दल सत्ता में आकर वही सब करते हैं, जिसकी आलोचना करते उनका वक्त गुजरा था

हाल ही में एक टीवी एंकर ने मुझसे पूछा कि क्या बिहार में महागठबंधन की नई सरकार दागी प्रतीत होने वाले मंत्रियों की नियुक्ति से परहेज करके नई शुरुआत नहीं कर सकती थी? अगर इस प्रश्न का उत्तर ‘कर सकती थी’ के रूप में दिया जाता तो फिर नया सवाल यह बनता कि ‘तो बताइए, उसने ऐसा क्यों नहीं किया?’ और अगर उत्तर यह दिया जाता कि ‘वह नई शुरुआत करने में सक्षम ही नहीं थी’, तो नया सवाल यह बनता कि ‘क्या यह लोकतंत्र के लिए निराशाजनक नहीं है?’

दरअसल, इस प्रश्न का उत्तर यह है कि भारतीय लोकतंत्र के मौजूदा हालात में किसी पार्टी या नेता के पास नई शुरुआत का एजेंडा है ही नहीं। सभी राजनीतिक शक्तियां अपनी पूर्व-निर्धारित विचारधाराओं, तयशुदा आचरण-संहिताओं, राजनीतिक नैतिकता की मनमानी परिभाषाओं और निहायत अवसरवादी किस्म के चाल-चलन की गिरफ्त में हैं। महागठबंधन की सरकार आलोचनाओं के जवाब में जैसा रवैया अपना रही है, उसके लिए वह दोषी है। लेकिन इस तरह की समस्या की केवल वही जिम्मेदार नहीं है।

न ही यह मसला केवल राजनीति के अपराधीकरण पर होने वाली बहस के दायरे में हल किया जा सकता है। इसका ताल्लुक राजनीति के प्रत्येक क्षेत्र से है और इसके केंद्र में राजनीतिक शक्तियों द्वारा राजसत्ता का बेरोकटोक जायज-नाजायज दोहन करने की शैली है। किसी भी तरह की नवीनता का खतरा उठाने के बजाय हमारी राजनीति एक-दूसरे की बुराइयां दोहराने में लगी है। उदाहरण के तौर पर क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि अगर यूपी में बसपा या सपा को फिर से सत्ता मिल जाए तो क्या वे सरकार चलाने की किसी नई शैली का प्रदर्शन करते नजर आएंगे?

ध्यान रहे कि नई शैली की यह मांग केवल आपराधिक इतिहास वाले नेताओं को सत्ता पाने से रोकने के साथ नहीं जुड़ी है। आखिरकार ये पार्टियां सामाजिक न्याय की चैम्पियन हैं। इसलिए नई शैली मांग करती है कि इनकी सरकार के तहत केवल दबंग और सशक्त जातिगत समुदायों का सबलीकरण नहीं होना चाहिए। इसी तर्ज पर पूछा जा सकता है कि क्या गुजरात की भाजपा सरकार को बिल्किस बानो वाले मामले में अदालत द्वारा दी गई सजा काट रहे दोषियों को एक ऐसे नियम के तहत रिहा करने से परहेज नहीं करना चाहिए था, जिसे खुद वही संशोधित कर चुकी थी?

भाजपा की विचारधारा में ऐसा क्या है, जो गुजरात सरकार ने ऐसा करते समय अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री द्वारा पंद्रह अगस्त को दी गई स्त्री का सम्मान करने की नसीहत का लिहाज भी नहीं किया। इसी तरह राहुल गांधी द्वारा आर्थिक नीतियों के बारे में दिए गए वक्तव्य पर सवाल उठाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा है कि उनकी पार्टी और भाजपा की आर्थिक नीतियां एक-सी हैं, बस अगर उन्हें मौका मिला तो वे उन्हें थोड़ा अलग ढंग से लागू करेंगे? यह अलग ढंग क्या होगा, इस बारे में भी उन्हें बताना चाहिए था।

आखिर इन नीतियों को 1990 के बाद से और 2014 से पहले तक कांग्रेस दो किश्तों में कम से कम पंद्रह साल तक लागू करने का मॉडल पेश कर चुकी है। दूसरी तरफ, भाजपा के प्रवक्ता अकसर कांग्रेस पर एक ही परिवार के शिकंजे की आलोचना करते हैं, लेकिन वे कभी इसका कारण नहीं बताते कि भाजपा की स्थापना से लेकर आज तक उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव क्यों नहीं हुआ? अध्यक्ष का नाम अचानक कहीं से टपक पड़ता है और उसे फटाफट नियुक्ति की माला पहना दी जाती है।

पिछले साल ही ममता बनर्जी ने भाजपा को परास्त करके बंगाल में जीत हासिल की थी। क्या वे नई पारी खेलते हुए पार्टी के राजनीतिक भ्रष्टाचार और बाहुबल के बेरोकटोक इस्तेमाल पर टिकी राजनीति को संशोधित करने के बारे में नहीं सोच सकती थीं? नरेंद्र मोदी भी चुनाव सुधार की दिशा में कुछ बोलने से दूर ही रहते हैं। इलेक्टोरल बांड्स का प्रावधान तो चुनाव-सुधार में निहित भावना का ही उलट है।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि देश में कांग्रेस के प्रभुत्व के जमाने में बाकी सभी पार्टियों को लम्बे अरसे तक विपक्ष में रहना पड़ा था। कांग्रेस भी टुकड़ों-टुकड़ों में तकरीबन बीस साल से ज्यादा विपक्ष में रहने का अनुभव कर चुकी है। यह देखकर ताज्जुब होता है कि किसी भी दल ने विपक्षी राजनीति करते हुए सत्ता में रहने के वैकल्पिक मॉडल की पेशकश नहीं की। न ही उनमें से किसी ने चुनाव लड़ने के किसी किफायती और आदर्श मॉडल की प्रस्तावना की है।

किसी भी राजनीतिक दल ने विपक्षी राजनीति करते हुए सत्ता में रहने के वैकल्पिक मॉडल की पेशकश नहीं की है। न ही उनमें से किसी ने चुनाव लड़ने के किसी किफायती और आदर्श मॉडल की प्रस्तावना की है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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