क्या ‘नज़रों से नियंत्रित’ आबादी बेहतर व्यवहार करती है?

उन दिनों मां की नज़रें किसी रिमोट कंट्रोल जैसी होती थीं। क्या आप पहली लाइन पढ़कर चौंक गए? कुछ और सोचने से पहले अपना बचपन याद करें। याद है, कैसे मां अपनी आंखों से ही अनुमति दे देती थी, जब आप किसी आवारा कुत्ते को खाने का आखिरी कौर खिलाना चाहते थे। उन्हीं नज़रों से मां इनकार भी कर देती थी जब कौर गिरा जाता था और कुत्ते के काटने का डर होता था।

मां खाना उठाने पर नाराज़ होती थी और जब आप हाथ धोकर आते थे, तो मुस्कुरा भी देती थी। इस दौरान एक शब्द भी नहीं कहा जाता था लेकिन आप वही करते थे जो मां चाहती थी। इसलिए मैं कहता हूं कि मां की नज़रें, आपके सार्वजनिक व्यवहार के लिए बिलकुल सही रिमोट कंट्रोल हैं। हम बचपन में ही मां की आंखों को पढ़ने की परीक्षा पास कर लेते थे और नौकरी लगने से पहले ही इसमें पीएचडी हासिल हो जाती थी।

फिर हमने ट्रेन से यात्रा करना शुरू किया जहां यात्री एक-दूसरे के सामने बैठते हैं। क्लास कोई भी हो, हम उन्हें देखकर मुस्कुराते हैं। मां जो खाना रखती हैं, उन्हें अनजान सहयात्रियों के साथ साझा करते हैं। हम उनसे पूछते हैं कि ‘ये मेरी मां खासतौर पर बनाती हैं, क्या आप खाएंगे?’ हो सकता है, वे पहले इनकार कर दें लेकिन अगले 24 घंटों में वे न सिर्फ अपना खाना भी साझा करने लगते हैं बल्कि अब तक आप दोनों एक-दूसरे के पूरे परिवार के बारे में जानने लगते हैं।

हो सकता है कि कुछ बिछड़े संबंध भी मिल जाएं। ज़्यादातर लोग बुज़ुर्ग यात्रियों की पानी, खाना वगैरह लाने में मदद भी करते हैं। कई बार बच्चों की भी मदद करते हैं। जब हम ऐसे अच्छे काम करते हैं तो सामने वाले व्यक्ति की आंखें बहुत कुछ कहती हैं। वे बिना बोले ‘धन्यवाद’ देती हैं और कहती हैं, ‘काश मुझे ऐसा ही जिम्मेदार दामाद या बहू मिले।’ आप उनकी आंखों में ये शब्द पढ़ सकते हैं और फिर उस यात्री को प्रभावित करने के लिए और मेहनत करते हैं।

भले ही वह रिश्ता आगे न बढ़े लेकिन हर यात्रा में हम ऐसा करते हैं क्योंकि हम सहयात्री की आंखों में सराहना देखते हैं। और इन नज़रों ने ही हमारे अंदर अच्छा नागरिक बनने या एक अच्छे समाज का हिस्सा बनने की इच्छा जगाई। इससे मेरे मन में विचार आया कि तब क्या हुआ, जब हम हवाईयात्रा करने लगे? लोग इतनी क्यों पीने लगे कि बदतमीजी पर उतरने लगे? इसके कई कारण हो सकते हैं। हवाईजहाज में सीट एक के पीछे एक होती हैं। कोई भी एक-दूसरे ही आंखों में नहीं देख पाता (जिन्हें पढ़ने की हमें मां से ट्रेनिंग मिली है)।

किसी की नज़र न होने पर हम स्वच्छंद हो जाते हैं। मुझे याद है कि छोटे एयरक्राफ्ट में पहली दो पंक्तियों में यात्री एक-दूसरे की तरफ मुंह करके बैठते हैं। ऐसी किसी भी यात्रा में मैंने कोई असहजता महसूस नहीं की। हमारी नज़रें कई बार मिलीं और हमने चाहा कि हमारा सार्वजनिक व्यवहार अच्छा रहे और उसे सराहा जाए। अगर हम मां की नज़रों से नियंत्रित होने के आदी रहें तो दूसरों की नज़रें भी हमें नियंत्रित कर सकती हैं यानी हम उनकी नज़रों के लिए अच्छा व्यवहार कर सकते हैं।

फंडा यह है कि अगर हम अब भी ‘नज़रों से नियंत्रित’ आबादी रहना चाहते हैं तो मेरा सुझाव है कि हवाईजहाज में आमने-सामने वाली सीटें लगाई जाएं। हो सकता है कि ‘आंखों की शर्म’ हमारे सार्वजनिक व्यवहार को और बेहतर बना दे। आपकी क्या राय है?

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