कांग्रेस का ‘DM’ फॉर्मूला बदल सकता है !
कांग्रेस ने जय जवाहर-जय भीम अभियान की शुरुआत की है. दलित-मुस्लिम (DM) के एक साथ आने से देश की करीब 200 सीटों का समीकरण उलट-पलट सकता है.
यूपी कांग्रेस अल्पसंख्यक विभाग के चेयरमैन शाहनवाज आलम के मुताबिक दलित-मुस्लिम गठजोड़ को सफल बनाने के लिए 2 तरह की रणनीति तैयार की गई है. पहली रणनीति एक सप्ताह में 1 लाख दलितों के घर अल्पसंख्यक विभाग के कार्यकर्ताओं को भेजने की है.
दूसरी रणनीति दलित परिवार के लोगों को एक तस्वीर के जरिए साधने की है. इस तस्वीर में बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर संविधान की प्रति प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को सौंप रहे हैं और उस फोटो में पंडित जवाहर लाल नेहरू भी मौजूद हैं.
राजनीतिक जानकार कांग्रेस के जय जवाहर-जय भीम अभियान को मायावती के वोटबैंक में सेंध लगाने की कोशिशों के रूप में भी देख रहे हैं. लेकिन इसमें कहीं न कहीं समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोटों पर भी सेंध लगने का अंदेशा भी है. अगर ये फॉर्मूला सफल रहा है तो इसका असर देश के कई राज्यों में पड़ेगा और लपेटे में बीजेपी के साथ-साथ बीएसपी और समाजवादी पार्टी भी आ सकते हैं.
200 सीटों का गणित, लपेटे में आ सकते हैं सपा-बसपा और बीजेपी भी?
बीजेपी की पसमांदा राजनीति, जो सुर्खियों में है…
उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और बंगाल के मुस्लिम वोटबैंक में सेंध लगाने के लिए बीजेपी ने पसमांदा का दांव चला है. हाल ही में पार्टी ने तारिक मंसूर और अब्दुल्ला कुट्टी को बीजेपी संगठन में उपाध्यक्ष बनाया गया है. यूपी सरकार में भी पसमांदा दानिश अंसारी मंत्री हैं.
पसमांदा मुसलमानों के पिछड़े वर्ग को कहा जाता है. पसमांदा समुदाय काफी समय से सरकारी नौकरियों में कोटा मांगता रहा है. कई राज्य सरकारों ने पसमांदा यानी गरीब मुसलमानों को कोटा भी दिया है. कुल मुस्लिम वोट में 15 फीसदी वोट पसमांदा का माना जाता है.
अगर 10वां हिस्सा भी भाजपा को वोट देता है तो यह कुल वोट का 1.5 प्रतिशत होगा. जानकारों का कहना है कि बीजेपी के कई उम्मीदवार चुनाव 1 प्रतिशत से भी कम मार्जिन से हारे जाते हैं. ऐसे में यह रणनीति बीजेपी के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है.
देश की सियासत में 1998 में सबसे पहले पसमांदा शब्द की गूंज सुनाई पड़ी. उस वक्त पत्रकार से राजनेता बने अली अनवर ने पसमांदा समाज का एक संगठन बनाकर सत्ता में हक की लड़ाई छेड़ दी.
भारत में मुसलमानों को मुख्य रूप से अशरफ (ऊंची जाति) और अजलफ (पिछड़े) और अरजल (दलित) में बांटा गया है. अली अनवर के मुताबिक मुसलमान में पसमांदा की आबादी करीब 85 फीसदी है.
कांग्रेस से पहले दलित और फिर मुसलमानों का पलायन, 3 वजह
1. सत्ता में सवर्ण नेताओं का दबदबा- 1980 के दशक में इंदिरा के नेतृत्व में कांग्रेस मजबूती के साथ लौटी. इसके बाद सत्ता में सवर्ण नेताओं का दबदबा बढ़ता गया. उदाहरण के लिए 1980-90 के बीच बिहार में कांग्रेस ने 5 मुख्यमंत्री बनाए, लेकिन एक भी मुख्यमंत्री गैर-सवर्ण नहीं था.
इसी तरह यूपी में भी कांग्रेस ने 1980-89 तक 5 मुख्यमंत्री बदले, लेकिन यहां भी किसी ओबीसी, दलित और मुसलमानों को कुर्सी नहीं दी गई. विपक्ष इसे भुनाने में कामयाब हो गया. नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस के हाथों से मजबूत वोटबैंक छिटक गया.
2. 1990 में क्षेत्रीय पार्टियों का उभार- 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश, बिहार समेत कई राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां तेजी से उभरने लगी. दलितों के एकजुट कर कांशीराम ने यूपी में कांग्रेस को पहला बड़ा झटका दिया. बीएसपी उस वक्त बिहार, यूपी, मध्य प्रदेश और पंजाब में दलित वोट तोड़ने में कामयाब रही.
बीएसपी के अलावा कई और छोटी-छोटी पार्टियां उत्तर भारत के राज्यों में सक्रिय हो गई, जिनकी राजनीति जाति आधारित थी. क्षेत्रीय पार्टियों की उभार की वजह से कांग्रेस का पुराना समीकरण ध्वस्त हो गया.
मंडल कमीशन ने कांग्रेस के समीकरण में आखिरी कील ठोक दिया. कांग्रेस इसके बाद यूपी और बिहार की सियासत में अप्रासंगिक हो गई.
3. बाबरी विध्वंस में राव की भूमिका- बाबरी विध्वंस के बाद कांग्रेस से मुसलमानों ने भी पलायन कर लिया. बिहार में लालू यादव की पार्टी और यूपी में मुलायम सिंह के पार्टी मुसलमानों को अपने पाले में लाने में कामयाब रहे.
जानकारों का कहना है कि मुस्लिम समुदाय की नाराजगी पीवी नरसिम्हा राव की सरकार से थी. बाबरी विध्वंस के वक्त उनकी भूमिका पर भी सवाल उठा था. हालांकि, सोनिया गांधी के राजनीति में आने के बाद राव अलग-थलग कर दिए गए.
जय जवाहर-जय भीम की रणनीति क्या है?
1. सिर्फ यूपी में कांग्रेस 5.5 लाख दलित परिवार के बीच इस अभियान के तहत जाएगी. अल्पसंख्यक विभाग की ओर से 75 जिलों का रोस्टर तैयार किया गया है. अभियान सफल हुआ तो अन्य राज्यों में भी इसे लागू की जा सकती है.
2. बीजेपी सरकार कैसे दलितों के अधिकार को खत्म कर रही है… इसके बारे में कांग्रेस के अल्पसंख्यक कार्यकर्ता लोगों से बताएंगे. हर बस्ती में दलित और मुस्लिम समाज के लोग मिलेंगे.
3. कांग्रेस दलितों को उसकी राजनीतिक शक्तियों के बारे में बताने का काम करेगी. साथ ही यह समझाने की कोशिश करेगी कि दलित-मुसलमान के मिल जाने से सियास ताकत कैसे और कितना बढ़ेगा?
4. एक दिन में एक बस्ती में अंबेडकर, राजेंद्र प्रसाद और नेहरू के करीब 100 तस्वीर बांटने का लक्ष्य रखा गया है. पार्टी दलित परिवारों से इन तस्वीरों पर माल्यार्पण भी कराएगी.
5. कांग्रेस की नजर मायावती के टूट रहे वोटबैंक पर भी है. बीएसपी के वोटबैंक में लगातार कमी देखी जा रही है. कांग्रेस की कोशिश इन वोटरों को बीजेपी में जाने से रोकने की है. इसे भी जय जवाहर-जय भीम अभियान के तहत साधा जाएगा
रणनीति कामयाब हुई तो क्या असर होगा?
बड़ा सवाल यही है कि कांग्रेस अगर दलित और मुसलमानों को फिर से जोड़ने में कामयाब हो जाती है, तो इसका असर क्या हो सकता है? इसे जानते हैं…
लोकसभा की 200 सीटों पर दलित-मुस्लिम वोटर्स हावी
2011 जनगणना के मुताबिक भारत में 14 फीसदी से ज्यादा मुसलमान हैं. यूपी, असम, बिहार, पश्चिम बंगाल और झारखंड में मुसलमानों की आबादी सबसे अधिक है. एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 543 लोकसभा सीटों में से 80 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम आबादी 20 फीसदी से अधिक है.
वहीं जिन 5 राज्यों में मुस्लिम आबादी सबसे अधिक है, वहां लोकसभा की लगभग 190 सीटें हैं. देश की 9 लोकसभा सीटों पर मुस्लिम आबादी करीब 50 प्रतिशत से अधिक है. इनमें बिहार की किशनगंज जैसी सीट भी शामिल है.
इसी तरह दलितों के लिए लोकसभा की 84 सीटें आरक्षित है. देश में करीब 17 प्रतिशत आबादी दलितों की है. इसके अलावा भी देश की कई सीटों पर दलित समुदायों का दबदबा है. पिछले चुनाव में बीजेपी दलित वोटरों को साधने में सफल रही थी.
CSDS के मुताबिक साल 2019 में बीजेपी दलितों का 38 प्रतिशत वोट हासिल करने में सफल रही थी. बीजेपी को मुसलमानों का 8 फीसदी वोट भी मिला था.
बिहार में मुस्लिम बहुल वाली कई सीटों पर एनडीए को 2019 में जीत मिली थी. ऐसे में अगर इस बार कुछ उलटफेर होता है, तो करीब-करीब 200 सीटों का समीकरण बदल सकता है, जिसमें 80 सीटें 20 फीसदी से अधिक मुस्लिम वोटों और 84 सीटें दलित आरक्षण वाली और 36 दलित बहुल वाली सीटें शामिल हैं.