आज भी हाथ से मैला ढो रहे हैं सफाई कर्मी …?

देश के 156 जिले में हाथ से मैला उठाने की मजबूरी, अपराध होने के बाद भी लोग क्यों कर रहे ये मजदूरी?
भारत में हाथ से मैला ढोने पर प्रतिबंध लगाए जाने के दस साल बाद भी आज बड़ी संख्या में लोग इस काम में लगे हुए हैं. आंकड़ों की मानें तो इस प्रथा में लगे हुए लोगों में से करीब 97 प्रतिशत दलित हैं.
भारत में हाथ से मैला ढोने की प्रथा को साल 2013 में ही प्रतिबंधित कर दिया गया था, लेकिन बावजूद इसके आज भी बड़ी संख्या में लोग इस काम को कर रहे हैं. द हिंदू के एक रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा जारी डेटा के अनुसार भारत के कुल 766 जिलों में से अब तक सिर्फ 508 जिलों ने ही खुद को मैला ढोने से मुक्त घोषित किया है.

जिसका मतलब है कि देश में सिर्फ 66 फीसदी जिले मैला ढोने की प्रथा से मुक्त हुए हैं, 34 प्रतिशत जिलों में आज भी इंसानों द्वारा मैला ढोया जा रहा है.

पहली बार इस देश में मैला ढोने की प्रथा पर साल 1993 में प्रतिबंध लगाया गया था. इसके बाद साल 2013 में कानून बनाकर इस पर पूरी तरह से बैन लगाया गया. ऐसे में सवाल उठता है कि इतने कड़े प्रतिबंध के बाद आज भी समाज में मैला ढोने की प्रथा क्यों मौजूद है?

हाथ से मैला ढोने की प्रथा क्या है?

साल 2013 में मैनुअल स्केवेंजिंग यानी हाथ से मैला उठाने वाले नियोजन प्रतिषेध और पुनर्वास अधिनियम लाया गया था. जिसमें केंद्र सरकार ने इसकी परिभाषा तय की है.

इस परिभाषा के अनुसार ” कोई भी व्यक्ति जिससे स्थानीय प्राधिकारी हाथों से मैला ढुलवाने का काम करवाए, मैला साफ कराए, ऐसी खुली नालियां या गड्ढे जिसमें किसी भी तरह से इंसानों का मल-मूत्र इकट्ठा होता हो उसे हाथों से साफ़ कराए तो वो शख़्स ‘मैनुअल स्केवेंजर’ कहलाएगा.”

भारत में दशकों से जड़े जमाए जाति प्रथा के कारण इस तरह के नुक़सानदेह काम ज्यादातर उन लोगों को करने पड़ते हैं, जो जाति व्यवस्था की सबसे निचली पायदान पर हैं. हाथ से इंसानी मल को साफ करने या कहीं और फेंकने के कारण श्रमिकों को हैजा, हेपेटाइटिस, टीबी, टाइफाइड और इसी तरह की अन्य बीमारियों का शिकार होने का खतरा बना रहता है.

मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने के लिए कानून 

मैला ढोने की प्रथा को जड़ से खत्म करने के लिए भारत में सबसे पहले 1993 में कानून पारित किया गया था. इसके बाद एक बार फिर साल 2013 में इससे संबंधित दूसरा कानून अधिनियमित हुआ.

पहले कानून में सिर्फ सूखे शौचालयों में काम करने को खत्म किया गया. वहीं 2013 में लाए गए कानून में मैला ढोने की परिभाषा को बढ़ाया गया. इस कानून में हाथ से सेप्टिक टैंकों की सफाई और रेलवे पटरियों की सफाई को भी शामिल किया गया.

27 मार्च 2014, मैला ढोने के मामले पर सुप्रीम कोर्ट का एक महत्त्वपूर्ण निर्णय आया, जिसमें सीवर साफ करने वाले लोगों के मुद्दे को भी शामिल किया गया क्योंकि सीवर साफ करने वाले श्रमिकों को भी काफी मुश्किल परिस्थितियों में भी बिना किसी सेफ्टी औजर के सीवर लाइनों की सफाई करते हुए मानव मल को साफ करना पड़ता है.

2013 में लाए गए मैनुअल स्केवेंजिंग नियोजन प्रतिषेध और पुनर्वास अधिनियम के तीसरे अध्याय का सातवां बिंदु यह साफ कहता है कि इस कानून के लागू होने के बाद कोई स्थानीय अधिकारी किसी भी शख़्स को सेप्टिक टैंक या सीवर में ‘जोखिम भरी सफाई’ करने का काम नहीं दे सकता है.

अधिनियम में हाइलाइट किए गए ‘जोखिम भरी सफाई’ को भी विस्तार में परिभाषित किया गया है. जिसका मतलब है कि सभी स्थानीय प्राधिकरणों को मैनुअल स्कैवेंजिंग यानी हाथ से मैला उठाने के काम को खत्म करने के लिए सीवर और सेप्टिक टैंकों की सफाई के लिए मशीनों का इस्तेमाल करना होगा. कोई भी व्यक्ति बिना सुरक्षा गियर के सफाई के लिए नहीं उतर सकता और सुरक्षा गियर देने की जिम्मेदारी  ठेकेदार या प्राधिकरण की होगी.

हालांकि इन कानूनों के बनाए जाने के बाद भी सच्चाई ये है कि सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान ज्यादातर सफाई कर्मियों को सीवर के अंदर उतरना ही पड़ता है.

कानून बनने के दस साल बाद भी क्यों खत्म नहीं हो रही ये प्रथा 

देश में मैला ढोने वाले प्रथा के खिलाफ कानून तो बन गए लेकिन इसे अच्छी तरह लागू नहीं किया गया है. इसके अलावा अकुशल श्रमिकों के शोषण के कारण भी भारत में यह प्रथा अभी भी प्रचलित है.

सेप्टिक टैंक को साफ करने के लिए मुंबई नागरिक निकाय 20,000 रुपये से 30,000 रुपये शुल्क लेती है, लेकिन दूसरी तरफ मजदूरों को किराए पर लेना बहुत सस्ता हो जाता है. ठेकेदार उन श्रमिकों को अवैध रूप से 300-500 रुपये के दैनिक वेतन पर साफ सफाई का पूरा काम करवा लेते हैं.

हाथ से मैला ढोना बन रहा मजदूरों के मौत का कारण 

28 जुलाई 2021, राज्यसभा में सामाजिक न्याय मंत्री रामदास आठवले ने मल्लिकार्जुन खड़गे और एल हनुमंतैया के पूछे गए एक का जवाब देते हुए कहा कि पिछले पांच साल में भारत में मैनुअल स्केवेंजिंग यानी हाथ से नालों की सफाई करते हुए किसी भी सफाई कर्मी की मौत नहीं हुई है.

जबकि इसी साल यानी 2021 में सफाई कर्मचारी आंदोलन के एक्टिविस्ट बेजवाड़ा विल्सन ने ट्विटर पर कहा था कि साल 2016 से 2020 तक मैला ढोने के कारण 472 मौतें दर्ज की गई थी.

इसके अलावा साल 2021 के फरवरी में हुए बजट सत्र के दौरान लोकसभा में सामाजिक न्याय मंत्री रामदास आठवले ने जानकारी दी थी कि बीते पांच साल में यानी 31 दिसंबर, 2020 तक में, सेप्टिक टैंक और सीवर साफ करने के दौरान 340 लोगों की मौत हुई है.

साल 2020 में जारी किए गए राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि 2010 से लेकर मार्च 2020 तक यानी पिछले 10 सालों के अंदर सेप्टिक टैंक और सीवर साफ करने के दौरान 631 लोगों की मौत हुई थी.

कानून बनने के बाद भी लगातार बढ़ रही है मैनुअल स्केवेंजिंग

साल 2021: राज्यसभा में एक सवाल पर सामाजिक न्याय मंत्रालय ने कहा था कि वर्तमान में भारत में 66 हज़ार से ज्यादा सफाईकर्मी काम कर रहे हैं जो हाथों से मैला साफ करते हैं.

साल 2019: नीति आयोग की एक रिपोर्ट आई थी जिसके अनुसार 2013 में इस प्रथा को जड़ से खत्म करने के लिए कानून लाया गया था, उस वक्त देश में 14 हजार से ज्यादा ऐसे सफाईकर्मी थे जिन्हें मैनुअल स्केवेंजर की कैटेगरी में रखा गया था.

साल 2018: कानून बनने के पांच साल बाद यानी साल 2018 में हुए सर्वे में मैला साफ करने वाले श्रमिकों की संख्या बढ़कर 39 हजार पार कर गई. जबकि एक साल बाद ही यानी 2019 में ये संख्या और बढ़ कर 54 हजार से ऊपर हो गई थी. अब ऐसे लोगों की संख्या 66 हज़ार से अधिक है.

क्या स्वच्छ भारत का मिशन दे रहा है हाथ से मैला उठाने की प्रथा को बढ़ावा?

केंद्र सरकार ने साल 2014 में स्वच्छ भारत मिशन शुरुआत की थी. इस मिशन के तहत कई ऐसे शौचालय बनाए गए जिनकी सफाई हाथ से करनी पड़ती है.

साल 2017 में स्वच्छ भारत मिशन के तहत बनाए गए शौचालयों का विश्लेषण किया गया. जिससे पता चला की इस मिशन के तहत बनाए गए शौचालयों में 13 फीसद शौचालय में गड्ढे बनाए गए हैं. अन्य 38 फीसदी सेप्टिक टैंक पर आधारित हैं, और 20 प्रतिशत शौचालय एक गड्ढे वाले हैं. ये सूखे शौचालयों की श्रेणी में आते हैं, जिनकी साफ सफाई हाथ से करने की जरूरत पड़ती है.

भारत में सबसे ज्यादा सूखे शौचालयों का इस्तेमाल भारतीय रेलवे में किया जाता है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारतीय रेलवे में 296,012 सूखे शौचालय हैं, जिन्हें हाथ से साफ करना पड़ता है. हालांकि रेलवे ने दूर तक सफर करने वाली सभी ट्रेनों में 258,906 बायो वैक्यूम शौचालय लगाए हैं.

इस प्रथा को खत्म करने के लिए सरकार क्या कदम उठा रही है? 

द प्रॉहिबिटेशन ऑफ एंप्लॉयमेंट एज मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड देयर रिहैबिलिटेशन एक्ट-2013 के तहत हाथ से मैला ढोने पर पूरी तरह प्रतिबंध है. अगर किसी सफाई कर्मचारी की सीवर सफाई के दौरान मौत हो जाती है तो सरकार की तरफ से उसके परिवार को 10 लाख रुपए की वित्तीय सहायता दी जाती है.

इसके अलावा कोई मजदूर इस काम को छोड़ना चाहता है तो सरकार की तरफ से 40,000 रुपये की एकमुश्त नकद देने की योजना बनाई गई है. इसके अलावा कौशल विकास प्रशिक्षण और स्व-रोज़गार परियोजनाओं के लिये पूंजीगत सब्सिडी प्रदान की जाएगी.

सीवर सफाई के दौरान मौतें

  • एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 23 नवंबर, 2019 को सीवर की सफाई के दौरान जहरीली गैस से दम घुटने के कारण अशोक नाम के एक सफाई कर्मी की मौत हो गई थी. अशोक दिल्ली के शकरपुर में एक सीवर की सफाई कर रहे थे.
  • हरियाणा के रोहतक में 26 जून, 2019 को सीवर की सफाई करते हुए चार सफाई कर्मियों की मौत हो गई थी.
  • उत्तर प्रदेश के मथुरा में 28 अगस्त 2019 को सीवर की सफाई करने के दौरान चार सफाई कर्मियों की मौत हो गई थी.
  • 28 मई 2021, को 21 साल के एक सफाई कर्मी की मौत हो गई. जिस वक्त सफाई कर्मी सीवर में उतरा था उस वक्त  उसके पास कोई सुरक्षा गियर नहीं था.

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