आज चीन से भिड़े तो हार सकता है अमेरिका !

यूक्रेन को इतनी मिसाइल्स दीं कि US का स्टॉक खाली…भरने में 13 साल लगेंगे

यूक्रेन और रूस की जंग में कौन जीतेगा ये कह पाना मुश्किल है…लेकिन एक साल से ज्यादा खिंच चुकी इस लड़ाई की वजह से बढ़ता तनाव दुनिया के दूसरे हिस्सों में दिखना अब तय माना जा रहा है।

खुद को दुनिया की अकेली महाशक्ति मानने वाले अमेरिका के रक्षा विशेषज्ञों को पूरा भरोसा है कि रूस, यूक्रेन में भारी पड़ा तो चीन इसी बहाने ताइवान पर हमला कर सकता है।

अमेरिका ने बार-बार भरोसा दिलाया है कि अगर चीन ने ऐसा कदम उठाया तो उसे सिर्फ ताइवान से नहीं, अमेरिका से जंग लड़नी होगी।

लेकिन, एक सच्चाई ये है कि अगर आज चीन से भिड़ना पड़ जाए तो अमेरिका के पास हथियार और गोला-बारूद ही कम पड़ जाएगा।

ये बात हैरान करने वाली लगती है कि सीरिया से इराक और अफगानिस्तान तक कहीं भी ड्रोन स्ट्राइक करने वाले अमेरिका के पास हथियार कम पड़ जाएं।

मगर, सच यही है। दरअसल, यूक्रेन में चल रहे युद्ध के लिए अमेरिका ने इतनी मिसाइल्स और हथियार दिए हैं कि उसका अपना भंडार खाली हो गया है।

हालात ये हैं कि अमेरिकी सेना में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाली स्टिंगर और जैवलिन मिसाइल्स बनाने वाली कंपनी रेथियॉन खुद मान रही है कि आज की स्पीड पर प्रोडक्शन जारी रहे तो स्टिंगर मिसाइल्स का स्टॉक पूरा करने में 13 साल लग जाएंगे।

रूस के साथ लंबा शीतयुद्ध खत्म होने के बाद अमेरिका ने रक्षा खर्च में कटौती के लिए डिफेंस प्रोडक्शन का ढांचा पूरी तरह बदला था। लेकिन इस बदलाव की वजह से आज युद्ध की आशंकाओं के बीच प्रोडक्शन बढ़ाने के लिए कंपनियां ही नहीं हैं।

मिसाइल्स और गोला-बारूद का बजट 2022 के मुकाबले 2023 में 4 बिलियन डॉलर बढ़ाया गया था। 2024 के लिए इस खर्च में फिर 4 बिलियन डॉलर से ज्यादा का इजाफा किया गया है।

जानिए, आखिर कैसे एक महाशक्ति के सामने हथियारों का संकट खड़ा हो गया है…और क्यों अमेरिका के लिए आज चीन से निपटना मुश्किल हो सकता है।

पहले समझिए, आज अमेरिका के मिसाइल भंडार के हालात क्यों बिगड़े

यूक्रेन को 33 बिलियन डॉलर की मदद दे चुका है अमेरिका…इसमें सबसे ज्यादा मिसाइल्स

यूक्रेन और रूस के बीच जंग छिड़ने के बाद अमेरिका ने यूक्रेन को 33 बिलियन डॉलर यानी करीब 2.72 लाख करोड़ की मदद दे चुका है।

इस मदद में मुख्यत: स्टिंगर और जैवलिन और SM-6 जैसी मिसाइल्स और आर्टिलरी शेल्स शामिल हैं। अमेरिका ये वो हथियार हैं जो किसी भी युद्ध की स्थिति में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होते हैं।

स्टिंगर और जैवलिन मिसाइल्स का इस्तेमाल कई तरह से किया जाता है। इन्हें कंधे पर उठाए जा सकने वाले लॉन्चर की मदद से चलाया जा सकता है। किसी भी गाड़ी पर लॉन्चर माउंट किया जा सकता है। यही नहीं इनका इस्तेमाल फाइटर जेट्स और अटैक हेलीकॉप्टर्स में भी होता है।

SM-6 को लॉन्ग रेंज एंटी-शिप मिसाइल कहा जाता है। इसे मुख्यत: दुश्मन के जहाजों को नष्ट करने में इस्तेमाल किया जाता है।

इसके अलावा अमेरिका ने बड़ी संख्या में आर्टिलरी शेल्स यूक्रेन को भेजे हैं। तोप के ये गोले किसी भी जंग में सेना का सबसे बड़ा हथियार होते हैं। इनका इस्तेमाल टैंक, व्हीकल माउंटेड आर्टिलरी यूनिट से लेकर खींचे जाने वाली तोपों में होता है।

आज जंग हो तो एक हफ्ते में खत्म हो जाएंगी अमेरिका की SM-6 मिसाइल्स…क्योंकि इनके रॉकेट मोटर बनाने वाली अब सिर्फ एक कंपनी

स्टिंगर, जैवलिन या SM-6 मिसाइल्स का सबसे जरूरी हिस्सा उसका रॉकेट मोटर होता है। इसे बनाने वाली अमेरिका में दो ही कंपनियां बची हैं…रेथियॉन और एयरोजेट रॉकेटडाइन।

एयरोजेट रॉकेटडाइन की सप्लाई लाइन में कुछ ही दिन पहले भीषण आग लगने की वजह से प्रोडक्शन बंद है और अब सिर्फ रेथियॉन ही इन मिसाइल्स को तैयार कर रही है।

रेथियॉन के चीफ एक्जिक्यूटिव ग्रेगोरी हेज ने पिछले दिनों वॉशिंगटन पोस्ट को दिए एक इंटरव्यू में माना था कि रॉकेट मोटर प्रोडक्शन उनके लिए दिक्कत भरा है क्योंकि डिमांड बहुत ज्यादा है और प्रोडक्शन की क्षमता कम है।

रेथियॉन के मुताबिक आज की प्रोडक्शन स्पीड पर चले तो स्टिंगर मिसाइल्स का स्टॉक पूरा करने में 13 साल लगेंगे। जैवलिन मिसाइल्स का स्टॉक पूरा करने में भी 5 साल लगेंगे।

यूक्रेनी सैनिकों को जैवलिन मिसाइल लॉन्चर की ट्रेनिंग देता अमेरिकी सैनिक। यूक्रेन को अब तक 10 हजार से ज्यादा स्टिंगर और जैवलिन मिसाइल्स अमेरिका दे चुका है।

एयरोजेट अभी स्टिंगर और जैवलिन के रॉकेट मोटर तो बना रही है, मगर SM-6 के रॉकेट मोटर बनाने का जिम्मा अकेले रेथियॉन के पास है।

क्रूज मिसाइल्स के लिए टर्बोफैन इंजन्स बनाने वाली भी सिर्फ एक ही कंपनी विलियम्स इंटरनेशनल है।

आर्टिलरी शेल्स के साथ भी दिक्कत प्रोडक्शन क्षमता की है। आज अमेरिकी सेना को जितने आर्टिलरी शेल्स की जरूरत है, उतना प्रोडक्शन करने के लिए पर्याप्त कंपनियां ही नहीं हैं।

तोप के गोलों और मिसाइल्स की ही नहीं, हथियारों में इस्तेमाल होने वाले बॉल बियरिंग और स्टील कास्टिंग जैसे महत्वपूर्ण हिस्सों का भी प्रोडक्शन भी धीमा है।

अब इन वीडियोज में देखिए कैसे बनते हैं आर्टिलरी शेल्स…

ये तस्वीर कीएव एयरपोर्ट पर पहुंचे अमेरिकी गोलाबारूद के शिपमेंट की है।

अब समझिए, आखिर अमेरिका में हथियारों के प्रोडक्शन की ये हालत क्यों हुई

सबसे बड़ी वजह…बड़े और महंगे सिस्टम्स पर निवेश ज्यादा, मगर बिना मिसाइल्स के ये बिना गोली की बंदूक जैसे

अमेरिका ने पिछले कई सालों में रक्षा उपकरणों और तकनीक के क्षेत्र में अपना निवेश कई गुना बढ़ाया है।

इसी का नतीजा है कि सबसे आधुनिक फाइटर जेट्स और बॉम्बर प्लेन्स हों या अत्याधुनिक ड्रोन्स से लेकर सबमरीन्स…ये सब अमेरिका के पास हैं।

ये डिफेंस सिस्टम्स बड़े हैं, महंगे हैं और इनका मेंटनेंस भी महंगा है। ऐसे में इन पर तो निवेश किया गया, मगर मिसाइल्स और एम्युनिशन पर खर्च में कटौती कर दी गई।

ये सिर्फ अमेरिका ही नहीं, ज्यादातर देशों के रक्षा खर्च का ढर्रा रहा है। यूरोप में अमेरिका के सहयोगी रहे पोलैंड ने भी F-35 फाइटर जेट्स खरीदने की तो तैयारी कर ली है, लेकिन इनमें होने वाली मिसाइल्स खरीदने में हिचकता है।

आज रूस से जंग हो तो पोलैंड के पास F-35 फाइटर जेट्स होंगे, मगर उनकी मिसाइल्स दो हफ्ते में ही खत्म हो जाएंगी।

और अब…समस्या की जड़- कोल्ड वॉर खत्म हुई तो अमेरिका ने डिफेंस प्रोडक्शन कंपनियां बंद करवा दीं

सोवियत संघ के टूटने के बाद अमेरिका ने ये मान लिया कि सालों चली कोल्ड वॉर में उसकी जीत हो गई है।

कोल्ड वॉर के दौरान देश को युद्ध के लिए तैयार रखना जरूरी था और इसी वजह से अमेरिकी सरकार का डिफेंस प्रोडक्शन कंपनियों में निवेश भी ज्यादा था।

इसमें फाइटर जेट्स, सबमरीन्स और युद्धपोत जैसे बड़े डिफेंस सिस्टम्स भी थे और इनमें इस्तेमाल होने वाली मिसाइल्स, गोला-बारूद और छोटे पुर्जे बनाने वाली कंपनियां भी थीं।

कभी अमेरिका की सबसे बड़ी डिफेंस कॉन्ट्रैक्टर मानी जाने वाली कंपनी मार्टिन मैरिएटा के पूर्व सीईओ नॉर्मन ऑगस्टिन ने न्यूयॉर्क टाइम्स से एक किस्सा शेयर किया।

ये तस्वीर 1997 की है जिसमें नॉर्मन ऑगस्टीन (बाएं) तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और उप राष्ट्रपति अल गोर के साथ दिख रहे हैं।

ये बात 1993 की है जब ऑगस्टिन को तत्कालीन बिल क्लिंटन की सरकार में रक्षा मंत्री लेस एस्पिन की तरफ से डिनर का न्योता मिला।

डिनर पर पहुंचे तो पता चला कि वहां देश की लगभग सभी बड़ी डिफेंस कंपनियों के सीईओ मौजूद थे। इस डिनर को डिफेंस इंडस्ट्री का ‘लास्ट सपर’ कहा जाता है।

ऑगस्टिन के मुताबिक इस डिनर मीटिंग के दौरान रक्षा मंत्री एस्पिन ने ये साफ कर दिया कि सरकार रक्षा बजट में कटौती कर रही है और सभी डिफेंस कंपनियां सर्वाइव नहीं कर पाएंगी।

उनकी सलाह थी कि कुछ कंपनियों को या तो प्रोडक्शन बंद कर देना चाहिए या फिर कोई और लाइन पकड़नी चाहिए। सरकार ने ये कंपनियों पर छोड़ दिया कि किसे प्रोडक्शन बंद करना है और किसे बने रहना है।

इसके कुछ ही दिनों बाद डिफेंस प्रोडक्शन इंडस्ट्री में मर्जर्स और एक्विजिशन्स का दौर शुरू हो गया।

मार्टिन मैरिएटा ने जल्द ही जीई एयरोस्पेस और जनरल डायनैमिक्स स्पेस सिस्टम का एक्विजिशन कर लिया। इसके बाद कैलिफोर्निया स्थित लॉकहीड कॉरपोरेशन से उसका मर्जर हो गया। इसके बाद बनी कंपनी ही आज लॉकहीड मार्टिन के नाम से जानी जाती है।

नॉर्मन ऑगस्टिन के मुताबिक उस डिनर मीटिंग में विस्तार से चर्चा हुई थी कि किस डिफेंस कंपोनेंट के लिए कितनी कंपनियों की जरूरत होगी। उन्होंने बाद में इस लिस्ट को टाइप किया और आज भी संभाल कर रखा है….

कोल्ड वॉर के बाद जब भी अमेरिका ने कभी ऐसी लड़ाई लड़ी ही नहीं

रक्षा विशेषज्ञों के मुताबिक कोल्ड वॉर खत्म होने के बाद अमेरिका को जब भी अपनी सैन्य क्षमता का इस्तेमाल करना पड़ा, तो या तो वो बहुत छोटी और तीव्र लड़ाई होती थी या बहुत लंबी मगर लो इंटेन्सिटी की लड़ाई।

जैसे 1990-91 के दौर में पर्शियन गल्फ वॉर या 2003 में इराक युद्ध की शुरुआत बहुत छोटी लड़ाइयां थीं, जिसमें एक बार में ज्यादा ताकत लगानी थी। वहीं अफगानिस्तान में लड़ाई बहुत लंबी थी, मगर इसमें इंटेन्सिटी बहुत कम थी।

ऐसे में अमेरिका को कभी इस तरह की जरूरत ही नहीं पड़ी कि उसे ज्यादा ताकत का इस्तेमाल लंबे समय तक करना पड़े।

अब प्रोडक्शन बढ़ाने में जुटा अमेरिका

जनवरी में डिफेंस कॉन्ट्रैक्टर्स की बैठक में नेवल फ्लीट को हथियार मुहैया कराने के लिए जिम्मेदार एडमिरल डेरिल कॉडल ने सभी कंपनियों काफी तल्ख लहजे में प्रोडक्शन बढ़ाने को कहा।

उन्होंने इस बात पर खास जोर दिया कि कंपनियों को अपना प्रोडक्शन बढ़ाकर डिलीवरी समय पर की जाए। कंपनियों की क्षमता बढ़ाने पर भी सरकार काम कर रही है।

उप रक्षा मंत्री कैथलीन हिक्स ने इस महीने की ब्रीफिंग में बताया है कि कंपोनेंट्स का प्रोडक्शन बढ़ाने के लिए कंपनियों की मदद के लिए सेना को भी लगाया गया है।

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