शिक्षा के बाजार में लुट जाने का भय !
वेदिन अब हवा हो गए जब ग्राहकों को झोला उठा कर बाजार जाना पड़ता था। अब तो बाजार खुद चलकर ग्राहकों तक आने लगे हैं। ऐसा ही एक बाजार चलकर हमारे गांव में आया – शिक्षा का बाजार। गांव की चौपाल पर ‘प्रवेश आरंभ’ लिखा बड़ा-सा एक होर्डिंग लगाया गया। सच पूछो तो शिक्षा के अधिकार का सही-साट पालन यहीं देखने में आता है। साल भर ही ‘प्रवेश आरंभ’ लिखा रखते हैं। होर्डिंग की इबारत में न्यूनतम शुल्क पर उच्चतम शिक्षा देने का संकल्प साफ टपक रहा था। कहते भी हैं – स्वास्थ्य आज की और शिक्षा कल की मजबूरी है। यही वजह है कि इनके बाजारों में भीड़ उमड़ ही पड़ती है। ‘थोड़े-से पैसों में बड़ी-बड़ी खुशियां किस्तों में खरीदने को ऐसे ही भीड़ उमड़ती है। वैसे भी आम आदमी भीड़ ही होता है। सो भीड़ में शामिल हो अपन भी उमड़े गांव के इस बाजार में।
बिटिया को लेकर पहुंचा तो होटलनुमा बिल्डिंग के भू-तल पर दुकानें ही दुकानें नजर आ रही थीं। घुसते ही मैं रिसेप्शनिस्ट मैडम के हत्थे चढ़ गया। वह मुझे बाजार घुमाने चल दीं। छप्पन तो नहीं मगर छत्तीस जरूर होंगी ये दुकानें। मोहतरमा मुझे दिखाती गईं – ये हैं हमारी रेडिमेड गारमेंट्स, शू, बैग, स्टेशनरी आदि-आदि की दुकानें। डिस्काउंट पर सारी चीजें मिलती हैं। सामने ‘बाइक शो-रूम’ सह सर्विस सेंटर नजर आया। स्कूल में गाड़ी-घोड़ों का क्या काम? मैंने शंका भरा सवाल किया तो जवाब मिला- सर, वैसे तो हमारी स्कूल बसें हैं ही, फिर भी जो बच्चे अपने साधन से आना चाहें यह उनके लिए है। वाहन हैं तो फिर सर्विस सेंटर जरूरी हो जाता है। तो यह ‘फ्यूल सेंटर’ भी इन्हीं का होगा? मैंने इशारे से पूछा। जवाब मिला- जी सर, इतनी बसों के लिए डीजल भी तो रोज लगता है। स्कूल के पीछे उठता धुआं देख मैं पूछ बैठा- मैडम जी, स्कूल में ईंट भट्टे का क्या काम? सर देखते नहीं, अभी तो बहुत सारा कंस्ट्रक्शन बाकी है। सो ईंटें तो चाहिए कि नहीं। बाद में इस कक्षा से उस कक्षा घूमे। बच्चे ज्यादा, शिक्षक कम नजर आए। पूछा तो मैडम बोली- सर, बस शिक्षक ही पूरे नहीं हैं, बाकी नो प्रॉब्लम। मुझे यह मेगा मार्केट बिना मूर्ति वाले मंदिर की तरह जान पड़ा। बाजार में लुट जाने का भय सताने लगा सो अलग।