जेनेरिक दवाओं की स्वीकार्यता बढ़ सकती है नए कानून से

हैल्थकेयर: बशर्ते कि गुणवत्ता व अंकित मूल्य पर दिया जाए ध्यान ….

म हंगी दवाइयां उपचार को काफी महंगा कर देती हैं, यह सब जानते हैं। इसीलिए समाज के हर तबके से यह मांग उठती रहती है कि स्वास्थ्य सेवाएं सबके लिए सुलभ तो हों ही, सस्ती व गुणवत्तायुक्त दवाएं भी मिलें यह भी जरूरी है। इसीलिए जेनेरिक दवाओं पर जोर दिया जाता है। चिकित्सकों को भी जेनेरिक दवाइयां लिखने के लिए सरकारी स्तर पर कहा जाता रहा है। इस बीच केन्द्र सरकार भी दवाइयों, चिकित्सा उपकरणों और सौंदर्य प्रसाधनों के आयात, निर्माण, वितरण और बिक्री को विनियमित करने व दवाओं के नियामक मानक तय करने के मकसद से एक विधेयक पेश करने की तैयारी में है। कानून बनने पर यह विधेयक मौजूदा औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम 1940 को प्रतिस्थापित करेगा।

वस्तुत: दवाएं दो तरह की होती हैं द्ग पहली ब्रांडेड और दूसरी जेनेरिक। जेनेरिक दवा जिस साल्ट से बनाई जाती है, उसी साल्ट से उसे जाना जाता है। ब्रांडेड दवा में भी होता तो वही साल्ट है पर दवा निर्माता कंपनियां अलग-अलग नाम देकर इन्हें बाजार में उतारती हैं। लागत की बात करें तो जेनेरिक दवा की लागत ब्रांडेड दवाइयों की तुलना में काफी कम होती है। ये जेनेरिक दवाएं सरकारी अस्पतालों में तो नि:शुल्क भी मिल जाती हैं। निजी अस्पताल में उपचार पर ये दवाइयां दवा विक्रेता से ही खरीदने की मजबूरी होती है। कुछ दवा निर्माता कंपनियां ब्रांडेड व जेनेरिक दोनों तरह की दवाएं बनाती हैं। इन्हें देखकर यह अंतर करना आसान नहीं होता कि कौन-सी जेनेरिक है और कौन-सी ब्रांडेड? अंतर इन दवाओं पर अंकित कीमत का होता है। बात जब दवाओं की होती है तो सब जानते हैं कि इन पर अंकित मूल्य इनकी लागत से कई गुणा ज्यादा होता है। जेनेरिक दवाएं भी इसका अपवाद नहीं हैं जहां मूल लागत से कई गुणा अधिक तक की एमआरपी अंकित होती है। कई बार तो यह ब्रांडेड दवाओं से भी ज्यादा पहुंच जाती है। हां, इतना जरूर है कि जेनेरिक दवा लिखने पर यह दवा विक्रेता पर निर्भर होता है कि वह कौन-सी कंपनी की दवा दे। ऐसे में बहुत संभव है कि जेनेरिक दवा में भी पहले ज्यादा फायदे की तलाश ही होगी। वास्तव में हम जेनेरिक दवाओं को प्रोत्साहित करना चाहते हैं तो इन पर वास्तविक मूल्य अंकित करने पर जोर देना होगा। तब जाकर ही मरीजों को इनका फायदा मिल पाएगा। कई बार दवाओं पर ज्यादा डिस्काउंट की उम्मीद में उपभोक्ता भी अंकित कीमत की अनदेखी करते हैं। न तो ब्रांडेड दवा में और न ही जेनेरिक दवाओं में यह अनुमान लगाना आसान होता है कि इन पर मुनाफा कितना कमाया गया होगा। क्योंकि दोनों पर ही बिक्री मूल्य अंकित होता है जो लागत मूल्य से कहीं ज्यादा होता है। यह बात सही है कि दवाओं में जेनेरिक व ब्रांडेड दोनों की अपनी उपादेयता है। आर्थिक रूप से सक्षम लोग आज भी ब्रांडेड दवाओं को प्राथमिकता देते हैं। इसकी वजह जेनेरिक को लेकर बनी यह भ्रांति हो सकती है कि ये दवाएं ज्यादा असरकारक नहीं होंती। तर्क यह भी दिया जाता है कि अपनी दिनचर्या में ब्रांडेड वस्तुओं का इस्तेमाल करने वाले यदि दवा भी ब्रांडेड ही इस्तेमाल करते हैं तो यह उनकी इच्छा का विषय है। पर यहां सवाल समाज के उस तबके का है जो महंगे उपचार और महंगी दवाओं से पहले से ही परेशान है। निश्चित ही इनके लिए जेनेरिक दवा काफी मददगार साबित हो सकती है।

ब्रांडेड दवाओं पर ज्यादा एमआरपी अंकित होने के संबंध में तर्क दिया जाता है कि रिसर्च, मार्केटिंग व ब्रांडिंग पर होने वाला खर्च भी लागत का हिस्सा ही होता है। गुणवत्ता की लंबी प्रक्रिया से गुजरते हुए ये महंगी होने लगती हैं, पर दवा के मामले में गुणवत्ता का विषय सभी पर लागू होता है द्ग ब्रांडेड पर भी, जेनेरिक पर भी। जेनेरिक दवाओं को सख्त मानकों के बाद ही बाजार में उतारा जाना चाहिए ताकि चिकित्सक व मरीज दोनों ही इन पर अधिक भरोसा कर सकें। ऐसा हुआ तो वे लोग भी जेनेरिक दवाओं का इस्तेमाल करेंगे जो अब तक इनसे दूर रहते आए हैं। अभी तो जेनेरिक दवाओं की पैरवी करने वाले भी खुद के या अपने नजदीकी रिश्तेदार के बीमार पड़ने पर ब्रांडेड की वकालत करते ही दिखते हैं। ऐसे में जरूरी है कि जेनेरिक दवा गुणवत्ता के मानकों पर तो खरी उतरें ही, उन पर भी लागत के मुकाबले कई गुणा दाम अंकित करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जाए। नए विधेयक को लेकर जिस तरह के सुझाव सरकार को मिले हैं लगता है कि निश्चित ही इस दिशा में सरकारी स्तर पर पहल होगी।

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