बैंकों की सुरक्षा इकोनॉमी की विश्वसनीयता के लिए केंद्रीय महत्व की होती है
बैंकों को अमूमन एक सुरक्षित जगह के रूप में देखा जाता है। अपने पैसों की सुरक्षा के लिए आप उन्हें बैंक में रख देते हैं। हम अपने जीवनभर की बचत बैंकों को दे देते हैं और हमारा वेतन भी अब पहले बैंकों में ही जमा होता है। बहुत सारे लोग आज भी स्टॉक मार्केट पर भरोसा नहीं करते या वे बॉन्ड मार्केट के बारे में ज्यादा नहीं जानते। लेकिन वे बैंक पर जरूर भरोसा करते हैं और उसमें खुशी-खुशी अपना पैसा जमा करा देते हैं।
यही कारण है कि यह विचार हमें विचलित कर सकता है कि बैंकों में जमा कराया गया पैसा जोखिम में हो सकता है और बैंकें डूब सकती हैं। अमेरिका और यूरोप के अमीर देशों में भी बैंकें डूबती हैं। हाल ही में अमेरिका की 16वीं सबसे बड़ी बैंक सिलिकॉन वैली बैंक या एसवीबी अपनी 209 अरब डॉलर की सम्पत्ति सहित दिवालिया हो गई।
इस बैंक ने टेक्नोलॉजी कम्पनियों और वेंचर कैपटलिस्टों के साथ बिजनेस करने पर फोकस किया था। अमूमन बैंकें क्रेडिट रिस्क के कारण डूबती हैं। यह स्थिति तब बनती है, जब बैंक से कर्ज लेने वाली कम्पनियां भुगतान नहीं कर पातीं। 2008 में जब अमेरिका में वित्तीय संकट आया था तो उसके मूल में डिफॉल्टिंग घर-मालिक थे। इस बार वजह अलग है। मौजूदा संकट बढ़ती ब्याज दरों और ड्यूरेशन सम्बंधी खतरों के कारण आया है।
इससे हमें बैंकिंग संकटों के बारे में यह पता चलता है कि वे भिन्न-भिन्न कारणों से घटित होते हैं। विशेषज्ञों का मत है कि अमेरिका के मौजूदा रेगुलेटरी स्ट्रेस-टेस्ट्स एसवीबी के साथ होने वाली किसी भी गड़बड़ी का पता नहीं लगा सके थे। बैंकों के नियमन का फोकस मुख्यतया क्रेडिट की गुणवत्ता की जांच पर होता है, जिससे इक्विटी कैपिटल की पर्याप्त मात्रा को सुनिश्चित किया जाता है।
ड्यूरेशन के खतरों और ब्याज दरों के जोखिम की इतनी निगरानी नहीं की जाती। आज के समय में खबरें जितनी तेजी से फैलती हैं, उससे भी हालात बदतर होते हैं। हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जहां हमें मात्र एक घंटे के अंदर पता चल जाता है कि किस सेलेब्रिटी के यहां बच्चा हुआ है और कौन-सी बैंक खतरे में है।
जैसे ही एसवीबी के बारे में बुरी खबरें फैलना शुरू हुईं, घबराहट की स्थिति निर्मित हो गई। डिपॉजिटर्स बैंक से पैसा निकालने दौड़े। दुनिया की कोई भी बैंक- फिर चाहे वह कितनी ही सुरक्षित या नियमित क्यों न हो- उस स्थिति का सामना नहीं कर सकती, जब डिपॉजिटर्स पैसा निकालने पर आमादा हो गए हों।
आखिरकार, अमेरिकी सरकार ने स्थिति को नियंत्रण में लेते हुए डिपॉजिट्स की गारंटी ली। ऐसा न होता तो यह संकट अमेरिका की दूसरी बैंकों में भी फैल सकता था। यूरोप में भी 156 साल पुराना स्विस वित्तीय संस्थान क्रेडिट सुईस ढह गया। एक बड़े स्विस बैंक यूबीएस को उसकी जिम्मेदारी लेना पड़ी और यूबीएस की सुरक्षा का भार स्विस सरकार ने अपने कंधों पर उठाया। क्योंकि जब कोई बड़ा बैंक धराशायी होता है तो इसका इकोनॉमी पर खासा असर पड़ता है।
भारत अभी इन एसवीबी या क्रेडिट सुईस में आए संकटों से सुरक्षित बना हुआ है। हम अभी तक इतने अंतरराष्ट्रीय रूप से एकीकृत नहीं हुए हैं, अलबत्ता हम दिन-ब-दिन होते जा रहे हैं। लेकिन हमारे यहां भी बैंकिंग सेक्टर है और उसके सामने भी वैसे ही खतरे हैं।
बैंकों की सुरक्षा को कायम रखने के लिए हमने अतीत में अनेक रेगुलेशनों को पास किया है। लेकिन हमें ब्याज दरों, ड्यूरेशन रिस्क और बाजार की ताकतों को होने वाले एक्सपोजर जैसे क्रेडिट-सम्बंधी खतरों पर ध्यान देना होगा, क्योंकि इनमें निरंतर उतार-चढ़ाव होता है।
हमें यह देखने के लिए रेगुलेटरी स्ट्रेस टेस्ट्स की जरूरत है कि ड्यूरेशन मिसमैच, मार्क-टु-मार्केट एक्सपोजर और ब्याज दरों की संवेदनशीलता का वर्तमान स्तर क्या है। हमें अचानक निर्मित होने वाली घबराहट की स्थिति का सामना करने की भी तैयारी रखनी चाहिए। बैंकों के पास आपात-स्थिति से निपटने के लिए स्पष्ट कम्युनिकेशन-पॉलिसी होनी चाहिए।
सरकारें भी बैंकों को एक कॉमन कंसोर्टियम फंड के निर्माण के लिए बाध्य कर सकती हैं, ताकि आपात स्थिति में किसी सदस्य-बैंक की मदद की जा सके। अमेरिका और यूरोप के बैंकिंग-संकट बैंकिंग प्रणालियों में निहित कुछ असामान्य खतरों की ओर संकेत करते हैं। अब जब भारत की इकोनॉमी तेजी से आगे बढ़ रही है तो ऐसे में हमारे बैंकिंग-सेक्टर का आकार भी बढ़ेगा। हमें हर तरह के खतरों से बचाव के लिए निगरानी रखते हुए रेगुलेशन बनाना होंगे।
अमेरिका और यूरोप के बैंकिंग-संकट बैंकिंग प्रणालियों में निहित कुछ असामान्य खतरों की ओर संकेत करते हैं। भारत के बैंकिंग-सेक्टर का आकार भी बढ़ रहा है, इसलिए हमें निगरानी रखना होगी।