अंग्रेज तो देश छोड़कर चले गए, लेकिन हमारे नए शासकों ने सत्ता का आडम्बर जारी रखा है

अंग्रेज तो देश छोड़कर चले गए, लेकिन हमारे नए शासकों ने सत्ता का आडम्बर जारी रखा है …

एक तरफ जहां सबकी नजर इस पर है कि कर्नाटक में सत्ता में कौन आएगा, वहीं मैं सोच रहा हूं कि भारतीयों के लिए सत्ता के मायने क्या होते हैं। बेशक, सत्ता अपने साथ अधिकार, प्रभाव, ठाठ-बाट, विशेषाधिकार और पैसा लाती है। लेकिन इनसे बड़ी बात है हाइरार्की यानी पदक्रम में ऊपर हो जाना, जो हमारे कई क्रमों में बंटे समाज के लिए ऐसा साध्य है, जिसकी लालसा से बचा नहीं जा सकता।

एक दौर था जब सेवा का अवसर पाने के लिए सत्ता की चाह होती थी। अब यह आदर्शवाद कितना बचा है? भारतीय परंपरा में शक्तिशाली या सत्ताधारी व्यक्ति से, अपनी सत्ता दिखाने के मामले में मितभाषी या विनम्र होने की उम्मीद नहीं की जाती।

18वीं सदी में, लॉर्ड वेलेस्ली ने लंदन में ईस्ट इंडिया कंपनी से कहा था कि ‘स्थानीयों’ पर शासन करने के लिए महल बनाने जरूरी हैं, ताकि वे उनके विस्मय के आगे नतमस्तक हो जाएं। यह शानदार बात थी और आज भी लागू होती है, जब हम पर हमारे अपने लोगों का शासन है।

अंग्रेजों के जाने से हमें राजनीतिक आजादी तो मिल गई, लेकिन हमारे नए शासकों ने सत्ता का आडम्बर जारी रखा। थर्ड क्लास में यात्रा करने वाले और सिर्फ एक धोती पहनने वाले महात्मा गांधी चाहते थे कि अंग्रेज वाइसरॉय के महल को अस्पताल में बदल दिया जाए, लेकिन हमारे पहले राष्ट्रपति और गांधीवादी राजेंद्र प्रसाद ने इसे अपना आवास बनाया। पहले प्रधानमंत्री के लिए गांधी जी की पसंद जवाहरलाल नेहरू दिल्ली के दूसरे सबसे बड़े घर, ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ के आवास में रहने लगे।

दिलचस्प यह है कि इसमें शायद भारतीयों की भी रजामंदी थी। हमारी सोच यही रही है कि जिसके पास सत्ता आ जाए, वो अगर दूसरों को अपना रुतबा न दिखा पाए तो सत्ता किसी काम की नहीं। इससे समझ आता है कि हम क्यों सत्ता दिखाने के मामले में अंग्रेजों को भी पीछे छोड़ रहे हैं।

बचपन में, मैं अपने पिता को देखता था कि वे खुद की कार से ऑफिस जाते थे, जबकि वे भारतीय लोक सेवा (आईसीएस) में थे, जिसे ‘स्वर्ग जैसी सेवा’ कहा जाता था। आज किसी छोटे-मोटे सरकारी विभाग का उपनिदेशक भी आधिकारिक कार से चलता है, जिसे ड्राइवर चलाता है और जिसके ऊपर लाल या नीली बत्ती होती है। साथ में हथियारबंद सुरक्षाकर्मी भी हो सकते हैं। यह सब अपना ‘असाधारण’ रुतबा दिखाने के लिए ही है।

सत्ता और हैसियत से जुड़े ये लक्षण हमारे लोकतंत्र के कामकाज में बखूबी दिखते हैं। हाल ही में, यह बात सुर्खियों में रही कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपना आधिकारिक आवास बनाने में कथित रूप से 45 करोड़ रुपए खर्च किए हैं।

उनके आम आदमी की तरह रहने के दावों के बाद यह विश्वासघात जैसा लग सकता है। लेकिन मुझे विभिन्न राज्यों के कई मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के आवासों में जाने और रहने का मौका मिला। इन सभी आवासों में ज्यादातर वे लोग रहते हैं, जो वहां केवल सेवा करने के लिए मौजूद हैं। मैंने इन आवासों की भव्यता, नौकरों की सेना, खर्च और इनका महलनुमा आकार देखा है।

यह प्रवृत्ति सभी दलों में देखी जा सकती है। हमारे प्रधानमंत्री भी नया घर बनवा रहे हैं, जो उनके रुतबे से मेल खाए। इसके पूरा होने तक कथित तौर पर करीब 500 करोड़ रुपए खर्च होंगे। ज्यादातर भारतीयों को इस पर एेतराज नहीं होगा।

सत्ता की ताकत- जो खुद का दिखावा न करे- उसे सम्मान नहीं मिलता। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश की पहली दलित मुख्यमंत्री बनने पर मायावती ने 2003 में अपना 47वां जन्मदिन भव्य तरीके से मनाया था। रिपोर्ट के मुताबिक, इसके लिए एक लाख लड्डू, कमरे के आकार का केक और मुगल-ए-आजम स्टाइल का कांच का सेट बना था। साथ ही 60 क्विंटल फूल आए थे।

बहनजी कुछ अलग नहीं कर रही थीं, बस हमेशा से चली आ रही परम्परा का निर्वहन कर रही थीं। हमसे भी अमीर देश हैं, जहां के प्रधानमंत्री सार्वजनिक यातायात के साधनों से काम पर जाते हैं या बहुत सामान्य-से घर में रहते हैं। लेकिन भारत में सत्ताधारी के लिए आम आदमी की जीवनशैली अपनाना सम्मान की बात नहीं है।

शासन को सत्ता का राजसीपन दिखाना जरूरी है, वरना वे उन पर नियंत्रण कैसे करेंगे जिनपर उनका शासन है? कर्नाटक में, जल्द पता चलेगा कि कौन जीता। पर विजेता सबसे पहले सत्ता की तड़क-भड़क को अपनाएंगे। फिर चाहे भ्रष्टाचार खत्म हो या न हो, या बेंगलुरू का इन्फ्रास्ट्रक्टर सुधरे या नहीं।

लॉर्ड वेलेस्ली ने कहा था कि ‘स्थानीयों’ पर शासन करने के लिए महल बनाने जरूरी हैं, ताकि वे उनके विस्मय के आगे नतमस्तक हो जाएं। यह शानदार बात थी और आज भी लागू होती है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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