क्या आपसी मतभेदों के बावजूद राहुल, ममता, केजरीवाल और केसीआर 2024 में एक चुनाव-पूर्व समझ निर्मित कर सकते हैं?
साल होने जा रहे नौ विधानसभा चुनाव यह बताएंगे कि 2024 के आम चुनावों के लिए देश में हवा का रुख किस ओर है। राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा पूरी होने के बावजूद अपनी ‘खिचड़ी-दाढ़ी’ कटवाई नहीं है। शायद वे लोगों के मन में अपनी मैराथन यात्रा की याद ताजा रखना चाहते हैं। लेकिन क्या उनकी इस यात्रा से जमीनी स्तर पर भी कुछ बदलाव आया है? चुनावों के समीकरण तो अब भी जस के तस हैं।
भाजपा को हराने के लिए विपक्ष के लिए संयुक्त मोर्चे का गठन करना पहले की तरह जरूरी बना हुआ है। अगर विपक्षी दल संयुक्त मोर्चा नहीं बनाएंगे तो भाजपा-विरोधी वोट बंट जाएंगे और भाजपा की झोली में लगातार तीसरी चुनावी जीत आ जाएगी।
एकता तो दूर, उलटे विपक्ष में आज फूट ज्यादा दिखलाई दे रही है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री और बीआरएस प्रमुख केसीआर ने लोकसभा में अदाणी समूह के विरुद्ध प्रदर्शनों में कांग्रेस और उसके सहयोगियों का साथ देने से इनकार कर दिया।
तेलंगाना के खम्मम में हुई एक रैली में केसीआर का साथ देने के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री और ‘आप’ प्रमुख अरविंद केजरीवाल, सपा नेता अखिलेश यादव, केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन और लेफ्ट के डी. राजा उपस्थित हुए थे। बाद में केसीआर ने महाराष्ट्र के नांदेड़ में भी एक सार्वजनिक सभा को सम्बोधित किया, जो कि तेलंगाना से बाहर उनका पहला बड़ा हस्तक्षेप था।
केसीआर और केजरीवाल, दोनों की महत्वाकांक्षाएं राष्ट्रीय हैं। लेकिन राहुल बीआरएस और आम आदमी पार्टी को भाजपा की बी-टीम कहते हैं। अखिलेश यादव का झुकाव अभी तक किसी के प्रति नहीं है। वे राष्ट्रीय स्तर पर तो कांग्रेस का समर्थन करते हैं, लेकिन यूपी में उसके पंख कतर देना चाहते हैं। उनका यह रवैया 2024 में राहुल के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। लेकिन ममता बनर्जी के बारे में क्या?
उन्होंने अपने पत्ते नहीं खोले हैं और उनके स्थान पर महुआ मोइत्रा और डेरेक ओ ब्रायन बयान देते नजर आते हैं। क्या 2024 में टीएमसी कांग्रेस के नेतृत्व वाले किसी मोर्चे के पीछे एकजुट होगी? इसके आसार कम ही नजर आते हैं। इससे ज्यादा इस बात की सम्भावना अधिक है कि 2024 से पहले कांग्रेस और क्षेत्रीय क्षत्रपों के बीच राज्यों के स्तर पर एक आपसी-समझ निर्मित हो।
जाहिर है कि यह भी एक जटिल रणनीति है। मिसाल के तौर पर, ओडिशा में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की बीजद अपने राज्य में तेजी से उभर रही भाजपा से अपना किला बचाने के लिए हरसम्भव प्रयास करेगी और इस फेर में नुकसान कांग्रेस का होगा। तेलंगाना, यूपी और तमिलनाडु में भी यही कहानी दोहराई जा सकती है।
इसका ये मतलब नहीं है कि भाजपा के लिए चिंता का कोई कारण नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लगता है कि 2019 में जैसे भाजपा ने गुजरात, हरियाणा, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली में क्लीन-स्वीप करते हुए सभी लोकसभा सीटें जीत ली थीं, उसे 2024 में दोहराना कठिन होगा।
2019 में विपक्ष विभाजित था। लेकिन 2024 में आपसी मतभेदों के बावजूद राहुल, ममता, केजरीवाल और केसीआर एक चुनाव-पूर्व समझ निर्मित कर सकते हैं। विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का चेहरा कौन होगा, इस विवादास्पद मसले को हाल-फिलहाल के लिए दरकिनार कर दिया जाएगा। फोकस क्षेत्रीय पार्टियों के बीच राज्यव्यापी समन्वय पर रहेगा, ताकि हिंदी पट्टी में भाजपा के विजयरथ को रोका जा सके।
2019 में भाजपा ने हिंदी पट्टी के नौ राज्यों में 183 सीटें जीती थीं। राजस्थान में 24, गुजरात में 26, यूपी में 62, एमपी में 28, हरियाणा में 10, बिहार में 17, दिल्ली में 7, उत्तराखण्ड में 5 और हिमाचल में 4 सीटें जीतने में वह सफल रही थी।
शेष सीटें पूर्वोत्तर, कर्नाटक, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और सबसे महत्वपूर्ण महाराष्ट्र से प्राप्त हुई थीं। लेकिन उसके बाद से महाराष्ट्र और बिहार में भाजपा अपने गठबंधन सहयोगियों शिवसेना और जदयू को गंवा चुकी है। विपक्ष को इसमें भाजपा की कमजोरी दिखलाई देती है, लेकिन करीब से देखें तो वास्तविकता और जटिल है।
महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना ने मिलकर 2019 का चुनाव लड़ा था। भाजपा ने राज्य की 48 में से 25 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। इनमें से 23 में उसे जीत मिली। शिवसेना ने 23 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिनमें से 18 सीटें उसने जीतीं। यानी भाजपा का स्ट्राइक-रेट शिवसेना से बेहतर था।
2024 में शिवसेना से मुक्त होने के बाद भाजपा 35 से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ सकती है और शेष सीटें नए गठबंधन सहयोगी एकनाथ शिंदे की बीएसएस के लिए छोड़ सकती है। शिवसेना और कांग्रेस के अंतर्कलहों को देखते हुए भाजपा महाराष्ट्र में 2019 से ज्यादा सीटें जीत सकती है।
बिहार की 40 सीटों पर राजद-जदयू गठबंधन कड़ी चु़नौती पेश करेगा। लेकिन महाराष्ट्र की तरह यहां भी भाजपा पहले से ज्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी। 2019 में उसने यहां अपनी सभी 17 सीटें जीत ली थीं और इस बार वह बिहार में अपनी सीटों की संख्या में इजाफा कर सकती है।
कर्नाटक का मामला जरा पेचीदा है। मुख्यमंत्री बी.एस. बोम्मई के नेतृत्व में यहां भाजपा के द्वारा किया गया लचर प्रदर्शन उसकी 25 सीटों में सेंध लगा सकता है। हिजाब, हलाल, लव जिहाद के मसलों में अब जान नहीं बची है। चुनावों का नतीजा सुप्रशासन के आधार पर निकलेगा। बंगाल में थ्योरिटिकली तो ममता अजेय हैं, लेकिन ओपिनियन पोल बताते हैं कि टीएमसी के हिंसक और भ्रष्ट राजकाज के विरुद्ध गरीबों और मध्यवर्ग में असंतोष है। इसका अनपेक्षित फायदा भाजपा को मिल सकता है।
पीएम पद के लिए एक अनार सौ बीमार?
भारत महादेश है। यहां अनेक राज्यों की आबादी फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी के बराबर है। यूपी की आबादी पाकिस्तान जितनी है और बिहार-महाराष्ट्र की जापान जितनी। ऐसे में केंद्रीय प्रश्न यह है कि विचारधारा, भाषा और संस्कृति के आधार पर बंटे हुए विपक्षी दल क्या भाजपा को हराने के लिए एकजुट होंगे? या क्या पीएम पद के लिए एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति से उन्हें नुकसान होगा?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)