भारत में क्या है आरक्षण का इतिहास !
भारत में क्या है आरक्षण का इतिहास, आजादी से पहले देश में कहां लाई गई थी ये व्यवस्था?
Reservation in India: भारत में आरक्षण व्यवस्था की शुरुआत आजादी से पहले ही हो चुकी थी. 19वीं सदी की महान भारतीय विचारक, समाज सेवी व लेखक ज्योतिराव गोविंदराव फूले ने देशभर में नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए आरक्षण प्रतिनिधित्व की मांग की थी.
History of Reservation in India: देश में अगले साल लोकसभा चुनाव होने हैं. लोकसभा चुनाव को देखते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नितिश कुमार ने सत्ता में बने रहने के लिए एक और दाव फेका है. उन्होंने चुनाव से पहले राज्य के पिछड़ा वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण की सीमा बढ़ाने को मंजूरी दे दी है. नितिश कुमार की कैबिनेट द्वारा जाती आरक्षण को 50 फीसदी से बढ़ाकर 65 फीसदी कर दिया गया है. जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग के 10 प्रतिशत आरक्षण के साथ बिहार में आरक्षण की सीमा 75 फीसदी तक पहुंच जाएगी. इस समय इसी को लेकर पूरा राज्य में बहस छिड़ी हुई. इसलिए ऐसे में आपके लिए आरक्षण के इतिहास को और भारत में आरक्षण की शुरुआत कब और कैसे हुई यह जानना बहुत महत्वपूर्ण है.
क्या है आरक्षण की मतलब?
भारत में आरक्षण का इतिहास
भारत में आरक्षण व्यवस्था की शुरुआत आजादी से पहले ही हो चुकी थी. आज से करीब 141 साल पहले और आजादी से करीब 65 साल पहले आरक्षण की नींव रखी गई थी. 19वीं सदी की महान भारतीय विचारक, समाज सेवी व लेखक ज्योतिराव गोविंदराव फूले ने देशभर में नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए आरक्षण प्रतिनिधित्व की मांग की थी.
हंटर कमिशन का हुआ गठन
ज्योतिराव गोविंदराव फूले ने ब्राह्मण समाज को धता बताकर बिना किसी ब्राह्मण व पुरोहित के विवाह संस्कार शुरू कराया था और साथ ही इसे मुंबई हाईकोर्ट से मान्यता भी दिलाई थी. उन्ही की वजह से पिछड़े और अछूत माने जाने वाले वर्ग की भलाई के लिए 1882 में हंटर कमिशन के आयोग की गठन किया गया था. आप आरक्षण को लेकर देश में हुई कई अहम घटानाओं और इसी क्रम में आए बदलाव को देख सकते हैं, जिस कारण भारत में आरक्षण व्यवस्था बनीं और लागू भी हुई.
भारत में आरक्षण से जुड़ी अहम घटनाएं
1891 में त्रावणकोर में सामंती रियासत में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी की गई और इसी के तहत विदेशी लोगों को भर्ति करने के खिलाफ प्रदर्शन किया गया और साथ ही सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग की गई.
1901 में महाराष्ट्र की कोल्हापुर रियासत में शाहू महाराज ने आरक्षण देने की शुरुआत की थी. उन्होंने लोगों के लिए काफी काम किया, ताकि एक सामान आधार पर लोगों को अवसर मिल सके. इसके अलावा उन्होंने पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में 50% आरक्षण की व्यवस्था भी की. कहा जाता है कि आरक्षण को लेकर यह पहला सरकारी आदेश था.
1908 में अंग्रेजों ने भी प्रशासन में उन लोगों की हिस्सेदारी को बढ़ाने कि लिए प्रयास किए, जिनकी हिस्सेदारी प्रशासन में कम थी या ना के बराबर थी. उनकी हिस्सेदारी को बढ़ाने के लिए भी अंग्रेजी सरकार ने आरक्षण की व्यवस्था शुरू की.
1909 में भारत सरकार अधिनियम 1909 लाया गया और 1919 में आरक्षण का प्रावधान किया गया और इसमें कई बदलाव भी किए गए. इसके बाद ब्रिटिश सरकार की तरफ से अलग-अलग धर्म और जाति लिए कम्यूनल अवॉर्ड भी शुरुआत की गई.
1921 में मद्रस प्रेसीडेंसी ने गैर ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, एंग्लो-इंडियन के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए 8 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था के लिए जातिगत सराकारी आज्ञापत्र जारी किया गया.
1932 में पूणे की यरवदा जेल में 24 सितंबर 1932 को बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर और महात्मा गांधी द्वारा हस्ताक्षरित एक समझौता हुआ, जिसका नाम पूना पैक्ट था. दरअसल, समझौते ने प्रांतियों और केंद्रिंय विधान परिषदों में गरीब वर्गों के लिए सीटों की गारंटी दी, जिनको आम जनता द्वारा चुना जाता था. साथ ही ब्रिटिश सरकार द्वारा कुछ सीटों को वंचित वर्ग के लिए आरक्षित किया गया. इससे अधूत माने जाने वाले वर्गों को दो वोट देने का अधिकार मिलना था, लेकिन महात्मा गांधी के विरोध के बाद पूना पैक्ट समझौता हुआ.
1942 में बी. आर. अम्बेडकर ने अनूसुचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिर भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की. इसके अलावा उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा की फील्ड में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की.
1947 में भारत को आजादी मिलने के बाद एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग के लिए कई अहम फैसले लिए गए.
1953 में समाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए केलकर आयोग को स्थापित किया गया और इसी की रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचियों में संशोधन किया गया.
1979 में समाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल कमिशन को स्थापित किया गया.
1982 में यह निर्देशित किया गया था कि सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों में क्रमशः 15 फीसदी और 7.5 फीसदी वैकेंसी एससी और एसटी उम्मीदवारों के लिए आरक्षित की जानी चाहिए.
1990 में भारत में आरक्षण को लेकर सबसे बड़ी सियासत की शुरुआत हुई, जब वीपी सिंह सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिश को लागू किया. मंडल कमीशन की सिफारिश के बाद देश में नौकरी में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति और ओबीसी के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई. अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिशत और अनुसूचित जन जाति के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई. इसके साथ ही ओबीसी कोटे के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई.
2008 में मनमोहन सिंह की सरकार ने उच्च शिक्षण संस्थानों में भी ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया.
2019 से पहले, आरक्षण मुख्य रूप से सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन (जाति) के आधार पर प्रदान किया जाता था. हालांकि, 2019 में 103वें संविधान संशोधन के बाद आर्थिक पिछड़ेपन पर भी विचार किया गया. आरक्षण कोटा के अलावा, विभिन्न आरक्षण श्रेणियों के लिए ऊपरी आयु में छूट, अतिरिक्त प्रयास और कम कट-ऑफ अंक जैसी अतिरिक्त छूट भी प्रदान की गई.
2019 में भारत की केंद्र सरकार ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण शुरू किया. सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों के बीच आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए 10% कोटा प्रदान किया गया.