60 करोड़ भारतीयों पर गंभीर जल संकट ..?
60 करोड़ भारतीयों पर गंभीर जल संकट, पानी की कमी से अगले 7 सालों में जीडीपी को होगा बड़ा नुकसान
नीति आयोग की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक “बड़ी संख्या में भारतीय जल संकट का सामना करते हैं. अपनी पानी की जरूरतों के लिए भारत की अनियमित मानसून पर निर्भरता इस चुनौती को और बढ़ा रही है.
पूरे भारत में कई बड़ी नदियों के सूखने के साथ भारत को जल संकट का सामना करना पड़ रहा है. इस तरह का गंभीर जल संकट कभी नहीं देखा गया था. भारत में दुनिया की आबादी का 18 प्रतिशत हिस्सा है, जबकि देश के पास सिर्फ 4 प्रतिशत जल संसाधन हैं. ये भारत को दुनिया में सबसे ज्यादा पानी की कमी वाले देशों में से एक बनाता है. यही वजह है कि पिछले कुछ सालों में गर्मियों के आते ही पानी भारत में सोने की तरह कीमती चीज बनती जा रही है.
नीति आयोग (नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया) की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक “बड़ी संख्या में भारतीय जल संकट का सामना करते हैं. अपनी पानी की जरूरतों के लिए भारत की अनियमित मानसून पर निर्भरता इस चुनौती को और बढ़ा रही है. इससे लाखों लोगों का जीवन और आजीविका खतरे में हैं. फिलहाल, 60 करोड़ भारतीयों पर गंभीर जल संकट मंडरा रहा है और पानी की कमी और उस तक पहुंचने में आने वाली मुश्किलों की वजह से हर साल लगभग दो लाख लोगों की मौत हो जाती है. 2030 तक देश की पानी की मांग, उपलब्ध आपूर्ति से दोगुनी होने का अनुमान है, जिससे लाखों लोगों के लिए पानी की गंभीर कमी और देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में करीब 6 प्रतिशत का नुकसान होने का अनुमान है.”
नीति आयोग की रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि जलवायु परिवर्तन की वजह से पानी की चुनौतियां और बढ़ी हैं. लगातार हो रहे जलवायु परिवर्तन ने पानी के स्रोतों में बाढ़ या सूखे जैसी स्थिति पैदा कर दी है.
केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) के अनुसार, भारत में तीन प्रमुख नदी घाटियां, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी साल 2019 के जून के अंत में गंभीर रूप से संकटग्रस्त हैं. 2019 तक कावेरी में 22% जल क्षमता पर होना चाहिए, लेकिन यह केवल 12.5% थी. गोदावरी और कृष्णा नदी घाटियों में जल संग्रहण 8.7 प्रतिशत और 5.7 प्रतिशत था जो उस साल तक औसत से लगभग आधा था.
खतरे की मार क्यों झेल रही हैं भारतीय नदियां
भारतीय नदियों को जलवायु संकट, बांधों के अंधाधुंध निर्माण, और जल विद्युत की ओर बढ़ते बदलाव के साथ-साथ रेत खनन जैसे स्थानीय कारकों से गंभीर खतरा हो रहा है. बांधों और विकास परियोजनाओं की वजह से अधिकांश सबसे लंबी नदियाँ तेजी से सूख रही हैं.
आज हमारी 96 प्रतिशत नदियाँ 10 किमी से 100 किमी के दायरे में हैं. (लंबी नदियाँ 500-1000 किमी रेंज में हैं. भारत में लंबी नदियों की जरूरत है.
पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि पानी की लगातार बढ़ती कमी की सबसे बड़ी वजह तालाबों को खोना है. 1.3 अरब से ज्यादा आबादी वाला देश जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, मानवजनित गतिविधियों, भीड़भाड़ वाले क्षेत्रों और लोगों के व्यवहार के कारण अपने तालाबों को खो रहा है. भूजल की कमी प्रमुख कारणों में से एक है और अति दोहन ने स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव डाला है.
पानी न केवल घरों के लिए एक समस्या है. बल्कि यह खेती और उद्योग के लिए जरूरी है. तमाम जल निकाय या तालाब और झील घरेलू और कृषि उद्देश्यों के लिए बहुत जरूरी हैं. ये जल भंडारण और पानी तक पहुंच उपलब्ध कराने में मदद करते हैं. बांधों से बनी झीलें बिजली पैदा करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं.
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया के निदेशक सुरेश बाबू ने द विदर चैनल को बताया कि पिछले कुछ सालों में मानसून की धीमी शुरुआत देखी गई है. इस साल कमजोर मानसून की आशंका थी, लेकिन अचानक ही बारिश शुरू हो गयी. देश के लिए चीजें बहुत ही गंभीर स्थिति पैदा करने वाली हैं. ऐसे में नदियों की मौजूदा स्थिति राष्ट्रीय हित का एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा है जिस पर तत्काल कार्रवाई की जरूरत है.
पानी की कमी से अनाजों की बुआई पर कितना असर
नीति आयोग की 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक गेहूं की खेती का लगभग 74 फीसदी क्षेत्र और चावल की खेती का 65 फीसदी क्षेत्र 2030 तक पानी की भयंकर कमी का सामना करेगा.
बजट में पानी की समस्याओं को दूर करने के लिए “2024 तक सभी ग्रामीण घरों में पाइप से पानी की आपूर्ति” है.
लेकिन सच्चाई ये भी है कि मानसून के कारण भारत के जल बजट की योजना बनाना मुश्किल हो जाता है. वार्षिक वर्षा का लगभग 80% जून और सितंबर के बीच होता है, और उन महीनों के दौरान सबसे भारी बारिश लगभग 25 दिनों तक होती है. इसका मतलब है कि देश का लगभग सातवां हिस्सा बारिश की सबसे तीव्र अवधि के दौरान बाढ़ की मार झेलता है.
पीने के पानी की कमी कैसे दूर हो
बीबीसी में छपी खबर के मुताबिक नीति आयोग के सदस्य अविनाश मिश्रा कहते हैं कि भारत में पानी की कमी की समस्या ज्यादातर उपलब्ध संसाधनों के अनुचित प्रबंधन से जुड़ी है. हम मीठे पानी और दूसरे जल संसाधनों में इस्तेमाल किया हुआ पानी बहा देते हैं. जिससे मीठा पानी प्रदूषित हो जाता है.
जल शक्ति मंत्रालय (सरकारी विभाग जो जल संसाधनों की देखरेख करता है) राष्ट्रीय जल विज्ञान परियोजनाओं (एनएचपी) पर विश्व बैंक के साथ काम कर रहा है.
1990 के दशक के मध्य में इसके तहत दो राष्ट्रीय योजनाएं बनाई गईं. अब सरकार तीसरी योजना बनाने का काम कर रही हैं. जिसे मार्च 2024 में पूरा किया जाना है.
पहली दो परियोजनाएं पानी की जरूरतों को पूरा करने और भारत के जल संसाधनों के बारे में डेटा इकट्ठा करना था. इसके बाद पानी की कमी को दूर करने के लिए उपायों को करना था. लेकिन इन परियोजनाओं की अपनी सीमाएं थीं. इसलिए ये पूरी नहीं की जा सकीं.
तीसरी जल विज्ञान परियोजना उन कमजोरियों को दूर करने की एक कोशिश है.
झीलों जलाशयों और नदियों पर डेटा इकट्ठा करने के लिए पूरे भारत में लगभग 6,000 सेंसर लगाए जा रहे हैं. इनके अलावा 1,600 सेंसर भूमिगत जल को ट्रैक करेंगे. सभी मोबाइल फोन नेटवर्क से जुड़े होंगे और वास्तविक समय के डेटा को प्रसारित करेंगे, जिसमें जलस्तर और मौसम की स्थिति जैसे वर्षा, आर्द्रता और हवा का दबाव शामिल है. ये पहल नेशनल हाइड्रोलॉजी प्रोजेक्ट का हिस्सा हैं.
टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर के मुताबिक नेशनल वाटर मिशन की डायरेक्टर देबाश्री मुखर्जी ने बताया ‘ ये अच्छी खबर है कि लोग इस संकट की वास्तविकता को पहचान गए हैं, और अब नदियों को पुनर्जीवित करने के लिए कई परियोजनाएं हैं. “पानी की कमी विकास की राह में सबसे बड़ी रुकावट है. मुझे लगता है कि हम सभी इसे पहचानते हैं और यही कारण है कि जल शक्ति अभियान (जेएसए) 2019 में 256 जल-संकट वाले जिलों में जल संरक्षण, पुनर्भरण और वर्षा जल संचयन की शुरुआत हो चुकी है.
टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर के मुताबिक जेएसए अब देश के सभी 740 जिलों को कवर करता है. कई राज्य भी इसे लागू कर रहे हैं. राज्य जल निकायों की एक सूची भी तैयार कर रहे हैं, जो बुनियादी ढांचे के निर्माण या उद्योगों की स्थापना के नाम पर अतिक्रमण को मुश्किल बना सकते हैं.
देश में पानी की कमी के बारे में विशेषज्ञ नीतिगत कमियों को लेकर ज्यादा चिंतित हैं. उनका कहना है कि पानी की कमी को लेकर जागरुकता तो है लेकिन ये उस पैमाने पर पानी की कमी को दूर नहीं कर पाएगा जितना जरूरत है. पानी राज्य का विषय है और जब दूसरे राज्यों के बीच पानी के बंटवारे की बात आती है तो राजनीतिक रस्साकशी होती है.
जल क्षेत्र में मौजूदा नीतिगत वातावरण बहुत बिखरा है और ‘हाइड्रो-स्किज़ोफ्रेनिया’ का सामना कर रहा है. सतह और भूजल, पीने के पानी और सिंचाई के पानी को लेकर कोई विभागों में तालमेल नहीं है.