MP में 20 से ज्यादा सीटों पर बदलेंगे समीकरण …?

 संघ भी डैमेज कंट्रोल में जुटा …

मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। पार्टी को पहला झटका पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के बेटे व पूर्व मंत्री दीपक जोशी ने दिया है। उन्होंने 6 मई को कांग्रेस का दामन थाम लिया। जोशी की बगावत के बाद मध्यप्रदेश भाजपा में विद्रोह का तूफान आने की आहट महसूस होने लगी है। एक अन्य नेता और अपैक्स बैंक के पूर्व अध्यक्ष भंवर सिंह शेखावत भी बगावत के मूड में नजर आ रहे हैं। इसके अलावा वरिष्ठ नेता और कवि सत्यनारायण सत्तन का भी एक बयान आया है, जो उनकी नाराजगी जाहिर करने वाला है। शेखावत और सत्तन पार्टी को छोड़ तो नहीं रहे हैं, मगर उनके बयान मुसीबत बढ़ाने वाले तो हैं ही। पार्टी हाईकमान द्वारा दोनों ही नेताओं से संवाद की कोशिशें चल रही हैं।

इसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे और ग्वालियर के कद्दावर नेता अनूप मिश्रा के तेवर भी तीखे होने लगे हैं। उनके सुर फिलहाल बगावती नहीं हैं, लेकिन उन्होंने दो टूक कह दिया है कि वे हर हाल में ग्वालियर दक्षिण सीट से ही चुनाव लड़ेंगे। राजनीति के जानकार कहते हैं कि चुनावी साल में जिस तरह की विद्रोही लहर बीजेपी में उठी है, उसे जल्द से जल्द शांत नहीं किया गया तो पार्टी को 20 से 22 सीटों पर भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। पिछले चुनाव की हार से भाजपा ये तो अच्छी तरह से समझ गई है कि 22 सीटों पर नुकसान का मतलब सत्ता से दूरी है।

बगावत के बवंडर से BJP के सामने 4 बड़े संकट

1- पार्टी छोड़ने वालों से चुनाव में नुकसान

वरिष्ठ पत्रकार आशीष दुबे कहते हैं कि तीन बार के विधायक दीपक जोशी का कांग्रेस में जाना बीजेपी के लिए बहुत बड़ा झटका है। इससे पार्टी की छवि तो प्रभावित होगी ही, साथ में खातेगांव, कन्नौद, बागली, हाटपिपल्या सहित आसपास की सीटों पर बीजेपी को नुकसान हो सकता है। इस इलाके में स्व. कैलाश जोशी का प्रभाव रहा है, जिसका उनके पुत्र दीपक जोशी को फायदा मिलेगा।

दुबे ज्योतिरादित्य सिंधिया के गढ़ का उदाहरण भी देते हैं। जहां हाल ही में अशोकनगर से बीजेपी से 3 बार के विधायक स्व. राव देशराज सिंह यादव के बेटे यादवेंद्र सिंह यादव ने कांग्रेस जॉइन की है। खास बात यह है कि बीजेपी के प्रदेश संगठन मंत्री हितानंद शर्मा का यह गृह जिला है। राव परिवार का अशोकनगर जिले में पिछले कई सालों से दबदबा रहा है। यादवेंद्र के छोटे भाई अजय प्रताप अभी भी भाजपा सरकार में अल्पसंख्यक एवं पिछड़ा वर्ग निगम उपाध्यक्ष हैं। ऐसे में चुनाव से कुछ समय पहले हुई राजनीतिक उठा-पटक से अशोकनगर के राजनीतिक समीकरण भी बदलेंगे, लेकिन सबसे ज्यादा असर यादव बाहुल्य मुंगावली सीट पर दिखेगा। जहां यादव सहित अन्य समाज भी राव परिवार से जुड़े रहे हैं।

2- कद्दावर नेताओं के बयान से असंतुष्टों को मिलेगी ताकत

राजनीतिक विश्लेषक अरुण दीक्षित कहते हैं कि मप्र में बीजेपी के बड़े नेता खुलकर बयान दे रहे हैं, इससे चुनाव में पार्टी को नुकसान होना निश्चित है। ऐसा पहली बार हुआ है, जब किसी नेता (पूर्व राज्यसभा सांसद रघुनंदन शर्मा) ने केंद्रीय नेतृत्व की कार्यप्रणाली पर ही सवाल उठा दिया। अमूमन देखा गया है कि ऐसे मामलों को केंद्रीय नेतृत्व गंभीरता से लेता है, लेकिन मध्य प्रदेश की तुलना द्रोपदी से कर पांच प्रभारियों को पति बताना कोई हल्की बात नहीं है। यह संकेत है कि इन बयानों से असंतुष्ट नेताओं को ताकत मिलेगी। ऐसे में पार्टी के भीतर जो लोग सत्ता-संगठन से नाराज हैं, वे या तो खुलकर बगावती तेवर दिखाएंगे या फिर घर बैठ जाएंगे।

3- डिप्लोमैटिक बयान से काडर को मिलता है संदेश

दीक्षित कहते हैं कि राजनीति में जो इशारों में बोला जाता है, उसका असर खुलकर बोलने से ज्यादा होता है। यह सब जानते हैं। कैलाश विजयवर्गीय का बयान (बीजेपी ही बीजेपी को हराएगी) पार्टी के नीति-निर्धारकों के लिए तो संदेश है ही, लेकिन मूल काडर पर भी इसका असर होगा। इस बयान से साफ है कि पार्टी में नेतृत्व स्तर पर एकता नहीं है और सिंधिया समर्थकों को बीजेपी के मूल काडर ने स्वीकार नहीं किया है।

4- असंतुष्टों की चुप्पी, ज्यादा खतरनाक

मप्र की सियासत पर नजर रखने वाले जानकार कहते हैं कि चुनावी साल में बगावती तेवरों से उन 20-22 सीटों पर बीजेपी को नुकसान होने की पूरी संभावना है, जहां सिंधिया समर्थक विधायक हैं। दीपक जोशी का पार्टी छोड़ना हो या फिर भंवर सिंह शेखावत के बदले सुर, इसके साफ संकेत दे रहे हैं।

बीजेपी सूत्रों की मानें तो हाल ही में संगठन को मिली 14 नेताओं की रिपोर्ट में सिंधिया समर्थकों के क्षेत्रों में नाराजगी ज्यादा है। दरअसल, बीजेपी के मूल नेता खासकर पूर्व विधायक और वे नेता जो चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं, फिलहाल चुप हैं। उन्हें समय रहते मनाया नहीं गया तो वे चुनाव के दौरान या तो घर बैठ जाएंगे या फिर सिंधिया समर्थकों को टिकट मिलने पर एकजुट होकर नुकसान पहुंचाएंगे।

इस पर अरुण दीक्षित कहते हैं कि बीजेपी में प्यारे लाल खंडेलवाल जैसा एक भी सर्वमान्य नेता दिखाई नहीं दे रहा है, जो पार्टी के भीतर की गुटबाजी को समझता हो और जिसके कहने से असंतुष्ट मान जाएं।

सरकार-संगठन विफल, अब संघ ने संभाला मोर्चा

बीजेपी की मूल विचारधारा के नेताओं की नाराजगी को दूर करने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से लेकर प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा सहित कई बड़े नेताओं ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया है। हालांकि, दीपक जोशी पर उनकी समझाइश का कोई असर नहीं हुआ। ऐसे में अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े नेताओं ने मोर्चा संभाला है। राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री शिव प्रकाश और क्षेत्रीय संगठन मंत्री अजय जामवाल ने नाराज नेताओं से वन-टू-वन बातचीत करना शुरू किया है। दोनों नेताओं ने दीपक जोशी से भी संपर्क कर उन्हें रोकने की कोशिश की, लेकिन जोशी ने बातचीत के दरवाजे बंद कर दिए।

आरोप- सिंधिया समर्थकों के कारण पार्टी बदनाम हो रही

भंवर सिंह शेखावत ने कहा कि ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थकों के कारण बीजेपी की बदनामी हो रही है। जिन लोगों ने 2018 में बीजेपी की सरकार नहीं बनने दी, उन्हें पार्टी में सम्मानित किया जा रहा है। शेखावत ने कहा कि यह टिकट की लड़ाई नहीं है। सम्मान की लड़ाई है। उन्होंने यह भी कहा कि मध्य प्रदेश में बीजेपी की हालत खराब है। कांग्रेसियों के बीजेपी में आने से पार्टी की हालत खराब हुई है। पार्टी में अब जमीनी कार्यकर्ता और असली नेताओं की पूछ परख नहीं होती है।

5 वजहें, जिनके कारण बीजेपी में बगावत का बवंडर उठा

1- अनुभवी नेताओं को उम्र के आधार पर साइड लाइन करना

राजनीतिक विश्लेषक अरुण दीक्षित कहते हैं कि बीजेपी के कई नेताओं को ऐसा लगने लगा है कि पार्टी में अब उनका कोई भविष्य नहीं है। पिछले दिनों जो परिवर्तन हुए और जिस प्रकार नीतियां बदली गईं, उसका प्रतिकूल असर पड़ता दिख रहा है। वरिष्ठ नेताओं को मार्गदर्शक मंडल की तरफ धकेला जा रहा है। जयंत मलैया, गौरीशंकर शेजवार, हिम्मत कोठारी जैसे नेताओं को उम्र का हवाला देकर साइड लाइन किया गया। फिर यह शर्त भी लगा दी कि पार्टी में वंशवाद नहीं चलेगा। ऐसे में नेता अपनी राजनीतिक विरासत को बचाने के लिए बगावत पर उतर रहे हैं और अन्य दलों में भविष्य की तलाश कर रहे हैं।

2- लीडरशिप का निचले स्तर पर संवाद नहीं

दीक्षित कहते हैं कि बीजेपी की लीडरशिप का निचले स्तर पर संवाद नहीं है। यदि संवाद होता भी है तो तल्खी भरे शब्दों का प्रयोग हो रहा है। ऐसे में पार्टी के लिए समर्पित लोग अब मुख्यधारा से हटते चले रहे हैं। छत्तीसगढ़ में ताजा उदाहरण नंदकुमार साय का है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन पार्टी में खपा दिया। दूसरी तरफ संदेश देने की कोशिश की जाती है कि बीजेपी आदिवासियों के साथ है।

3- युवाओं को बागडोर देने से सीनियर की पूछ परख कम

पार्टी ने बदलाव के नाम पर 35 से 40 साल के लोगों को जिलाध्यक्ष तक बना दिया है। ऐसे में 40 से 60 साल उम्र वाले नेताओं की पूछ परख कम हो गई है, जबकि उन्हें मैदानी अनुभव ज्यादा है। इन नेताओं में नाराजगी लगातार बढ़ती जा रही है। यदि पार्टी डैमेज कंट्रोल करने में कामयाब नहीं होती है तो एक तरफ उसकी छवि खराब होगी और दूसरी तरफ चुनाव में नुकसान होगा।

4- सिंधिया फैक्टर के चलते नए विकल्पों की तलाश

सिंधिया फैक्टर आने वाले दिनों में बीजेपी के लिए और भी मुश्किलें खड़ी कर सकता है। कांग्रेस की नजर बीजेपी के उन नेताओं पर है, जो ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थकों के चलते अपनी परंपरागत सीट गंवा चुके हैं। वे नए विकल्पों की तलाश में हैं और कांग्रेस उन्हें अपने पाले में लाने के लिए तैयार बैठी है।

2020 में सिंधिया और उनके समर्थकों के आने के बाद जिन सीटों पर उपचुनाव हुए, वहां बीजेपी के पुराने नेताओं के लिए दरवाजे करीब-करीब बंद हो गए हैं। चुनाव नजदीक आने पर वे अपने लिए नए विकल्प की तलाश कर सकते हैं। बीजेपी से बदला लेने के लिए व्याकुल कांग्रेस को इसी मौके का इंतजार है।

5 – सरकार में नहीं मिलती तवज्जो

जानकार यह भी मानते हैं कि पुराने नेताओं की बगावत की एक वजह सरकार में तवज्जो नहीं मिलना है। दीपक जोशी का उदाहरण सामने है। कई मौके ऐसे आए, जब उनके क्षेत्र के प्रशासन में उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही थी। इसकी शिकायत वे समय-समय पर सरकार और संगठन में करते रहे, लेकिन इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। हाल ही में तैयार कराई गई रिपोर्ट में यह बताया गया कि मंत्री-विधायक उनके काम नहीं करते हैं। प्रशासन भी सिर्फ मंत्री-विधायकों की ही सुनता है। इतना ही नहीं, कई पुराने नेताओं को अपना काम कराने के लिए चक्कर लगाने पड़ते हैं।

बीजेपी को कितना नुकसान?

विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर आने वाले नेताओं के मुसीबत बनने की आशंका है। यह डर अभी से सताने लगा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि जिन स्थानों पर सिंधिया समर्थकों को उपचुनाव लड़ाए गए थे, वहां से बीजेपी के पुराने नेता भी अपनी दावेदारी जता रहे हैं। राज्य में इसी साल विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। इन चुनावों को लेकर बीजेपी फूंक-फूंककर कदम बढ़ा रही है। वह किसी भी सूरत में अपने कार्यकर्ता को नाराज करने का रिस्क नहीं ले सकती है।

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