समय अपनी दूकान से ही जनसेवा करते रहते थे .उनकी दुकान ही नगर निगम का क्षेत्रीय कार्यालय हुआ करता था .उनके यहां सर्वदलीय जमावड़ा होता था .वे प्रतिपक्ष के नेता भी दूकान पर बैठे-बैठे ही बने रहे .हमने खुद भी चुनाव लड़ा और दूसरों को भी लड़वाया. लड़वाया ही नहीं बल्कि जितवाया भी .

बहरहाल इस समय मौसम चुनावों के अनुकूल नहीं है. वातावरण में उमस है ,मानसून कहीं भटक गया है .बावजूद लोग चुनाव लड रहे हैं. महाराष्ट्र मन तो दूसरे किस्म की लड़ाई चल रही है .स्थानीय चुनावों से ज्यादा दिलचस्प चुनाव महाराष्ट्र में हो रहे हैं .वहां शेरों वाली शिव सेना दो फांक हो गयी है .चलिए जो होगा सो होगा ,आप तो स्थानीय निकाय चुनावों का मजा लीजिये .

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *