भ्रष्टाचार ?
हाल ही राजस्थान सरकार ने बीस नए जिले बना दिए, मानो जनता के लिए राशन की दुकानें खोली हों। किसके लिए? अफसरों के लिए, जिनकी पहले से राज्य में कमी महसूस होती रही है। वैसे वीआइपी के आगे-पीछे, बिना प्रोटोकाल के भी, भागते देखे जा सकते हैं। अब नई घोषणा से बीस नए कलक्टर, बीस पुलिस अधीक्षक, संभागीय आयुक्त, प्रत्येक जिले के अधिकारी आदि ठाठ-बाट का जीवन व्यतीत करेंगे। विकास का उदाहरण पिछली बार बने जिले हैं, जो अधिकारियों के दिए दर्द का प्रमाण हैं। करौली, दौसा, प्रतापगढ़, राजसमंद, हनुमानगढ़ आदि में किसी भी जिले का दौरा कर लें, जनता के सेवक कितने ‘राष्ट्रभक्त’ हैं, एक ही दिन में समझ जाएंगे। पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं।
जिस प्रकार सरकारी बिल बनते हैं, कौन नहीं जानता। वहां बजट की चर्चा का क्या काम! आज एक नया जिला बनाने पर 4-5 हजार करोड़ रुपए खर्च होते हैं। बीस जिलों के लिए 80 हजार से एक लाख करोड़ रुपयों की जरूरत पड़ेगी। 2000 से 2500 तक कुल अधिकारी, प्रत्येक जिले में 500-600 कर्मचारी के हिसाब से 10-12 हजार कर्मचारी चाहिए। आज राज्य का बजट है-लगभग 2 लाख 60 हजार करोड़। इसमें इन जिलों का नियमित खर्च होगा लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपए। अफसर तय करेंगे वास्तव खर्च कितना दिखाना है। फिर सरकारी आवास!
प्रत्येक जिले में कलक्टर भवन-जिला न्यायालय के लिए 150 करोड़ रुपए चाहिए। शिक्षा संकुल, जल विभाग, विद्युत विभाग, सिंचाई विभाग, स्वास्थ्य विभाग, कॉलेज (मेडिकल), पुलिस लाइन्स, परेड ग्राउण्ड, जेल जैसे अनेक कार्यालय खुलेंगे। कितनी जमीन चाहिए? अधिकारी तो संविदा पर आते नहीं, न ही इनकी भर्ती थमती है। पेंशन, वेतन से कम नहीं। तब राजस्व कहां से आएगा? जनता के विकास का क्या भविष्य होगा! इतना सब खर्चने के बाद फिर अफसरों की ही कमी सामने आएगी। न कर्मचारियों की भर्ती होगी, न ही पुरानों का स्थायीकरण होने वाला। न पेपर लीक रुकेंगे। अंग्रेजों का राज ही स्थापित रहेगा। भष्टाचारियों का बोलबाला, भारतीयों की लूट का सिलसिला जारी रहेगा। सिर्फ इसलिए कि जनप्रतिनिधि योग्य नहीं। सरकार की लाचारी होती है-अयोग्य को साथ रखने की और वोट की राजनीति, जातिवाद, वंशवाद आदि केबिनेट बनाने में बड़ी बाधा।
इस बार तीनों प्रान्तों में चुनाव का मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार ही है। इसके दोषी भी अफसर माने गए हैं। आम व्यक्ति की बात ही नहीं सुनते। उनके काम ही नहीं होते। योजनाएं कितनी भी जनकल्याणकारी हों, सचिवालय से बाहर निकालना टेढ़ी खीर लगती है। और तो और स्वयं छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कहते हैं कि सरकार से कोई नाराजगी नहीं है। लोग भ्रष्टाचार से दु:खी हैं। जिसको ‘एण्टी इन्कम्बेंसी’ कहा जाता है। वह भी तो प्रशासन की निष्क्रियता का ही रूप है।
इनके कर्मों से बदनामी
क्या इसको अधिकारी अपनी समझ पर कलंक नहीं मानते। आखिर इनके खून में ऐसा क्या होता है कि उम्रभर मांगते ही रहते हैं, खाते ही रहते हैं और मरने तक अभावग्रस्त ही रहते हैं? क्या इस तथ्य को नहीं जानते कि इन्हीं के कर्मों से तो जनता द्वारा चुनी हुई सरकार बदनाम होती है। और फिर खेल तो कागज के अचेतन टुकड़ों का है, काल्पनिक-क्षणिक सुख का है। विडम्बना यह है कि इनका जीवन न तो भारतीय दृष्टि से संस्कारित दिखाई पड़ता है, न ही इस दृष्टि से प्रशिक्षित। हालांकि गृहमंत्री अमित शाह ने मुझे आश्वासन दिया था कि वे प्रशिक्षण में आमूल-चूल परिवर्तन कराएंगे। देश उस दिन की प्रतीक्षा करेगा।
राजनीति नित नई करवटें बदल रही है। अफसर खाए, नेता न खाए, यह कैसे हो सकता है। नेता तो करोड़ों का निवेश करके पहुंचते हैं। कमाना भी है, व्यापार भी करना है, नया चुनाव भी लड़ना है। सरकार बदलने पर अफसर की कमाई कम नहीं होती। यही ईर्ष्या का विषय है, स्पर्धा भी। विधायक के अपने विक्रय मूल्य हो गए। सरकार बनानी है-तो मुझे खरीद लो। मुझे तो बस कमाना है। इसका नया अर्थ है कि सरकार क्या करे, क्या न करे, यह मुख्यमंत्री का विषय रह गया। अधिकांश मंत्री तो राज्य स्तर के विषय समझ ही नहीं सकते। कमान फिर से अफसरों के हाथों में। नए लक्ष्य के साथ। ज्यादा जिले, ज्यादा बंटवारा!