मुफ्त’ की राजनीति पर बढ़ा नेताओं का भरोसा
यह वाकई गंभीर सवाल है कि नागरिकों को सुविधाजीवी बनाना जरूरी है या फिर उनको आत्मनिर्भर बनाने वाली व्यवस्था देना, ताकि वे अपने दम पर अपना जीवन चला सकें।
मुं बइया फिल्मों को लेकर माना जाता रहा है कि अगर एक फॉर्मूला चल गया तो उसी के मसाले पर फिल्मों की लाइन लग जाती है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है, जब तक कि वह फॉर्मूला पिट नहीं जाता। मौजूदा राजनीति भी इसी रास्ते पर नजर आ रही है। पहले एक सियासी फॉर्मूले पर आम आदमी पार्टी दिल्ली एवं पंजाब की सत्ता पर काबिज हुई। इसी अंदाज पर कांग्रेस भी चल पड़ी है। इसका उसे हिमाचल और कर्नाटक में फायदा भी मिला। अगले कुछ महीनों में होने जा रहे चुनावों में भी वह इसी मसाले के साथ उतरने की तैयारी में है। मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी भी इसी रास्ते पर आगे बढ़ती नजर आ रही है।
कांग्रेस की दिक्कत है कि कुछ महीनों में जिन राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनाव होने हैं, वहां उसकी ही सरकारें हैं। यहां चाहकर भी वह बहुत वादे नहीं कर सकती। लेकिन मध्य प्रदेश के लिए उसने वादों का जैसे पिटारा ही खोल रखा है। हिमाचल और कर्नाटक में सरकारें गवां चुकी भारतीय जनता पार्टी भी मध्य प्रदेश में कांग्रेस की ही तर्ज पर लगातार कार्यक्रम लागू करती जा रही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या चुनाव इसी तरह लड़े जाएंगे? सवाल यह भी है कि सामाजिक रूप से पीछे छूट गए लोगों का विकास क्या इसी तरह होगा?
राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में एक चीज समान है। सत्ता और विपक्ष, दोनों ने अपनी योजनाओं और वादों के केंद्र में महिलाओं को रखा है। बस किराए में छूट देना हो या सब्सिडी पर रसोई गैस देना या फिर उन्हें मासिक तौर पर भत्ते देना हो, सबके केंद्र में महिलाएं ही हैं। सबको लगता है कि अगर महिलाओं को उन्होंने साध लिया तो सत्ता में आना तय है।
राजस्थान और छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकारें अगले चुनाव में अपनी विकास योजनाओं पर भी भरोसा कर रही हैं। राजस्थान में पात्र उपभोक्ताओं को पांच सौ रुपए में रसोई गैस मिल रही है, सरकारी बसों में महिलाओं को आधी कीमत पर यात्रा की छूट है। इसके साथ ही सौ यूनिट बिजली मुफ्त मिलने लगी है। राजस्थान में दुधारू पशुओं के लिए चालीस हजार रुपए का बीमा मिल रहा है। इसी तरह छत्तीसगढ़ में बिजली बिल आधा कर दिया गया है। मई से शुरू राजीव गांधी किसान न्याय योजना के जरिए किसानों को कई सुविधाएं दी जा रही हैं। राज्य की लोकप्रिय गोधन न्याय योजना के जरिए गोबर की सरकारी खरीद हो रही है। पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को महिलाओं के हवाले कर रखा था। बघेल सरकार भी इसी तर्ज पर आगे बढ़ रही है। मध्य प्रदेश की सरकार लाड़ली बहना योजना के तहत महिलाओं को सीधा आर्थिक लाभ दे रही है।
हर राज्य में सत्ता पक्ष हो चाहे विपक्ष, सरकारी खजाने के जरिए वंचित और सामाजिक रूप से पीछे रह गए वर्ग को साधने की कोशिश में है। सत्ताधारी जहां विपक्षी वादे के जवाब में नई योजनाएं ला रहे हैं, तो विपक्ष सरकारी योजनाओं से आगे बढ़कर ज्यादा सहूलियत का वादा कर रहा है। मध्य प्रदेश में कांग्रेस महिलाओं को डेढ़ हजार रुपए महीना, सब्सिडी पर रसोई गैस देने का वादा कर रही है। इस कवायद में खजाने पर बढ़ने वाले बोझ की चर्चा गायब है।
हिंद स्वराज में गांधी ने आजाद भारत में धनी और गरीब की संपत्ति में अधिकतम दस और एक के अनुपात की बात की है। लोहिया इसे बीस और एक तक मानते हैं। दीनदयाल उपाध्याय की भी सोच कुछ ऐसी ही थी। गांधी की अनुयायी होने का दावा कर रही कांग्रेस हो या लोहिया के पदचिह्नों पर चलने वाले समाजवादी नेता या फिर दीनदयाल के विचारों पर काम करने वाली भाजपा, इस मुद्दे पर सभी एक जैसे नजर आते हैं। यही वजह है कि सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों के समर्थन की कोशिश में राजनीति गलत दिशा पकड़ रही है। इस तरह की राजनीति मुफ्तखोरी की अवधारणा को एक तरह से स्थापित कर रही है। लोकतंत्र में मतदाताओं को इससे चिंतित होना चाहिए था, लेकिन लोकतांत्रिक साक्षरता के अभाव में ऐसा नहीं हो पा रहा। यह चिंताजनक स्थिति है। अब वक्त आ गया है कि इस मुद्दे से जुड़े सवालों पर राजनीतिक दल और मतदाता गंभीरता से विचार करें। यह वाकई गंभीर सवाल है कि नागरिकों को सुविधाजीवी बनाना जरूरी है या फिर उनको आत्मनिर्भर बनाने वाली व्यवस्था देना, ताकि वे अपने दम पर अपना जीवन चला सकें और देश में लोकतंत्र मजबूत हो सके।