सरकार! पेपर इंटरनेट से नहीं, अलमारियों से लीक होते हैं …!

2 साल में लगभग हर एग्जाम से पहले डिजिटल इमरजेंसी, फिर भी माफिया तक पहुंच रहे पेपर …

राजस्थान सरकार ने प्रदेश की आधी से ज्यादा आबादी को इंटरनेट-बंदी बना दिया। आम जनता का कसूर बस इतना है कि वो उस प्रदेश की जनता है, जहां भ्रष्ट तंत्र पेपर लीक नहीं रोक पाता और सरकार नेटबंदी कर जनता को सजा देती है। शुक्रवार रात से लेकर अब तक जनता के मन में सिर्फ एक सवाल है कि क्या नेटबंदी से पेपर लीक रुक जाएगा? क्या आम जनता के मौलिक अधिकारों का काेई सरकार ऐसे हनन कैसे कर सकती है? वह भी तब जब सुप्रीम कोर्ट नेटबंदी को गलत घोषित कर चुका है।

याद कीजिए, पिछले 2 साल में कितने एग्जाम हुए, जब सरकार ने इंटरनेट बंद किया, इसके बावजूद पेपर लीक हुए, खुलेआम नकल हुई। पेपर रद्द हुए।

ऐसे में सवाल उठता है कि अगर इंटरनेट बंद करना ही समस्या का समाधान है तो पेपर क्यों लीक हो जाते हैं? सरकारें क्यों नहीं समझती कि पेपर अलमारी से लीक होता है, इंटरनेट से नहीं।

इंटरनेट से दुनिया चल रही है। पूरा जीवन अब उसके ईद-गिर्द हैं, लेकिन अलमारियों में रखे पेपर को बचाने की जिम्मेदारी जिस सिस्टम की है, उसे दीमक ने चट कर रखा है।

गहलोत के नेतृत्व में मौजूदा सरकार ने लगभग सवा चार साल का वक्त पूरा कर लिया है। पूरा जोर सोशल सिक्योरिटी पर रहा। युवाओं को भी फोकस किया गया। कई घोषणाएं और कोशिश की गई, लेकिन इंटरनेट बंदी के वक्त क्या कभी ये सोचा गया? क्या नेटबंदी कर सरकार सोशल सिक्योरिटी से ही समझौता कर रही है?

  

  1. सब्जी, दूध, पानी पूड़ी, मिठाई, फल-सब्जी, पान के थड़ी तक पर अब डिजिटल पैमेंट होता है। अगर दो-दो तीन दिन नेट बंद होगा तो वो अपना घर कैसे चलाएगा? दुकानदार कहां जाएंगे?
  2. जयपुर, कोटा, उदयपुर सहित कई बड़े शहरों में कैब सर्विस हैं। इन 5 हजार कैब में प्रतिदिन 40 हजार से ज्यादा लोग सफर करते हैं, इनका क्या?
  3. ओला, उबर, रेपिडो, जोमेटो, स्विगी सहित कई ऑनलाइन व्यवस्था से जुड़ी सेवाओं के लोगों की अघोषित छुट्‌टी हो गई, उनका क्या? वे इंटरनेट बंद होते ही बेरोजगार हो गए।
  4. कोरोनाकाल के बाद ऑनलाइन क्लासेज का चलन है। नेटबंदी के तुरंत बाद इनकी भी छुट्‌टी, उनका क्या होगा ?
  5. एग्जाम में नेटबंदी के कारण उन कैंडिडेट्स की परेशानी भी बढ़ गई है, जिनका दूसरे शहर में सेंटर है। आमतौर पर स्टूडेंट्स एग्जाम सेंटर तक पहुंचने के लिए गूगल मैप की मदद लेते हैं, लेकिन नेटबंदी से वो ऑप्शन भी छिन गया है।

एक लोक कहावत बेहद प्रचलित है- ‘कबूतर ने कुओं ही दीखे’। यानी, कबूतर हमेशा कुएं में घौंसला बनाता है। क्योंकि उसे लगता है यहां खतरा नहीं है। राजस्थान में सरकारों के लिए इंटरनेट कुएं की तरह बना हुआ है। विफलताओं को छुपाने के लिए इसका मनमान इस्तेमाल होने लगता है। परीक्षाओं को करवाना हो या कानून का राज स्थापित करना हो, एक ही चीज समझ आती है इंटरनेट बंद।

भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा प्रदेश का सरकारी तंत्र ये भूल जाता है कि इंटरनेट बंद करना आमजन के अधिकारों की हत्या करने जैसा है।

सरकार अगर इंटरनेट को फंडामेंटल राइट (मौलिक अधिकार) नहीं मानती तो उसे सुप्रीम कोर्ट की जनवरी 2020 में की गई टिप्पणी दोबारा पढ़नी चाहिए, जिसमें कहा गया है- इंटरनेट संविधान के अनुच्छेद-19 के तहत लोगों का मौलिक अधिकार है। यानी यह जीने के हक जैसा ही जरूरी है। इंटरनेट को अनिश्चितकाल के लिए बंद नहीं किया जा सकता।

इंटरनेट बंदी जनता पर डिजिटल इमरजेंसी थोपने जैसा है। अपनी नाकामियों और कमजोरियों को छुपाने के लिए किया गया ये सबसे बेतुका प्रयोग है। अगर सरकारों को पेपर लीक रोकना हो या कानून का राज स्थापित करना हो। उन्हें ऐसा तंत्र बनाना होगा, जो मजबूत प्रहार को सहन कर सकें। अभी जो दीमक सुरक्षित तिजोरियों को चट कर रही है, वहां सख्त कार्रवाई का कीटनाशक छिड़ककर ट्रीटमेंट करना होगा।

कुआं…(इंटरनेट) तो हमेशा प्यास बुझाता है। इंटरनेट आज हमारी दुनिया है। सूचना तंत्र का चुस्त रहना किसी प्रदेश की समृद्धि के रास्ते खोलता है। कुएं में कबूतर का बिल्ली और बाज शिकार नहीं करते। ये छोटी, लेकिन गहरी बात सरकार जितनी जल्दी समझ जाए अच्छा है। सरकारी व्यवस्थाओं में अब किसी की ज्यादा विश्वास बचा नहीं है। विपक्ष के आरोपों का जवाब देने में लगी सत्ता को थोड़ा समय निकाल जनता के आक्रोश पर नजर डालनी चाहिए। शर्त बस इतनी ही है कि सच समझ आ जाए।

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