स्लीपर बसें जानलेवा क्यों बन जाती हैं ?

 स्लीपर बसें जानलेवा क्यों बन जाती हैं…..भारत-पाकिस्तान में ही इस्तेमाल

इसी साल जुलाई में महाराष्ट्र के बुलढाणा समृद्धि हाइवे पर स्लीपर बस में आग लग गई थी, जिसमें फंसकर 25 यात्रियों की मौत हो गई थी। यात्रियों को बचने का वक्त ही नहीं मिला। एक्सपर्ट्स लंबे वक्त से स्लीपर बसों को चलता-फिरता ताबूत बताकर बैन करने की मांग करते रहे हैं।

स्लीपर बसें इतनी जानलेवा क्यों बन जाती हैं,

स्लीपर बसों के ज्यादा हादसे होने और उनके जानलेवा बन जाने की 2 बड़ी वजहें हैं- बस की बनावट और रेस्पॉन्स मैकेनिज्म

1. बनावटः हादसे की स्थिति में निकलने का मौका बेहद कम

आम तौर पर 2×1 भारतीय स्लीपर कोच में 30 से 36 सीट होती है। मल्टी-एक्सल कोचों में सीटों की संख्या 36-40 के बीच होती है। सभी बर्थ की लंबाई लगभग 6 फीट और चौड़ाई 2.6 फीट होती है। यहां तक तो ठीक है। समस्या गैलरी में स्पेस की कमी से होती है।

स्लीपर बसों में आने-जाने के लिए बेहद पतली गैलरी होती है। जहां एक वक्त में सिर्फ एक व्यक्ति भी ठीक तरह से नहीं चल सकता। किसी हादसे की स्थिति में वहां से एक साथ कई लोगों का निकलना नामुमकिन होता है। इससे कैजुअलिटी बढ़ जाती है।

एक स्लीपर बस के अंदर का नजारा। जिसमें लेटने की जगह तो है, लेकिन आने-जाने के लिए बहुत कम जगह दिख रही है।
एक स्लीपर बस के अंदर का नजारा। जिसमें लेटने की जगह तो है, लेकिन आने-जाने के लिए बहुत कम जगह दिख रही है।

महाराष्ट्र स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन यानी MSRTC की बसों का नया लुक तैयार करने वाले रवि महेंदले के मुताबिक स्लीपर बसें यात्रियों को लेटने की सुविधा देती हैं, लेकिन आवाजाही के लिए बहुत कम जगह होती है। इसकी वजह से लोगों का हिलना डुलना भी काफी मुश्किल होता है। ऐसे में यदि कोई हादसा होता है तो लोग वहीं पर फंस जाते हैं और बाहर नहीं निकल पाते।

स्लीपर बसों की ऊंचाई भी एक समस्या है। आमतौर पर 8-9 फीट ऊंची होती हैं। रवि महेंदले के मुताबिक अगर बस अचानक एक तरफ झुक जाती है, तो यात्रियों के लिए इमरजेंसी विंडो या गेट तक पहुंचना मुश्किल हो जाता है।

वहीं बाहर राहत-बचाव में जुटे लोगों को भी कठिनाई होती है, क्योंकि किसी भी यात्री को बाहर निकालने से पहले उन्हें 8-9 फीट ऊपर चढ़ना पड़ता है। इस वजह से भी कैजुअलिटी बढ़ जाती है।

2. रिस्पॉन्स मैकेनिज्म: ड्राइवर की ओवरवर्किंग, पैसेंजर्स के लिए भी रिस्पॉन्ड करने का कम वक्त

ज्यादातर स्लीपर बसें 300 से 1000 किमी का सफर रात में ही तय करती हैं। यात्रियों को सोने की सुविधा होती है इसलिए लंबी दूरी के रूट पर वो ऐसी बसों लंबे रूट में ड्राइवर के थकने और झपकी आ जाने की संभावना पूरी होती है। बुलढाणा वाले स्लीपर बस हादसे में वहां के SP सुनील कडासने ने बताया था कि बस पर नियंत्रण खोने से पहले ड्राइवर को शायद चक्कर आ गया हो या वह सो गया हो।

SP के इस बयान के बाद ड्राउजीनेस अलर्ट सिस्टम की उपयोगिता पर सवाल उठाए जा रहा है। ड्राउजीनेस अलर्ट सिस्टम नींद आने पर ड्राइवर को अलर्ट करता है। कहा जा रहा है कि अगर बस में ड्राउजीनेस अलर्ट सिस्टम लगा होता तो बस ड्राइवर को नींद आने के समय अलर्ट करके जगाया जा सकता था और इतना बड़ा हादसा नहीं होता।

एक्सपर्ट्स के मुताबिक सो रहे ड्राइवरों को सचेत करने के लिए यह सिस्टम स्टीयरिंग में विभिन्न हिस्सों में लगे सेंसर और डैशबोर्ड पर कैमरे का उपयोग करता है। चालक के नींद में आने का पता स्टीयरिंग पैटर्न, लेन में वाहन की स्थिति, चालक की आंखों और चेहरे और पैर की गति की निगरानी से लगाया जाता है।

सड़क परिवहन मंत्रालय ने 2018 में 15 राज्यों में ड्राइवरों पर एक सर्वे किया था। इस सर्वे में शामिल 25% ड्राइवरों ने स्वीकार किया था कि गाड़ी चलाते समय वे सो गए थे। ग्लोबल स्टडीज से यह भी पता चला है कि हाईवे और ग्रामीण सड़कों पर यात्रा करते समय ड्राइवरों के सो जाने की संभावना अधिक होती है। साथ ही आधी रात से सुबह 6 बजे के बीच इसके होने की संभावना ज्यादा होती है।

रोड सेफ्टी एक्सपर्ट भरत डोगरा के मुताबिक अगर कोई दुर्घटना होती है तो जागे हुए पैसेंजर्स के रिस्पॉन्स और सोए हुए पैसेंजर्स के रिस्पॉन्स में फर्क होगा। कई बार शुरुआती 2 मिनट की प्रतिक्रिया ही जिंदगी और मौत तय करती है। बैठा हुआ यात्री, भले ही ऊंघ रहा हो वो लेटकर सोए हुए यात्री से बेहतर रिस्पॉन्ड करेगा। अगर कोई ऊपर की बर्थ पर सो रहा है तो उसके बचकर निकलने की संभावना और कम हो जाती है।

स्लीपर बसों पर चीन 11 साल पहले लगा चुका है बैन, सिर्फ भारत-पाकिस्तान में इस्तेमाल

भरत डोगरा के मुताबिक स्लीपर बसों की शुरुआत पश्चिमी देशों में हुई थी। उन्हें ज्यादातर ऐसे एंटरटेनर ग्रुप्स इस्तेमाल करते थे, जिन्हें अलग-अलग शहरों में लगातार परफॉर्मेंस देनी होती थी। धीरे-धीरे कई देशों में इन्हें आम पैसेंजर्स के लिए भी इस्तेमाल किया जाने लगा। हालांकि, इससे जुड़े रिस्क की वजह से ज्यादातर देशों ने स्लीपर बसों को चलन से बाहर कर दिया है।

चीन में 2009 के बाद स्लीपर बस से जुड़े 13 हादसे हुए। इस दौरान 252 लोगों की मौत हो गई। 2011 में हेनान प्रांत में एक स्लीपर बस में आग लगने से 41 लोगों की मौत हो गई थी।

इसी वजह से जुलाई 2011 में चीन के परिवहन मंत्रालय और सार्वजनिक सुरक्षा मंत्रालय ने दिशा-निर्देश जारी किए। इसमें कहा गया कि स्लीपर बस चलाने वाले ड्राइवरों को रात 2 से सुबह 5 बजे तक आराम करना चाहिए, क्योंकि स्लीपर बसों से जुड़ी अधिकांश दुर्घटनाओं की वजह ड्राइवरों की थकान से संबंधित थीं।

यहां पर यह गौर करने वाले बात है कि चीन में अगस्त 2012 में जो स्लीपर हादसा हुआ वो भी रात 2:40 बजे एक्सप्रेसवे पर हुआ। 28 अगस्त 2012 को चीन के शानक्सी प्रांत में एक हाईवे पर स्लीपर बस मेथनॉल ले जा रही टैंकर से टकरा गई। बस में आग लगने से 36 लोगों की मौत हो गई।

चीन के शानक्सी प्रांत में 2012 में स्लीपर बस हादसे में 36 लोगों की मौत हो गई थी।

इसके बाद चीन में स्लीपर बसों के नए रजिस्ट्रेशन पर बैन लगा दिया गया। हालांकि, पुरानी स्लीपर बसें चलती रहीं। अकेले 2012 में स्लीपर बसों से जुड़ी कम से कम तीन दुर्घटनाएं हुईं, इनमें 62 लोगों की मौत हो गई और 67 लोग घायल हुए। ये सभी हादसे रात में हुए।

चीन में बैन होने से पहले 37 हजार स्लीपर बसें चल रही थीं। देश के 5 हजार रूट पर लगभग 10 लाख लोग स्लीपर बस से सफर करते थे।

रवि महेंदले के मुताबिक भारत और पाकिस्तान को छोड़कर किसी अन्य देश के पास इतनी स्लीपर बसें नहीं हैं। रवि कहते हैं, ‘स्लीपर बस की डिजाइन में खामी होने चलते ही मैंने कई बार सड़क परिवहन मंत्रालय को पत्र लिखकर स्लीपर बसों के उत्पादन पर प्रतिबंध लगाने का अनुरोध किया था। उन्होंने कहा कि अब तक मुझे कोई जवाब नहीं मिला है।’

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स्लीपर बसों के ज्यादा हादसे होने और उनके जानलेवा बन जाने की 3 बड़ी वजहें हैं…

1. पर्याप्त स्पेस नहीं होता, आवाजाही मुश्किल

स्लीपर बस में सभी बर्थ की लंबाई लगभग 6 फीट और चौड़ाई 2.6 फीट होती है। लेकिन निकलने के लिए जगह काफी कम होती है।
स्लीपर बस में सभी बर्थ की लंबाई लगभग 6 फीट और चौड़ाई 2.6 फीट होती है। लेकिन निकलने के लिए जगह काफी कम होती है।

महाराष्ट्र स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन यानी MSRTC की बसों का नया लुक तैयार करने वाले रवि महेंदले बताते हैं कि स्लीपर बसें यात्रियों को लेटने की सुविधा देती हैं, लेकिन आवाजाही के लिए बहुत कम जगह होती है। इसकी वजह से लोगों का हिलना डुलना भी काफी मुश्किल होता है। ऐसे में यदि कोई हादसा होता है तो वे वहीं पर फंस जाते हैं और बाहर नहीं निकल पाते।

आम तौर पर 2×1 भारतीय स्लीपर कोच में 30 से 36 सीट होती है। मल्टी-एक्सल कोचों में सीटों की संख्या 36-40 के बीच होती है। सभी बर्थ की लंबाई लगभग 6 फीट और चौड़ाई 2.6 फीट होती है।

हाल ही में अधिकांश भारतीय राज्य सरकारों ने स्लीपर बस में बर्थ की संख्या को लेकर सख्त आदेश जारी किए हैं। नए नियमों महाराष्ट्र जैसे राज्यों में पहले ही लागू हो चुके हैं।

यहां पर ट्विन-एक्सल बसों में केवल 30 सीटों की अनुमति है। इसमें टूरिस्ट परमिट और ऑल इंडिया परमिट दोनों वाली स्लीपर बसें शामिल हैं।

2. इन बसों की ऊंचाई का ज्यादा होना

स्लीपर बस की ऊंचाई ज्यादा होने की वजह से हादसे के समय यात्रियों के लिए इमरजेंसी गेट तक पहुंचना काफी मुश्किल होता है।

स्लीपर बसें आमतौर पर 8-9 फीट ऊंची होती हैं। रवि महेंदले ने बताया कि ऐसे में यदि बस अचानक एक तरफ झुक जाती है, तो यात्रियों के लिए इमरजेंसी विंडो या गेट तक पहुंचना असंभव हो जाता है।

वहीं बाहर राहत-बचाव में जुटे लोगों को भी कठिनाई काम का सामना करना पड़ता है, क्योंकि किसी भी यात्री को बाहर निकालने से पहले उन्हें 8-9 फीट ऊपर चढ़ना पड़ता है।

3. ड्राइवर की ओवरवर्किंग और ड्राउजीनेस अलर्ट सिस्टम न होना

ज्यादातर स्लीपर बसें 300 से 1000 किमी का सफर रात में ही तय करती हैं। लंबे रूट में ड्राइवर के थकने और झपकी आ जाने की संभावना पूरी होती है। महाराष्ट्र के बुलढाणा में जहां रविवार को स्लीपर बस में हादसा हुआ वहां के SP सुनील कडासने के मुताबिक बस पर नियंत्रण खोने से पहले ड्राइवर को शायद चक्कर आ गया हो या वह सो गया हो।

SP के इस बयान के बाद ड्राउजीनेस अलर्ट सिस्टम की उपयोगिता पर सवाल उठाए जा रहा है। ड्राउजीनेस अलर्ट सिस्टम नींद आने पर ड्राइवर को अलर्ट करता है। कहा जा रहा है कि यदि बस में ड्राउजीनेस अलर्ट सिस्टम लगा होता तो बस ड्राइवर को नींद आने के समय अलर्ट करके जगाया जा सकता था और इतना बड़ा हादसा नहीं होता।

एक्सपर्ट्स ने कहा कि सो रहे ड्राइवरों को सचेत करने के लिए यह सिस्टम स्टीयरिंग में विभिन्न हिस्सों में लगे सेंसर और डैशबोर्ड पर कैमरे का उपयोग करता है। चालक के नींद में आने का पता स्टीयरिंग पैटर्न, लेन में वाहन की स्थिति, चालक की आंखों और चेहरे और पैर की गति की निगरानी से लगाया जाता है।

सड़क परिवहन मंत्रालय ने 2018 में 15 राज्यों में ड्राइवरों पर एक सर्वे किया था। इस सर्वे में शामिल 25% ड्राइवरों ने स्वीकार किया था कि गाड़ी चलाते समय वे सो गए थे। ग्लोबल स्टडीज से यह भी पता चला है कि हाईवे और ग्रामीण सड़कों पर यात्रा करते समय ड्राइवरों के सो जाने की संभावना अधिक होती है। साथ ही आधी रात से सुबह 6 बजे के बीच इसके होने की संभावना ज्यादा होती है।

 

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