दोनों प्रमुख पार्टियां वोटरों को यकीन दिलाने में जुटी हैं कि वे आरक्षण की असल पैरोकार हैं

अब जब कर्नाटक चुनाव में मतदान में कुछ ही दिन शेष रह गए हैं तो सम्भावित नतीजों के बारे में कयास लगाए जाने लगे हैं। वहां कौन-सी पार्टी जीतेगी, इस पर विश्लेषकों में मतभेद हैं। जो कांग्रेस की जीत का अनुमान लगा रहे हैं, उनका तर्क बहुत सीधा-सरल है : कर्नाटक में बीते तीन दशकों में हर चुनाव के बाद सरकार बदली है और इस बार वहां मतदाताओं की स्वाभाविक पसंद कांग्रेस ही है। लेकिन तब हमें केरल का उदाहरण भी याद रखना चाहिए, जहां कर्नाटक की ही तरह हर चुनाव के बाद सरकार बदलने की परिपाटी थी, पर 2021 में यह उलट गई।

कुछ का मानना है कि भाजपा वहां अब भी दौड़ में आगे चल रही है। ऐसा कहने वाले भी पिछले कुछ वर्षों का चुनावी रूझान सामने रखते हैं। वर्ष 2020 में बिहार विधानसभा चुनावों के बाद से अभी तक 17 राज्यों में चुनाव हुए हैं, जिनमें से 13 में सरकारें पुन: निर्वाचित हुई हैं। केवल पंजाब, तमिलनाडु, पुडुचेरी और हाल में हिमाचल प्रदेश में ही सरकारें बदली हैं।

जिन 13 राज्यों में सरकारें फिर चुनकर आईं, उनमें भी 10 में भाजपा या तो अपने दम पर सत्ता में थी या वह गठबंधन-सहयोगी थी। अन्य तीन राज्य पश्चिम बंगाल, दिल्ली और केरल हैं, जहां टीएमसी, आप और एलडीएफ ने अपनी सत्ता कायम रखी। अपनी सरकार बचाते हुए भाजपा केवल हिमाचल प्रदेश में चुनाव हारी है, और वह भी वोट-शेयर के मामूली अंतर से।

अपनी सरकार बचाने में भाजपा की सफलता का ऊंचा प्रतिशत पार्टी के पक्ष में वोटरों के ओवर-ऑल मूड के बारे में बताता है। कर्नाटक में भी वोटर भाजपा को फिर से सरकार बनाने का मौका दे सकते हैं। लेकिन ये दोनों ही अभी तक के ट्रेंड्स हैं और किसी भी चुनाव के बारे में निश्चित रूप से कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकते हैं।

कर्नाटक में मुकाबला कांग्रेस, भाजपा और जेडीएस के बीच है, लेकिन चुनावी लड़ाई क्षेत्रीय बनाम राष्ट्रीय के मसले पर जारी है। भाजपा का जोर राष्ट्रीय नैरेटिव, अखिल भारतीय महत्व के मसलों और अपने नेताओं की छवि पर है। दूसरी तरफ कांग्रेस स्थानीय और क्षेत्रीय नैरेटिव को लेकर सामने आ रही है। उसका जोर स्थानीय नेताओं पर है।

जेडीएस के सामने स्थानीय मसलों की बात करने के सिवा कोई और विकल्प नहीं है। राष्ट्रीय फलक पर बात करना उसके लिए उलटे और नुकसानदेह साबित होगा। दोनों प्रमुख दल- भाजपा और कांग्रेस भ्रष्टाचार का मुद्दा भी उछाल रहे हैं।

जहां कांग्रेस सत्तारूढ़ भाजपा को 41 प्रतिशत कमीशन सरकार कह रही है, वहीं भाजपा 85 प्रतिशत कमीशन का हवाला पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की उस बात के आधार पर दे रही है कि सरकार के द्वारा भेजे गए एक रुपए में से केवल 15 पैसे जनता तक पहुंच पाते हैं। भ्रष्टाचार मतदाताओं के जीवन से जुड़ा मसला है, लेकिन 1989 और 2014 के चुनावों को छोड़ दें तो यह एक अहम चुनावी मुद्दा नहीं रहा है।

बीते कुछ सालों में हुए सर्वेक्षणों में भ्रष्टाचार के बारे में पूछे जाने पर 13 में से 12 राज्यों के लोगों ने माना है कि भ्रष्टाचार बढ़ा है, लेकिन इन 12 राज्यों के चुनावी परिणाम विभाजित थे। इनमें से छह में सत्तारूढ़ सरकार फिर जीती, जबकि शेष छह में हार गई।

कर्नाटक के वोटरों के बीच भ्रष्टाचार एक अहम मसला है, लेकिन क्या यह चुनावी परिणामों को प्रभावित कर सकता है, यह निश्चित नहीं है। वोटरों को इस बिंदु पर भाजपा और कांग्रेस के बीच ज्यादा अंतर नहीं दिखलाई देता है। वोटरों में महंगाई और बेरोजगारी को लेकर भी खासी चिंता है, लेकिन पार्टियां इस पर बात करने से बच रही हैं।

लेकिन आरक्षण के सवाल पर कर्नाटक के वोटर जरूर बंटे हुए हैं। दोनों ही प्रमुख पार्टियां वोटरों को यह यकीन दिलाने में जुटी हुई हैं कि वे आरक्षण की वास्तविक पैरोकार हैं। जहां भाजपा लिंगायत, वोक्कालिगा, दलितों और आदिवासियों को अतिरिक्त कोटा देने का श्रेय ले रही है, वहीं कांग्रेस विभिन्न समुदायों को और आरक्षण देने का वादा कर रही है।

धर्म का मसला भी गर्म है, क्योंकि भाजपा सरकार ने मुस्लिमों के लिए 4 प्रतिशत कोटा समाप्त कर दिया है। इसका असर चुनाव प्रचार अभियान पर दिख रहा है। चुनावी पिच पर स्लॉग ओवरों वाली बैटिंग चल रही है, लेकिन निर्णय करने का अधिकार 10 मई को वोट देने वाले मतदाताओं के पास सुरक्षित है।

कर्नाटक में चुनावी लड़ाई क्षेत्रीय बनाम राष्ट्रीय के मसले पर जारी है। भाजपा का जोर राष्ट्रीय नैरेटिव, राष्ट्रीय महत्व के मसलों और अपने नेताओं पर है। वहीं कांग्रेस स्थानीय नैरेटिव को लेकर सामने आ रही है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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