लाल सिंह चढ्ढा से भी नफरत

लाल सिंह चढ्ढा से भी नफरत

कितनी बुरी बात है कि नफरत अब देश की राष्ट्रीय पहचान बन चुकी है | नफरत और मुहब्बत दो ऐसी प्रवृत्तियां हैं जो हर इंसान में पायी जातीं हैं | ये ऐसे कोलस्ट्राल की तरह हैं जो अच्छा और बुरा एक साथ खून में रहता है,लेकिन जैसे ही दोनों के बीच तालमेल घटता बढ़ता है वैसे ही जिस्मानी तकलीफें शुरू हो जाती है | इस समय देश की नसों में बह रहे रक्त में नफ़रत वाला कोलस्ट्राल असंतुलित होकर हद से ज्यादा बढ़ चुका है |

नफरत फैलाने के लिए हम हर माध्यम का दुरूपयोग कर रहे हैं | इसमें अक्सर नाकामी ही मिलती है, लेकिन माध्यम को गहरा धक्का पहुंचता है | पिछले साल ‘ दि कश्मीर फ़ाइल ‘ नाम की एक फिल्म के जरिये देश में कथित राष्ट्रवाद की आड़ में नफरत फैलाई गयी | नफरत फैली और खूब फैली | नफरत फ़ैलाने वालों का मकसद आंशिक रूप से पूरा भी हुआ ,लेकिन आखिर में नतीजा वो ही ‘ ढाक के तीन पात ‘ रहा | जिन कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा को फिल्मांकित किया गया था वे आज भी घाटी में परेशान हैं | उन्हें तबादले के लिए आंदोलन करने पर वेतन नहीं दिया जा रहा है |

नफरत फ़ैलाने वालों के निशाने पर अब एक और फिल्मकार आमिर खान हैं | लोगों को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि फिल्म कैसी है ? उन्हें तो इतना ही बहुत है कि फिल्म एक खान साहब की है | लोग बिना सिनेमा देखे ही आमिर खान की फिल्म को लेकर नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं | जो समीक्षक हैं वे समीक्षाएं लिखकर अपनी नफरत का मुजाहिरा कर रहे हैं | हमारे अनेक मित्र भी इस दुष्चक्र में जाने ,अनजाने फंस चुके हैं | मुझे अपने ऐसे मित्रों पर तरस आता है | मै उनके प्रति सहानुभूति रखता हूँ |
सिनेमा कला का माध्यम है और अभिव्यक्ति का भी | रोजगार का माध्यम भी है और शिक्षा का भी | इसलिए इस बहुउदेशीय माध्यम को नफरत से बचाये रखना राष्ट्रीय जरूरत है | एक फिल्म बनती है और चलती है तो मुंबई के हजारों परिवारों के घर चूल्हा जलने की गारंटी देती है। पूरी एक सदी से देती आ रही है | ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं जब फिल्मों ने समाज में नफरत फ़ैलाने का काम किया हो | फिल्म मनोरंजन के साथ उतनी ही शिक्षा दे पाती है जितना की आटे में नमक |फिमों से नफ़रत भी इसी अनुपात में फैलती है लेकिन मुहब्बत कहीं ज्यादा फैलती है ,तेजी से फैलती है | महात्मा गाँधी से लेकर ठगों ,मवालियों और तस्करों के दिल भी फिल्मों ने बदले हैं | लेकिन जब नफरत से भरे लोग ‘ लाल सिंह चढ्ढा ‘ के बहिष्कार का आव्हान करते हैं तो हँसी आती है | नफरत फ़ैलाने वालों से अब नाराज होना मैंने छोड़ दिया है |

‘ लाला सिंह चढ्ढा ‘ में पंजाब से आया एक बच्चा दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास के सामने अपने परिवार के साथ फोटो खिंचा रहा है और पीछे से गोलियों के चलने की आवाजें आने लगती हैं। वापस अपने गांव जाने के लिए मां के साथ निकले इस बच्चे के सामने ही उसके ऑटोवाले को पेट्रोल छिड़ककर जिंदा जला दिया जाता है। मां अपने बच्चे को लेकर दुकानों की ओट में छिपी है और वहीं गिरे कांच के टुकड़े उठाकर अपने बेटे की ‘जूडा ’ खोलकर उसके बाल काट देती है। ये भी हिंदुस्तान की ही कहानी है। देश में बीते 50 साल की घटनाओं को एक प्रेम कहानी के जरिये कैद करती फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ सोशल मीडिया के उन ‘शूरवीरों’ के निशाने पर आई फिल्म है जिन्हें किसी भी खान से चिढ़ है। रसखान से भी |

भारत में 21 सदी के इस मौजूदा दशक से पहले कभी भी सिनेमा को इस निगाह से नहीं देखा गया , जिस निगाह से अब देखा जा रहा है | मैंने इसी देश में तमाम ऐसी फ़िल्में देखी हैं जिन्हें देखकर दर्शक सिनेमाघरों में या तो रोते थे ,या पुलकित होते थे | ‘ जय संतोषी माता ‘ जैसी फिल्मों को देखने दर्शक पूजा की थाली लेकर भी जाते थे | यानि मौजूदा दशक से पहले फिल्मों के प्रति दर्शक की निगाह में न हिन्दू,मुसलमान था और न नफरत |अब दोनों हैं | इससे फिल्मों के इस माध्यम के साथ समाज का भी नुक्सान हो रहा है | इस नफरत को किसने बढ़ावा दिया है ये बताने की आवश्यकता अब नहीं है |

देश का दुर्भाग्य है कि जो लेग दुनिया के गुरु बनना चाहते हैं वे इक्कीसवीं सदी में भी ‘ काले जादू ‘ पर न सिर्फ यकीन करते हैं बल्कि उससे डरते भी हैं | ऐसे लोगों का भय अब साफ़ झलकने लगा है | विज्ञान पर ऐसे लोगों का भरोसा नहीं है | मुझे याद नहीं आता कि देश कि किसी भी चौकीदार ने सार्वजनिक मंचों से जादू-टोने की बात की हो ! सिनेमा से नफरत करने वाले लोग अब कपड़ों कि रंग को मुद्दा बना रहे हैं | भाई जी हम उस देश कि वासी हैं जिस देश में लोग दिन कि हिसाब से अपने कपड़ों का रंग तय करते हैं | काले रंग का इस्तेमाल तो अनंत काल से विरोध ,शोक कि लिए किया जाता रहा है | जो विपक्ष में होता है उसे काले रंग कि कपड़े एक न एक दिन पहनना ही पड़ते हैं | काले कपड़ों से डरना क्या ? और काला जादू कुछ होता नहीं |

फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ छह ऑस्कर जीतने वाली फिल्म ‘फॉरेस्ट गंप’ का आधिकारिक ‘रीमेक’ है। हमारा फिल्म जगत रीमेक पर ज्यादा यकीन करता है क्योंकि उसके फार्मूले आजमाए हुए होते हैं और सफलता की गारंटी देते हैं | लेकिन लोगों को इससे कुछ लेना-देना नहीं | फिल्म देखे बिना ही उसके विरोध कि लिए खुद को प्रस्तुत करना अंधभक्ति का चरम है | ‘नफरत’ फ़ैलाने वाले शायद नहीं जानते कि ‘ गुड़ खाने वाले, गुलगुलों ‘ से परहेज नहीं कर सकते | ऐसा करना मुमकिन नहीं है | आप अपने विरोध कि लिए फिल्म देखना ही छोड़ दें ऐसा मुमिकन है | लेकिन आपके कहने से लोग फिल्मों का बहिष्कार करने लगें ,मुमकिन नहीं |

ये हमारा प्यारा हिंदुस्तान है,यहां लोग नफरत से भरी फ़िल्में बनाकर अंधभक्तों की जेबें खाली कर करोड़पति हो सकते हैं तो सामाजिक सरोकारों से जुडी फ़िल्में बनाकर भी | दरअसल असली जादू तो फिल्मों कि पास है ,नेताओं कि पास नहीं | कुल मिलाकर लोकतंत्र में जादू तो जनता करती है | नेता भी जादू करने का प्रयास करते हैं ,किन्तु सब कर नहीं पाते |राजनीति में फ़िलहाल कोई जादूगर आनंद नहीं है | इसलिए फ़िल्में देखिये ,ये फ़िल्में ही हैं जो आपको एक ऐसी दुनिया में ले जतिन हैं ,जहां कुछ देर कि लिए तो सुकून होता ही है |

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *