सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों को राजनीतिक पचड़े में न पड़ने की सलाह आख़िर क्यों दी?

आख़िर सुप्रीम कोर्ट ने भी कह ही दिया कि राज्यपाल को राजनीतिक मामलों में नहीं पड़ना चाहिए। हालाँकि यह एक टिप्पणी भर ही है। कोई आदेश नहीं है लेकिन बात तो कोर्ट ने कही ही है। मामला महाराष्ट्र का है। शिवसेना के विभाजन से संबंधित एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों की बैंच सुनवाई कर रही है।

इसमें राज्यपाल की ओर से कहा गया कि शुरुआत में ही बेमेल गठबंधन हुआ और सरकार ऐसे दलों ने बना ली जिनका चुनाव पूर्व कोई गठबंधन था ही नहीं। इस पर कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को ऐसे पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहिए। हालाँकि कोर्ट ने इस मामले में फ़ैसला सुरक्षित रख लिया कि इसे सात जजों की बैंच को भेजा जाए या नहीं!

ख़ैर, सुप्रीम कोर्ट की भावना से राजनीतिक दल कभी सहमत नहीं रहे। सहमति दे भी दी तो इस पर उन्होंने अमल कभी नहीं किया। हाल ही में कई राज्यों के राज्यपाल बदले गए हैं। इनमें वे नौ राज्य भी शामिल हैं जिनमें निकट भविष्य में चुनाव होना है। इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी, यह तो सरकार ही जाने लेकिन हुआ तो है। ऐसा नहीं है कि पहले की सरकारों ने ऐसा नहीं किया। जो भी सरकार केंद्र में आती है, राज्यपालों की नियुक्ति के ज़रिए अपने हित साधने की मंशा उसकी रहती ही है।

ख़ासकर, उन राज्यों में जहां दूसरे दलों की सरकार होती है या किसी एक दल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ हो उस राज्य में। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल भंडारी का क़िस्सा तो सभी को याद है जब कथित तौर पर उन्होंने एक विवादित निर्णय लिया था।

इस फ़ैसले के खिलाफ भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी धरने पर बैठ गए थे और इस धरने से देशभर में कोहराम मच गया था। आख़िरकार राज्यपाल को फ़ैसले पर पुनर्विचार करना पड़ा था।

रिटायर्ड ब्रिगेडियर डॉ. बीडी मिश्रा को हाल ही में लद्दाख का उप-राज्यपाल बनाया गया है। इससे पहले वह अरुणाचल प्रदेश और मेघालय के राज्यपाल रहे।
रिटायर्ड ब्रिगेडियर डॉ. बीडी मिश्रा को हाल ही में लद्दाख का उप-राज्यपाल बनाया गया है। इससे पहले वह अरुणाचल प्रदेश और मेघालय के राज्यपाल रहे।

कुल मिलाकर राजनीतिक दलों को ज़्यादातर अपने बुजुर्ग नेताओं को राज्यपाल बनाने की परिपाटी से मुक्ति पानी चाहिए। इसके सिवाय और कोई चारा नहीं है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आख़िर राज्यपाल बनाया किसे जाए? दरअसल, विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ भारत में हैं। राज्यपाल पद के लिए इनमें से ही चयन होना चाहिए। जैसे राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में कुछ विषय विशेषज्ञों को मनोनीत सदस्य बनाया जाता है। अभी जिन्हें राज्यपाल बनाया जाता है उनमें अधिकांश पुराने नेता ही होते हैं।

जिन्होंने जीवनभर राजनीति को ही जीया हो, वे बिना राजनीति किए कैसे रह सकते हैं? राज्यपालों को राजनीतिक पचड़े में नहीं पड़ने की सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का मान अगर रखना है तो विषय विशेषज्ञों के चयन के सिवाय कोई रास्ता फ़िलहाल तो नज़र नहीं आता।

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