नीतीश राज में क्यों बदहाल है स्वास्थ्य सेवा?

डॉक्टर बनाने में उत्तर भारत के राज्य पिछड़े, बिहार अंतिम पायदान पर; नीतीश राज में क्यों बदहाल है स्वास्थ्य सेवा?
राज्यसभा में केंद्र ने एक जवाब में कहा कि मेडिकल सीट के मामले में एनएमसी के हिसाब-किताब में बिहार काफी पिछड़ा हुआ है. सूची में बिहार नीचे से दूसरे नंबर पर है. बिहार से नीचे नॉर्थ-ईस्ट का मेघालय है
बिहार में स्वास्थ्य सेवा को लेकर नीतीश सरकार के दावे और हकीकत में जमीन आसमान का फर्क है. हाल ही में मुजफ्फरपुर के एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार के स्वास्थ्य व्यवस्था की जमकर तारीफ की थी. 

मुख्यमंत्री ने यहां तक कह दिया कि अब मजबूरी में लोगों को चिकित्सा के लिए बिहार से बाहर जाने की जरूरत नहीं है, लेकिन केंद्र का हालिया डेटा उनके इस दावे को मुंह चिढ़ाने के लिए काफी है. 

राज्यसभा में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक जवाब में बताया है कि एमबीबीएस सीट के मामले में नेशनल मेडिकल काउंसिल के हिसाब-किताब में बिहार काफी पिछड़ा हुआ है. सूची में बिहार नीचे से दूसरे नंबर पर है. बिहार से नीचे नॉर्थ-ईस्ट का मेघालय है.

इस डेटा में आगे कहा गया है कि बिहार में मेडिकल की करीब 13 हजार सीटें होनी चाहिए, लेकिन वर्तमान में यह 2565 ही है. वो भी तब, जब बिहार सरकार कुल बजट का 7 प्रतिशत सिर्फ स्वास्थ्य विभाग पर खर्च कर रही है. 

सरकार ने इसी साल अपने स्वास्थ्य बजट में भारी बढ़ोतरी का ऐलान किया था. 

पहले एमबीबीएस सीटों की कहानी समझिए…
नेशनल मेडिकल काउंसिल ने हाल ही में एमबीबीएस सीट को लेकर एक नियम बनाया है. इसके मुताबिक 10 लाख की जनसंख्या पर मेडिकल की 100 सीटें होनी चाहिए. यानी प्रत्येक 10 हजार की आबादी पर एक सीट.

इस पैमाने पर बिहार काफी पिछड़ गया है. बिहार की आबादी करीब 13 करोड़ है. राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में केंद्र सरकार ने कहा कि एनएमसी के हिसाब से बिहार में एमबीबीएस की सीटें 13 हजार के आसपास होनी चाहिए, लेकिन यह काफी कम है. 

बिहार के अभी 21 कॉलेज में एमबीबीएस की 2565 सीटें ही हैं. अगर आबादी के हिसाब से देखा जाए, तो बिहार में करीब 51 हजार लोगों पर एमबीबीएस की एक सीट है. 

बिहार के मुकाबले केंद्र शासित पुडुचेरी की बात की जाए, तो यहां 1000 लोग पर एमबीबीएस की एक सीट है. दक्षिण के पांचों राज्यों में औसतन 7 हजार पर एमबीबीएस की एक सीट है. 

3 करोड़ 80 लाख आबादी वाले तेलंगाना में एमबीबीएस की 7415 सीटें हैं, जबकि एनएमसी के मुताबिक यहां 3809 सीटें ही होनी चाहिए. 6 करोड़ 76 लाख आबादी वाले कर्नाटक में एमबीबीएस की करीब 12 हजार सीटें हैं, यहां भी 6600 के आसपास सीटें होनी चाहिए.

3 करोड़ 94 लाख आबादी वाले झारखंड में एमबीबीएस की सिर्फ 980 सीटें हैं. एनएमसी के मुताबिक यहां कम से कम 3900 सीटें होनी चाहिए थी. इसी तरह मध्य प्रदेश की आबादी 8 करोड़ से ज्यादा है, लेकिन यहां एमबीबीएस की सीटें 4180 ही है.

पश्चिम बंगाल की आबादी 10 करोड़ के आसपास है, लेकिन यहां एमबीबीएस की 4825 सीटें ही हैं. 4.6 करोड़ आबादी वाले ओडिशा में एमबीबीएस सीटों की संख्या 2324 है.

नीतीश राज में कितने मेडिकल कॉलेज बने?
2005 में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने. उस वक्त राज्य में 6 सरकारी मेडिकल कॉलेज और 2 निजी मेडिकल कॉलेज था.नीतीश के आने के बाद 15 साल में मेडिकल कॉलेज की संख्या बढ़कर 20 हो गई है. इसी दौरान भारत सरकार का एम्स भी पटना में खुला है. 

नए मेडिकल कॉलेज खुलने से बिहार में करीब 1200 सीटें एमबीबीएस की बढ़ी है. हालांकि, यह सीटें सरकारी की तुलना में निजी कॉलेजों में ज्यादा बढ़ी हैं.

बिहार में ढर्रे पर स्वास्थ्य सेवा, 3 प्वॉइंट्स से समझिए…

1. पीएचसी केंद्रों की भारी कमी- बिहार में गांवों की संख्या 44874 है, जबकि पूरे राज्य में 1500 के आसपास पीएचसी केंद्र है. अगर गांवों के गुणा-गणित के हिसाब से देखा जाए तो औसतन 30 गांव पर एक पीएचसी केंद्र है. 

अगर यह भौगोलिक रूप से देखा जाए, तो 29 गांव वालों को अपने पीएचसी केंद्र पहुंचने में कम से कम 5 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ेगी. 

हालांकि, जहां पीएचसी केंद्र है भी, वहां मैनपावर की भारी कमी है. केंद्रीय एजेंसी एनएचएम हालिया डेटा के मुताबिक बिहार में 1484 में से सिर्फ 496 पीएचसी केंद्र 24/7 काम कर रहा है. तीन नर्स जिन पीएचसी में तैनात है, उसकी संख्या मात्र 105 है. 

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बिहार के 148 पीएचसी केंद्रों पर ही जनरल ड्यूटी मेडिकल ऑफिसर्स तैनात हैं, जबकि पड़ोसी राज्य झारखंड में यह संख्या 115 का है. 

2. जिला स्तर का हाल अब भी बेहाल- बिहार में 38 में से 36 जिलों में जिला अस्पताल है, जिसकी हालात अब भी खराब है. नीति आयोग के मुताबिक बिहार में 1 लाख की आबादी पर जिला अस्पताल में कम से कम 22 बेड होने चाहिए.

हालांकि, बिहार में यह संख्या 6 है. कैग ने 2022 में विधानसभा में स्वास्थ्य सेवा को लेकर एक रिपोर्ट पेश किया था. इसमें बिहार के सभी जिला अस्पतालों का हाल खस्ता बताया गया था. कैग ने कहा था कि 59 प्रतिशत मरीजों को जिला अस्पतालों के द्वारा मुफ्त दवा मुहैया नहीं कराया गया.

कैग के मुताबिक बिहार के जिला अस्पतालों में कार्डियोलॉजी, गैस्ट्रो, एंटरोलॉजी, नेफ्रोलॉजी, ईएनटी आदि जैसी 12 विभागों में आने वाले मरीजों का समुचित इलाज नहीं हो पाता है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है.

सरकारी अस्पतालों में जांच की स्थिति भी काफी खराब है. कैग के मुताबिक पटना, मधेपुरा, हाजीपुर, जहानाबाद और बिहारशरीफ के जिला अस्पतालों में ऑपरेशन थिएटर भी नहीं था, जिसकी वजह से लोगों को सरकारी अस्पतालों से जाना पड़ा. 

ब्लड बैंक की भी इन अस्पतालों में कमी पाई गई. पटना और दरभंगा के सरकारी अस्पतालों में ब्लड बैंक की कोई सुविधा नहीं थी. 

3. जिला स्तर पर विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं- मेडिकल इमरजेंसी के क्षेत्र में माना जाता है कि गंभीर रोगी (हार्ट अटैक, ब्रेन हेमरेज आदि) अगर 1 घंटे के भीतर विभागीय डॉक्टर के निगरानी में आ जाता है, तो उसके बचने की संभावनाएं काफी ज्यादा बढ़ जाती है. 

बिहार के कुछ बड़े शहरों को छोड़ दिया जाए, तो अधिकांश इलाकों में विशेषज्ञ डॉक्टर मौजूद नहीं हैं. जानकारों का कहना है कि इसकी 4 मुख्य वजह है.

 नाम न बताने की शर्त पर स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी बताते हैं- ग्रामीण इलाकों की वैकेंसी जब निकलती है, तो कई पद भरे नहीं जाते हैं.  2021 में बिहार सरकार ने पटना हाईकोर्ट में एक हलफनामा दाखिल किया था. इसके मुताबिक पूरे राज्य में 5508 स्पेशलिस्ट स्वीकृत पदों में 1795 डॉक्टर हैं. फरवरी 2022 में सरकार ने 207 पदों के लिए भर्ती निकाला था. हालांकि, कितने लोग भर्ती हुए, यह आंकड़ा नहीं बताया गया.

 विशेषज्ञ डॉक्टर ग्रामीण इलाकों में नहीं जाना चाहते हैं. इसके लिए सरकार की पॉलिसी भी जिम्मेदार है. छत्तीसगढ़ समेत कई राज्यों में ग्रामीण इलाकों में काम करने वाले डॉक्टरों को अलग से इंसेंटिव दिया जाता है, लेकिन बिहार में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है. ऐसे में बड़े डॉक्टर गांव जाने की बजाय शहरों में रहने पर अधिक फोकस करते हैं.

 ग्रामीण स्तरों पर प्राइवेट नर्सिंग होम और निजी अस्पतालों का दबदबा है. हाल ही में बिहार सरकार के 2 बड़े अधिकारी सरकारी के बजाय निजी अस्पताल में इलाज कराते नजर आए थे, जिस पर सवाल भी उठे थे. 

 किसी भी राज्य और देश में स्वास्थ्य एक महत्वपूर्ण और जरूरी विभाग माना जाता है, लेकिन बिहार में स्वास्थ्य विभाग के पास अपना एक सचिव नहीं है. वर्तमान में आईएएस अधिकारी प्रत्यय अमृत स्वास्थ्य विभाग की कमान संभाले हुए हैं. उनके पास पथ निर्माण और आपदा का भी प्रभार है. बिहार में अक्सर डॉक्टरों की शिकायत रहती है कि उन्हें लाइसेंस लेने के लिए 26 जगहों से परमिशन लेनी पड़ती है, जिसकी पारदर्शी व्यवस्था नहीं है.

4. शिशु और मातृ मृत्यु दर में भी काफी आगे- केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक बिहार शिशु और मातृ मृत्यु दर मामले में भी काफी आगे है. बिहार में शिशु मृत्यु दर 27 है. यानी 1000 जन्मे बच्चे में से 27 की मौत हो जाती है. झारखंड में शिशु मृत्यु दर 25 है.

बात मातृ मृत्यु दर की करें तो बिहार में 1 लाख में से 130 माएं गर्भावस्था के दौरान मर जाती हैं. हालांकि, बिहार सरकार इसके पीछे पुराने डेटा का हवाला देती है. सरकार का कहना है कि पहले यह संख्या काफी ज्यादा था, जिसमें सुधार हुआ है.

हर आपदा के वक्त हाथ उठा लेता है टॉप हॉस्पिटल
बिहार में पिछले 5 साल में बड़े आपदा के वक्त बिहार के टॉप हॉस्पिटल हाथ उठा लेता है. कोरोना के वक्त पीएमसीएच से लेकर तमाम बड़े अस्पतालों की हालत चरमरा गई. लोगों को बेड नहीं मिल पाया.

हाईकोर्ट को दखल देना पड़ा और अधिकारियों को कोर्ट ने जमकर फटकार लगाई. वहीं हाल मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार के दौरान देखने को मिली. 2019 में चमकी बुखार से 200 बच्चों की मौत हो गई.

इसके बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री को बिहार आना पड़ा. काफी भद्द पिटने के बाद बिहार सरकार ने मुजफ्फरपुर में बच्चों के अलग से पिंक वार्ड खोलने का फैसला किया. यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया.

सरकार क्या कर रही है, यह भी जान लीजिए…
बिहार सरकार ने 2023-24 के अपने बजट में स्वास्थ्य विभाग को खास तवज्जो दी है. बिहार में स्वास्थ्य विभाग के बजट में 800 करोड़ रुपए की बढ़ोतरी की गई. बजट भाषण में कहा गया कि 9 जिलों में मेडिकल कॉलेज खोले जाएंगे. 

बिहार सरकार के मुताबिक बजट साल में 21 मॉडल सदर अस्पताल बनाए जाएंगे. बिहार के 243 विधानसभा क्षेत्रों में 1379 छोटे स्वास्थ्य केंद्रों का निर्माण भी होगा.

सरकार ने इसी के साथ शहरी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं के प्रावधान के लिए विभाग को 3,691 करोड़ रुपये आवंटित किए. स्वास्थ्य सेवाओं पर पूंजी परिव्यय के लिए 1,830 करोड़ रुपये आवंटित किए गए.

सरकार पीएमसीएच को विश्व स्तर का अस्पताल बनाने पर भी खास फोकस कर रही है. उसके भवन निर्माण का काम इस साल के अंत तक पूरा करने का दावा किया जा रहा है. 

यूपी में भी स्वास्थ्य सेवा ठीक नहीं
बिहार के साथ-साथ उत्तर प्रदेश में भी स्वास्थ्य सेवा का हाल बेहाल है. उत्तर प्रदेश में शिशु मृत्यु दर 38 है. यानी 1000 में से 38 बच्चे जन्म लेते ही काल के गाल में समा जाते हैं. मातृ मृत्यु दर रोकने में भी यूपी काफी पीछे है.

एमबीबीएस सीट के मामले में भी उत्तर प्रदेश बिहार के लगभग बराबर है. एनएमसी रेसियो के मुताबिक यूपी में एमबीबीएस के करीब 26 हजार सीटें होनी चाहिए, जो 9 हजार के आसपास है.

उत्तर प्रदेश में आबादी 26 करोड़ है. राज्य में पीएचसी केंद्रों की संख्या 2800 के करीब है. इनमें से भी कइयों का संचालन नहीं हो रहा है. हाल ही में सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने कहा था कि राज्य के बड़े अस्पतालों में इलाज नहीं हो रहा है, पीएचसी की तो बात ही छोड़ दीजिए.

कोरोना के समय भी उत्तर प्रदेश के अस्पतालों ने बिहार की तरह ही सुर्खियां बटोरी थी. सरकारी अस्पतालों की हालत इतनी खराब है कि यहां डॉक्टर भी नौकरी करने को तैयार नहीं है. 

साल 2022 में सरकार ने 1039 पदों के लिए भर्तियां निकाली थी, जिसमें से 230 डॉक्टरों ने ज्वॉइन नहीं किया. सरकार को इन पदों को भरने के लिए दोबारा से विज्ञापन प्रकाशित करना पड़ा.

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