वैश्विक फार्मा बाजार में …. विश्व बाजार में धूमिल हो रही भारत की प्रतिष्ठा
परिदृश्य: फार्मा क्षेत्र की साख, गुणवत्ता में हानि से विश्व बाजार में धूमिल हो रही भारत की प्रतिष्ठा
जनवरी, 2020 में हिमाचल प्रदेश स्थित डिजिटल विजन द्वारा निर्मित दवा कोल्डबेस्ट पीसी कफ सिरप का सेवन करने के बाद जम्मू में 12 बच्चों की मौत हो गई। उस दवा में डायथिलीन ग्लाइकोल पाया गया, जिससे किडनी में जहर फैल जाता है। गुणवत्ता परीक्षण में विफल होने के बावजूद डिजिटल विजन को विभिन्न राज्यों और केंद्रीय दवा प्रयोगशालाओं द्वारा 19 मौकों पर हरी झंडी दी गई थी। उस घटना के बाद हिमाचल के राज्य नियामक ने भी मौके पर किए गए निरीक्षण में दवा बनाने में गुणवत्ता का दोष पाया
छह महीने बाद इसी कंपनी के एक और उत्पाद के सेवन से हिमाचल के एक बच्चे की मौत हो गई। मार्च, 2021 में एक और दवा में परीक्षण एजेंसियों द्वारा सक्रिय संघटक के निम्न स्तर पाए गए। इतने पर भी दवा कंपनी के खिलाफ कार्रवाई बहुत प्रभावी नहीं रही। ऐसे मामलों में दवा निर्माताओं के खिलाफ मामला बनाना चुनौतीपूर्ण रहा है। देश में 36 ड्रग रेगुलेटर हैं, फिर भी ऐसी घटनाएं होती रहती हैं।
भारत विश्व स्तर पर जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा निर्माता है। वैश्विक फार्मा बाजार में हमारी हिस्सेदारी 13 फीसदी है और हम 200 से अधिक देशों को दवाओं की आपूर्ति करते हैं। टीकों के मामले में तो हमारी वैश्विक हिस्सेदारी 60 प्रतिशत है। इस तरह भारत दुनिया भर में गरीबों के जीवन में बदलाव की प्रक्रिया को प्रभावित कर रहा है। फार्मा सेक्टर के विकास के लिए उद्यमियों ने लंबा संघर्ष किया है। पर निर्यात बाजार में दवा नियमों और भारतीय दवाओं के अप्रभावी या हानिकारक होने की अपमानजनक घटनाओं से इस क्षेत्र को भारी नुकसान पहुंच रहा है। 48 आम दवाएं हाल ही में गुणवत्ता मानकों को पूरा करने में विफल रही हैं। उच्च रक्तचाप, एलर्जी और जीवाणु संक्रमण के लिए भारतीयों द्वारा नियमित रूप से ली जाने वाली तमाम दवाओं का करीब तीन प्रतिशत विनियामक निरीक्षकों की नमूना जांच में घटिया पाया गया है।
विगत फरवरी में तमिलनाडु की एक फर्म ग्लोबल फार्मा हेल्थकेयर द्वारा अमेरिका को निर्यात किए गए आई ड्रॉप्स के एक पूरे बैच को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि इससे आंखों को नुकसान पहुंच सकता था। मैडान फार्मास्यूटिकल्स और मैरियन बायोटेक द्वारा देश में बनाए गए कफ सिरप को 2022 में क्रमशः गांबिया और उज्बेकिस्तान में बच्चों की मौत से जोड़ा गया था। हालांकि भारत के ड्रग रेगुलेटर ने ऐसे किसी संबंध से इन्कार करते हुए कहा कि इसकी सैंपल जांच में कोई जहरीला पदार्थ नहीं पाया गया है।
दवाओं की गुणवत्ता मामलों का निजी और सामाजिक, दोनों ही तरह का असर पड़ सकता है। कई बार एजिथ्रोमाइसिन जैसी सामान्य दवा कम प्रभावी पाई गई है। भारत के औषधि महानियंत्रक (डीजीसीआई) द्वारा 20 राज्यों की 76 फर्मों के निरीक्षण के बाद 18 फार्मा कंपनियों के विनिर्माण लाइसेंस रद्द करने के साथ केंद्र सरकार दवाओं की गुणवत्ता में सुधार के लिए कदम उठा रही है। वैसे अभी और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। इस बीच, वैश्विक नियामकों की कार्रवाई भी जारी है। नवंबर, 2019 से विगत नवंबर तक यूएस एफडीए ने 60 आधिकारिक कार्रवाइयों (ओएआई) के बारे में संकेत दिए हैं। एफडीए के चुनिंदा निरीक्षणों में पाया गया है कि कुछ बड़े फार्मास्यूटिकल खिलाड़ियों द्वारा खासकर कैंसर संबंधित और इंसुलिन दवाओं के निर्माण में माइक्रोबायलॉजिकल संदूषण को रोकने के लिए स्थापित प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया जा रहा है। ऐसे मामलों में फंगल से बचने के तरीके तक अमल में नहीं लाए जा रहे। दवाओं की गुणवत्ता के मामले में ऐसी लापरवाही खतरनाक है, जिससे दुनिया में भारत की साख प्रभावित हो रही है।
जाहिर है कि फार्मा क्षेत्र में ठोस विनियामकीय सुधार की आवश्यकता है। इसके लिए स्वास्थ्य मंत्रालय सभी फार्मा निर्माताओं पर प्रभावी निगरानी के लिए दवाओं के केंद्रीकृत डाटाबेस को बढ़ावा देने की पहल के साथ ड्रग्स ऐंड कॉस्मेटिक्स ऐक्ट (1940) में संशोधन कर सकता है। यदि संघीय-राज्य सहयोग इसकी अनुमति देता है, तो देश के 36 क्षेत्रीय नियामकों को एक एकल नियामकीय व्यवस्था की शक्ल दी जा सकती है। इससे स्थानीय व राज्य स्तर पर नियामकीय प्रक्रिया को प्रभावित करने के जोखिम न्यूनतम हो जाएंगे।
नियामकीय सशक्तता के लिए राज्यों में सामान्य दवा मानकों की भी जरूरत है। देश में 10,000 से अधिक दवा निर्माण इकाइयां हैं, जिनमें से 2,000 को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने प्रामाणिक पाया है। ऐसी इकाइयां 3,000 से अधिक फर्मों के स्वामित्व में हैं, जिनमें हजारों उत्पाद तैयार किए जा रहे हैं। इन सभी को विनियमित करने का अर्थ है- निरीक्षण की एक बड़ी जवाबदेही। अतीत में नियमित जांच के दौरान महज सक्रिय अवयवों की कमी पर रोशनी डाली गई है। 2013 में तमिलनाडु में एक एंट्री एलर्जिक दवा को सिर्फ ग्लिपीजाइड का इस्तेमाल न होने के कारण गैरमानकीय करार दिया गया था। राज्य दवा नियंत्रकों के तहत निरीक्षण टीमों को मजबूत करने और निरीक्षण अवधि को कम और नियमित करने के लिए अतिरिक्त बजटीय सहायता की जरूरत है।
भारत में बनी दवाओं के प्रति भरोसा बढ़ाने के लिए नियामकीय प्रक्रिया का पारदर्शी और प्रभावी होना जरूरी है। इसके अलावा हमें पिछली गंभीर नियामकीय व गुणवत्ता संबंधी उल्लंघनों का डाटाबेस भी सार्वजनिक करना चाहिए। ड्रग रिकॉल पर एक राष्ट्रीय कानून के लिए भी गंभीरता से विचार करना चाहिए। यह प्रस्ताव 1976 से लटका पड़ा है। केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) का वैधानिक सामर्थ्य बढ़ाना चाहिए और इसके लिए स्वतंत्र निकाय के रूप में एक केंद्रीय औषधि प्राधिकरण बनाने के लिए ड्रग्स ऐंड कॉस्मेटिक्स (संशोधन) विधेयक, 2013 की तरह एक बिल तैयार व पारित करना चाहिए।
देश के विश्व प्रसिद्ध फार्मास्यूटिकल उद्योग को साधारण जेनेरिक दवाओं के निर्माण से आगे गुणवत्तापूर्ण जेनेरिक व नवोन्मेषी दवाओं के निर्माण से जुड़े उद्योग की ओर बढ़ना चाहिए। इक्वाडोर, पनामा और नाइजीरिया जैसे देशों ने हाल ही में भारतीय जेनेरिक दवाओं में अपनी बढ़ी दिलचस्पी जाहिर की है। भारत सरकार ने शून्य दोष के साथ ‘मेक इन इंडिया’ की बात की है। इसी आलोक में देश के दवा उद्योग से जुड़ी चुनौती पर खरा उतरने के लिए संकल्पपूर्वक आगे बढ़ना होगा।