जलवायु संबंधी कदम उठाने के लिए अब हम और नहीं रुक सकते

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने पिछले दिनों अपनी आकलन रिपोर्ट पेश की। यह बताती है कि पिछले 200 वर्षों के दौरान सभी प्रकार की ग्लोबल हीटिंग की वजह मानव गतिविधियां ही हैं। रिपोर्ट साफ तौर पर दोहराती है कि हम इसे रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठा रहे हैं।

बदकिस्मती से इसका मतलब है कि दुनिया में इस पर कोई चर्चा नहीं हो रही कि धरती पहले ही 1.1 डिग्री सेल्सियस तक और गर्म हो चुकी है। इससे निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर जो कदम उठाए जा रहे हैं, उनकी मौजूदा रफ्तार पर गौर करें तो वर्ष 2100 तक वैश्विक तापमान में औसत वृद्धि औद्योगिक युग से पूर्व के स्तरों के मुकाबले 2.7 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाएगी और नेट जीरो संबंधी सभी अंतरराष्ट्रीय लक्ष्यों को एक साथ जोड़ भी लें तो भी वैश्विक तापमान में औसत वृद्धि को 2.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने से रोक नहीं सकते।

हम जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी परिणाम देख रहे हैं। जंगलों में पहले से कहीं ज्यादा जल्दी-जल्दी आग लगना, चक्रवात, समुद्री तूफान और मरुस्थलीकरण के रूप में नतीजे सबके सामने हैं। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 1970 से 2019 के बीच लगभग 20 लाख लोग प्रचंड गर्मी की भेंट चढ़ चुके हैं और आर्थिक नुकसान तकरीबन 6.5 ट्रिलियन डॉलर के स्तर को पार कर चुका है। समुद्र के बढ़ते जलस्तर और जलवायु से जुड़ी आपदाओं को देखते हुए बीमा कंपनियां बेइंतेहा गरीबी और सामाजिक उथल-पुथल को लेकर फिक्रमंद हैं।

जलवायु परिवर्तन रोकने के परंपरागत तरीकों की वकालत करने वालों की यह दलील होती है कि प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन में कमी लाने के कदमों का असर रोजगार के अवसरों और उद्योगों पर नहीं पड़ना चाहिए। क्योंकि अगर रोजगार छिन गया तो यह हकीकत बेमानी हो जाएगी। यह भी एक हकीकत है लेकिन हमें पीने योग्य पानी, जमीन और रहने लायक तापमान वाला वातावरण भी चाहिए।

जलवायु संबंधी कार्रवाई को वर्ष 2030 तक के लिए खिसकाया गया तो वैश्विक तापमान में वृद्धि को डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक रोकने का मौका हाथ से फिसल जाएगा। कई प्रशांत द्वीपीय देश पानी में डूब जाएंगे, वहीं वैश्विक दक्षिण का ज्यादातर हिस्सा अपने भूभाग और भूजल आपूर्ति में खतरनाक रूप से आने वाली कमी, फसलें खराब होने, रेगिस्तानों के दायरे बढ़ने, तटीय क्षेत्रों के डूब जाने, रोग जनकों के विस्फोट और बड़े पैमाने पर आंतरिक विस्थापन से जूझेगा।

वहीं दूसरी ओर वैश्विक उत्तर क्षेत्र के देश जंगलों की आग के अभूतपूर्व दौर, अतिक्रमणकारी प्रजातियों द्वारा किए जाने वाले विनाश और ग्लेशियर को होने वाले नुकसान का सामना करेंगे।

आईपीसीसी हालात का अगला जायजा वर्ष 2027/2028 या उसके बाद ले सकता है लेकिन उस वक्त तक हम बिल्कुल अलग दुनिया देख रहे होंगे। अब बस राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है।

सबसे अमीर मुल्क 50% ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करते हैं, जबकि सबसे गरीब देश उत्सर्जन के मात्र 12% के लिए जिम्मेदार हैं। अभी हमारे पास वक्त है, 5 साल बाद चीजें हाथ से निकल जाएंगी।

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