जाति-धर्म के मुद्दे पर नेताओं का दोहरा रवैया घातक …!

नेता जाति का विरोध भी करते हैं और इसका लाभ भी उठाते हैं …

लो कतंत्र की व्यवस्था में राजनीति समाज की उन्नति के लिए एक उपाय के रूप में अपनाई गई। इसलिए सिद्धांतत: उसकी प्रतिबद्धता और जिम्मेदारी जनता और देश के साथ होती है। दुर्भाग्यवश दलगत राजनीति के चलते नेता राजनीति के इस बड़े प्रयोजन से आंख मूंद लेते हैं। दूसरी ओर वे ऐसे मुद्दों और प्रश्नों को लेकर घोर चिंता और विमर्श को जीवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते, जिनके सहारे उनके पक्ष की कुछ पुष्टि होती दिखती है या फिर मीडिया में चर्चा के बीच बने रहने के लिए जगह मिल जाती है। इस सिलसिले में ताजी हलचल जाति की प्रतिष्ठा को लेकर मची हुई है।

हमारे राजनेता जाति को लेकर बड़े ही संवेदनशील रहते हैं। विडंबना यह है कि एक ओर नेता जाति का विरोध करते नहीं थकते, दूसरी ओर व्यवहार के स्तर पर वे जमीनी हकीकत को पहचानते और जानते हैं कि किस तरह जाति बिरादरी, रिश्तों-नातों से जुड़ी हुई है। जाति एक राजनीतिक हथियार भी है, इस सच्चाई से वे भलीभांति वाकिफ हैं और उसकी रक्षा के लिए जी जान से जुटे रहते हैं। वे जानते हैं कि वोट इसी के आधार पर बटोरने होंगे। विचार और व्यवहार की यह दुविधा देश की नियति बन चुकी है। यह एक ऐसी खाई है, जिसे भारतीय राजनीति पार करने या पाटने के लिए अपने को तैयार नहीं कर पा रही। जाति विरोधी भी जाति की जयकार करते नहीं अघाते। उनका असमंजस वाला विचार यही है कि जाति ठीक तो नहीं है, पर जाति जाए भी नहीं। इस तरह जाति-विरोध और जाति-सुरक्षा दोनों पर एक ही वक्ता सज-धज कर मंच पर बैठे मिलते हैं और अपने छद्म को सही साबित करते रहते हैं। अवसर निकाल कर जाति को आसानी से ‘धर्म’ से जोड़ दिया जाता है, फिर जाति और वर्ण को इच्छानुसार मिला दिया जाता है और उसे पाप मानते हुए अपनी सुविधानुसार किसी के भी ऊपर ठीकरा फोड़ा जाता है। यह कहानी जब तब दुहराई जाती रहती है, खासतौर पर तब जब हाथ में कुछ नहीं हो और चुनाव की आहट के बीच बढ़ते वैचारिक शून्य को भरने की उतावली रहती है। इन दिनों गोस्वामी बाबा तुलसीदास पर हाथ साफ किया जा रहा है। इस बहाने नेताओं को मीडिया के जरिये अपनी व्याख्या-कुव्याख्या का अवसर मिलता है। इन सबके बीच अभिव्यक्ति की आजादी अज्ञान पर टिके वैचारिक प्रदूषण का एक जरिया भी बनती जा रही है। ऐसे में गोस्वामी तुलसी दास जैसे संत और उनकी वाणी को आरोपित करना और बिना समझे-बूझे साहित्य से बहिष्कृत करने तक की संस्तुति देना, अब बड़ा सरल हो गया है। अच्छा हो साहित्य के अध्ययन विश्लेषण का कार्य साहित्यकारों को ही करने दिया जाए।

धर्मशास्त्रों, महाभारत आदि ग्रंथों में धर्म का विस्तृत विवरण मिलता है। धर्म, जिसे मनुष्यता का लक्षण कहा गया, धर्म के विचार के साथ न्याय न कर उसे सेकूलर का विरोधी घोषित कर रेलिजन का समानार्थी बना दिया गया। हमें धर्म शब्द का विवेक के साथ उपयोग करना चाहिए। रही बात तुलसीदास की और उनके धर्म और जाति के विवेक की, तो खुद उन्हीं के शब्द याद करने की जरूरत है। वे कहते हैं- ‘सो सब धर्म कर्म जरि जाऊ। जिहि न राम पद पंकज भाऊ ।। जाति-पाति धनु धरमु बड़ाई । सब तजि रहे तुम्हहि लौ लाई ।।’ राम जी , जात-पात, धन , धर्म, बड़ाई , सब कुछ छोड़ कर जो तुममें लौ लगाए , आप वहीं रहो। जो आदमी धर्म-जाति से चिपका रहे, वहां न रहो , तुम्हारे लिए वहां जगह नहीं है, वहां रहो जहां यह सब छोड़ कर केवल तुममें ध्यान रहता है। राम में ध्यान का मतलब है, सबके सुख-दुख का ध्यान, सबकी आवश्यकता का ध्यान। राम का ध्यान समूचे जीवन को देखना है। क्षुद्र सीमाओं का अतिक्रमण कर व्यापक होना है और मानवीय मूल्य को प्रतिष्ठित करना है। यही धर्म है और उससे निरपेक्ष नहीं हुआ जा सकता। लोभ और स्वार्थ से ऊपर उठाना धर्म का प्रयोजन है ।

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