राजनीतिक: लोहे का स्वाद उस घोड़े से पूछो, जिसके मुंह में लगाम है …?
राजनीतिक व्यंग्य: लोहे का स्वाद उस घोड़े से पूछो, जिसके मुंह में लगाम है.!
दरअसल यह सवाल वाजिब हो सकता है कि क्या चुनाव के समय ही जनता हांकी जाती है? क्या खेल में जोतने से पहले जनता से उसकी मर्जी पूछी गई थी?
क्या जनता की जीत-हार कहीं है? क्या दौड़ में किए गए प्रदर्शन से किस्मत बदलने की संभावनाएं हैं? और भी बहुतेरे होंगे, पर जवाब एक ही है – ना!
हांकना, दौड़ना पृथ्वी पर जीवन की पहली सांस संग आया था। अंतिम तक जारी रहता है।
यह भी जान लो कि पृथ्वी अक्षर जानती, समझदारी सीख लेती तो दूसरों के अस्तित्व के लिए स्वयं का दौड़ना रोक देती। यानी कि नासमझी में ही समझदारी है।
कहावत बन गई है कि देश आजकल चुनावी मोड में ही रहता है। कब नहीं रहता था भाई। बस अब, आए तो भाड़ में जाए की तर्ज पर कोरोना जैसों से ना तो पक्ष और ना ही विपक्ष को कोई फर्क पड़ता है, ना ही उज्र होता है।
देश चलाने में नहीं, माल कमाने में ज्यादा से ज्यादा भागीदारी हासिल करने की होड़ में विपक्ष इसलिए जनता का विचार नहीं करता नजर आता क्योंकि उसकी समझ से सारी परेशानियां उसके सत्ता में नहीं होने के कारण हैं, तो सत्ता पक्ष गावतकियों की मुलायमियत गंवाने से कांप-कांप जाता है, जिनके लिए वह साम-दाम-दंड-भेद के साथ और जाने क्या-क्या रेकी, दावे-वादे करने से भी क्यों पीछे हटे?
बचपन में सोचता था कि सत्ता की रेस में ये पक्ष-विपक्ष के नेता घोड़े की भांति दौड़ते हैं। अहा! उन्हें जनता लगाम कसती रहती है। अहा! जनता मालिक है। लेकिन, अब बाल गंवाकर, मोटा चश्मा लगाकर दिखा कि राजनेता तो पवेलियन में अपनी ही मस्ती में दांव पे दांव खेले जा रहे हैं, मैदान में घोड़ों की भांति जनता दौड़ रही है।
मजे की बात है कि उसकी अदृश्य लगाम भी पवेलियन में बैठे राजनेताओं के हाथ में ही है। कब ढील देनी है, कब कितना खींचना है, वे बड़े इत्मीनान से, शान से वहीं बैठे-बैठे अमल में ला रहे हैं। तब से मुंह कसैला रहता है क्योंकि धूमिल लिख गए थे और पढ़ भी लिया था – लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोड़े से पूछो, जिसके मुंह में लगाम है…
धूमिल कहते हैं-
अक्षरों के बीच गिरे हुए/
आदमी को पढ़ो।
सवाल है कि क्या कहीं कुछ अक्षर हैं? क्या कहीं कोई आदमी है? मेरी नजर में ताे हर कोई घोड़ा है, जो अपने सपनों और रोजाना की बेहद मामूली आवश्यकताओं की जंग को जीतने के चक्कर में कहीं उद्यमियों तो कहीं राजनेताओं की रेस में जुता पड़ा है। गिरने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। गिर ही नहीं सकता क्योंकि सवाल उस पर लदी जिम्मेदारियों का है, उस पर जीवन भर थोपी जाती रही आकांक्षाओं का है। गिरने के आगे मौत है। असल में ये अक्षरों से आगे की दुनिया है जिसमें स्वयं को निरक्षर साबित करते ही, घोड़ा बनते ही दो जून की रोटी मिलना आसान हो जाता है।
सवाल वाजिब हो सकता है कि क्या चुनाव के समय ही जनता हांकी जाती है? क्या खेल में जोतने से पहले जनता से उसकी मर्जी पूछी गई थी? क्या जनता की जीत-हार कहीं है? क्या दौड़ में किए गए प्रदर्शन से किस्मत बदलने की संभावनाएं हैं? और भी बहुतेरे होंगे, पर जवाब एक ही है – ना! हांकना, दौड़ना पृथ्वी पर जीवन की पहली सांस संग आया था। अंतिम तक जारी रहता है। यह भी जान लो कि पृथ्वी अक्षर जानती, समझदारी सीख लेती तो दूसरों के अस्तित्व के लिए स्वयं का दौड़ना रोक देती। यानी कि नासमझी में ही समझदारी है।
और क्यों ना दौड़ें? पैर नहीं हाेंगे, हाथों के बल दौड़ना होगा। हाथ भी नहीं रहेंगे तो सिर के बल। मजमून यह है कि दौड़ने वाले वे हैं जिन्हें चुनने का मौका मिला तो जन्म से ही परिस्थतियों में फर्क करने की काबिलियत नहीं सीखने और निरंतर दौड़ते आने के कारण एक बार फिर दौड़ लिए। और, दौड़ाने वाले वे हैं, जो या तो मुंह में घोड़ों की रस्सी लेकर जन्मे थे, या जिन्होंने हर पल बस दौड़ाना सीखा।
दरअसल, इसे आप “मेट्रिक्स’ कहें, नियति कहें, विधि का विधान कहें, आपकी मर्जी। नहीं तो, बता दो कि हाल के कुछ वर्षों में आपने किसी उद्यमी, राजनेता के वारिसों को दौड़ाना छोड़के दौड़ते देखा है? गलतफहमी भी मत पालिए कि चने छाेड़कर रेस्टोरेंट में सप्ताह में दो बार काजू पनीर खा लेंगे तो घोड़े नहीं रहेंगे। गधे और कहलाएंगे, जगहंसाई भी करवाएंगे।
सवाल संभव है कि क्या घोड़ा बनाकर दौड़ाना लोकतंत्र की हत्या है? यह तो धंधा है, कहां का लोक हो और कहां का तंत्र। तो, उस आभासी व्यक्तित्व को कैसे अपनाएंगे और कैसे मारेंगे? वैसे भी जो चारों तरफ घोटाले, भ्रष्टाचार कराके, तुम्हारे लिए योजनाएं बनाके और फिर उन्हें पचाकर डकार भी ना ले रहे हों, वे चिरकुटिया आरोपों और हत्या से कैसे घबराएंगे? हर ओर बोलियाें का शोर है। तुम जानो, क्या तुम बचपन से अपनी बोली नहीं लगाते आए हो? पास हो गए तो ये, जन्मदिन पे ये, नौकरी इतने में, पत्नी व बच्चे?
अब बस! ज्यादा सवाल करके बेलगाम मत होवो। यह मौजूदा दुनिया में स्वयं के प्रति किया जाने वाला सबसे बड़ा अपराध है। यहां कोई दाल काली नहीं, सब उजाली है। खुश होओ कि बदीउज्जमा के “चूहे’ नहीं हो, ना ही जॉर्ज आरवेल के “बिग ब्रदर प्रशंसक’। जश्न मनाओ कि घोड़ों की रेस में दौड़ने की किस्मत मिली। कोल्हू के बैल नहीं हो और ना ही ईंटे ढो रहे गधे। गुर्राओ नहीं, घास खाओ और दुम नहीं है तो भी हिलाओ। सारे पाप कट जाएंगे।
भीतर क्रांति रहने दो, पर बाहर देखो कितनी शांति है। नेताओं को देखकर ये भ्रांति मत पाल लेना कि वे भी हम में से ही तो एक हैं क्योंकि घोड़े को खुद को उनमें से एक साबित करने से रोकना ही उनकी सच्ची कारीगरी है। यह सामने लगे आइनों में अपना अक्स देखना होगा, जिसे भूल माना जाएगा। और वे जोर से लगाम खींचकर अपने बारे में बता देंगे, पर तुम्हारा मुंह पहले से अधिक कसैला हो जाएगा।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए agrit patrika उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog aritpatrika@2015.com पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।