क्या राज्य की सरकारें भी विदेश नीति तय कर सकती हैं?
क्या राज्य की सरकारें भी विदेश नीति तय कर सकती हैं?
भारत की विदेश नीति कौन तय करता है? आप कहेंगे कि नई दिल्ली में बैठी केंद्र सरकार। लेकिन क्या हो अगर राज्य सरकारें भी इसमें कूद पड़ें, और क्या वे ऐसा कर भी सकती हैं? इस सवाल पर अभी बहस हो रही है और इसका श्रेय पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को जाता है, जिन्होंने बांग्लादेश में चल रहे विरोध-प्रदर्शन पर टिप्पणी की है।
सरकारी नौकरियों में आरक्षण को लेकर बांग्लादेश में हिंसक विरोध-प्रदर्शन चल रहे हैं। इसमें सौ से ज्यादा लोग मारे गए हैं और कई घायल हुए हैं। हिंसा के बीच ममता बनर्जी ने एक प्रस्ताव जारी करते हुए कहा कि अगर बांग्लादेश से शरणार्थी बंगाल में आते हैं, तो वो उन्हें शरण देंगी। लेकिन समस्या यह है कि उन्हें ऐसा प्रस्ताव रखने का अधिकार नहीं है।
बांग्लादेश ने भी इसका विरोध किया है। उसने ढाका में भारतीय उच्चायोग में औपचारिक शिकायत भी दर्ज कराई है और नई दिल्ली ने इसकी पुष्टि की है। नई दिल्ली ने यह भी कहा कि संविधान की 7वीं अनुसूची के तहत, विदेशी मामलों का संचालन केवल केंद्र सरकार का ही विशेषाधिकार है। राज्यों का उसमें कोई दखल नहीं है। वे विदेश मंत्रालय को केवल सुझाव भर ही दे सकते हैं।
इसके बावजूद यह हो रहा है, और सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही नहीं। केरल में तो वहां की राज्य सरकार ने अपना खुद का एक ‘विदेश सचिव’ नियुक्त कर रखा है- विदेश में केरल से जुड़े मामलों की देखभाल के लिए। एक बार फिर, केंद्र ने कहा कि राज्य सरकारों को उन मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, जो उनके संवैधानिक अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं।
यह एक चिंताजनक मसला है। क्योंकि विदेश नीति, कर या शराब कानून की तरह नहीं होती। आप अलग-अलग राज्यों के लिए विदेश नीति सम्बंधी अलग-अलग नियम नहीं बना सकते। इसकी एक ही नीति होनी चाहिए।
हमारे संविधान-निर्माताओं ने इस बात को समझा था। वे चाहते थे कि विदेश में पूरा भारत एक स्वर में बोले। यही कारण है कि केवल केंद्र ही विदेश नीति निर्धारित कर सकता है। कल्पना कीजिए अगर ऐसा नहीं होता तो। क्या होता अगर जम्मू-कश्मीर के पास पाकिस्तान से बातचीत करने के लिए अपनी पृथक विदेश नीति होती?
अगर तमिलनाडु के पास श्रीलंका के तमिलों से संपर्क करने की अपनी नीति होती तो? अगर पंजाब के पास खालिस्तानियों से निपटने की अपनी नीति होती तो? और क्या होता अगर अरुणाचल प्रदेश के पास मान्यता के लिए चीन से बातचीत करने की अपनी नीति होती? तब जो अराजकता मचती, क्या आप उसकी कल्पना कर सकते हैं?
राष्ट्रीय हित पीछे छूट जाता, क्षेत्रीय हितों का बोलबाला होता। हमारे संविधान-निर्माता इसे रोकना चाहते थे। इसलिए कुछ शक्तियां केवल केंद्र के पास छोड़ी गई हैं, जैसे विदेश नीति और रक्षा। अगर आप इसे कमजोर करते हैं तो एक खतरनाक मिसाल कायम करते हैं। साथ ही, अगर नीतियां एक-दूसरे का खंडन करती हों तो क्या होगा?
पश्चिम बंगाल शरणार्थियों का स्वागत कर सकता है, लेकिन असम निश्चित रूप से ऐसा नहीं चाहता। तब क्या वे इससे लड़ने के लिए अपनी सेनाएं भी खड़ी करेंगे? इस तरह के कदम भारत के संघवाद की नींव को कमजोर करते हैं।
सवाल यह है कि इसके बारे में क्या किया जा सकता है? सबसे पहले तो चीजों को दुरुस्त करना होगा। भाजपा ने केरल सरकार के कदम को असंवैधानिक बताया है। देखते हैं कि इसके बाद कोई कानूनी चुनौती आती है या नहीं। अगर ऐसा होता है, तो अदालतें हस्तक्षेप कर सकती हैं और मामले का निराकरण करने की पेशकश कर सकती हैं।
दूसरे, हमें संघीय विभाजन को ठीक करने की जरूरत है। और यहां सिर्फ विदेश नीति की बात नहीं है। पश्चिम बंगाल और सीबीआई के बीच विवाद पर विचार करें। ममता बनर्जी का कहना है कि सीबीआई को उनके खिलाफ हथियार बनाया गया है।
2018 में, उन्होंने अपने राज्य से सीबीआई को बाहर कर दिया था। मामला अब अदालत में है। एक और उदाहरण सीएए का है। संसद ने इसे पारित कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है। फिर भी, कुछ राज्यों ने इसके खिलाफ प्रस्ताव पारित किए हैं। उनका कहना है कि वे सीएए का पालन नहीं करेंगे।
दूसरी तरफ तमिलनाडु में राज्यपाल राज्य सरकार द्वारा पारित विधेयकों पर हस्ताक्षर करने और सरकार द्वारा तैयार भाषणों को पढ़ने से इनकार कर देते हैं और महत्वपूर्ण नियुक्तियों को रोक देते हैं। यह भी संविधान के अनुरूप नहीं है। और ये सभी मामले एक समस्या की ओर इशारा करते हैं- भारत के संघीय ढांचे में तनाव।
इसकी कल्पना कई गियर वाली एक मशीन के रूप में करें। देश की तरक्की के लिए उन सभी को एक साथ काम करना चाहिए। संघवाद भारत की ताकत है। लेकिन राजनीतिक दल एकजुट होकर काम नहीं करेंगे, तो यह ताकत एक बाधा बन जाएगी।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)