आप जो काम करते हैं, उससे ही आपकी शख्सियत बनती है, ना कि उस काम के बारे में कहने से!

आप जो काम करते हैं, उससे ही आपकी शख्सियत बनती है, ना कि उस काम के बारे में कहने से!

इस सप्ताह मैं एक ट्रेनिंग का हिस्सा था। वहां प्रतिभागियों से पूछा गया था कि आने वाले 12 महीनों के लिए उनका अल्पकालीन निजी लक्ष्य और आने वाले 3 सालों के लिए दीर्घकालीन लक्ष्य क्या है। जिस कंपनी के कर्मचारी उस प्रोग्राम में शरीक थे, उसके सीईओ का मानना था कि सबके सामने व्यक्तिगत लक्ष्यों के बारे में बताने से प्रतिभागी अपने उस लक्ष्य के प्रति निष्ठावान बने रहेंगे और हासिल करने की ईमानदारी से कोशिशें करेंगे।

उन्होंने ये भी संकेत दिया कि किसी का व्यक्तिगत लक्ष्य वजन घटाने से लेकर संगीत या स्पोकन इंग्लिश जैसी नई स्किल सीखना भी हो सकता है। कार्यक्रम के 72 प्रतिभागी 23 से 45 आयु समूह के थे, अपने लक्ष्य बताने उनमें से कोई आगे नहीं आया।

ट्रेनर का कहना था कि लक्ष्य चाहे छोटा हो या बड़ा, निजी या पेशेवर, जरूरी यह है कि हम रोज उसके लिए समय निकालें। इसका यह भी आशय था कि हम अनुशासित बने रहें। कर्मचारियों ने लक्ष्य बताने से मना कर दिया, क्योंकि तब वह कमिटमेंट बन जाता।

इससे मुझे उन बहुत सारे ढाबों की याद हो आई, जिन्हें मैंने हाल ही में अपनी अनेक सड़क यात्राओं के दौरान देखा था। वे पूरी तरह खाली थे, जबकि बाहर बादल घिरे थे और तेज हवाएं चल रही थीं। मौसम लॉन में बैठकर कैंडल लाइट डिनर के अनुकूल था।

ये ढाबे मुम्बई-नाशिक रोड पर थे, जो गुजरात और पुणे जाने वाले एक्सप्रेसवे के बाद तीसरा सबसे व्यस्त हाईवे है। एक भी ढाबे ने सामने से निकल रही गाड़ियों को आकृष्ट करने की कोशिश नहीं की। वे कम से कम एक बड़ी स्क्रीन लगाकर आईपीएल दिखा सकते थे।

इससे कुछ यात्री वहां रुककर कुछ ओवर का मैच देख सकते थे और लगे हाथों कुछ खाने का भी ऑर्डर कर सकते थे। पर किसी भी ढाबे ने ऐसी कोशिश नहीं की, नतीजतन अधिकतर के सामने एक भी गाड़ी नहीं थी। इससे से गुजर रहे यात्रियों को अप्रत्यक्ष रूप से संदेश जाता था कि चूंकि वहां कोई नहीं है, इसलिए वहां खाने और अन्य सेवाओं की गुणवत्ता अच्छी नहीं होगी।

पुरानी कहावत है कि पैसा पैसे को खींचता है। यही बात भीड़ पर भी लागू होती है। भीड़ भीड़ को खींचती है। ढाबा संचालकों को कुछ करना चाहिए था। वे सड़क पर ये बोर्ड ही लगा सकते थे कि हमारे यहां इस हाईवे का सबसे स्वच्छ वॉशरूम है, जिससे लोग एक बार रुककर ये जरूर जानना चाहते कि ढाबा संचालक का दावा सही है या नहीं।

वॉशरूम की गुणवत्ता से संतुष्ट होने के बाद ग्राहकों को रोकने के लिए ढाबा संचालक क्रिकेट मैच दिखाने वाली स्क्रीन लगाने जैसी कुछ और एक्टिविटीज़ भी कर सकते हैं। इसके बाद उनकी इतनी भर जिम्मेदारी रह जाती है कि यात्रियों की संतुष्टि के लिए उत्तम भोजन परोसें। अगर ढाबा संचालक अपने सामने से होकर गुजरने वाली गाड़ियों में से दो या तीन प्रतिशत को भी शुरुआती दो महीनों तक आकृष्ट कर सकें तो इसे देखकर दूसरे नए या नियमित यात्री भी खुद-ब-खुद वहां चले जाएंगे।

हाल ही मैं मैंने कई फूड-स्ट्रीट्स (खाऊ गली) में एक चीज गौर की। मिसाल के तौर पर तुर्किये के अंतालिया में होटल-संचालक अपने दोस्तों को बुलाते हैं कि वे आकर लंच टाइम में सड़क पर लगी कुर्सियों पर बैठें। उन्हें देखकर दूसरे पर्यटक भी आकर्षित होते हैं और वे अंत में कुछ खा-पीकर ही जाते हैं।

जब बात करियर, सेल्फ ग्रोथ या बिजनेस की आती है तो हमने कल के लिए क्या योजना बनाई है, उससे ज्यादा महत्व इसका है कि हम आज सफल होने के लिए कितना अच्छा कर पाते हैं, क्योंकि इसी से हमारा आने वाला कल बेहतर बन सकता है।

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